|| चमरबंध चांगी और आडेसर ठाकुर प्रवीणसिंह जी ||
ज्यादा पुरानी बात नहीं है। यही कोई 77 वर्ष पूर्व 1947 की 15वी अगस्त को देशभर में स्वातंत्र्य पर्व का हर्षोल्लास था, उससे पहले पोष माह की ठण्ड भरी पवन की लहरे कच्छ के रेगिस्तान के किनारे अपनी ही मदमस्ती में बह रही थी। बारह गाँव चोराड के तथा बारह गाँव वागड़ के - कुल चौबीस गांवकी आडेसर की जागीर उत्तरमे कच्छ के बड़े रण, तथा दक्षिणमे कच्छ के छोटे रण के मध्य प्रकृति का अलग ही रोमांच लिए स्थित थी। ठाकुर प्रवीणसिंहजी जाडेजा का राज था। अपनी रंगीन तथा खुमारी सभर युवानी के दिनों के संस्मरणों को याद करते आडेसर दरबारगढ़ में वार्धक्य विता रहे है।
ठाकुर प्रवीणसिंहजी के पास मोटरकारें थी, पर शौक उन्हें अश्व का था। अस्तबलमे बीस-बीस जातवान घोड़े बंधे रहते थे। एक तो रण का किनारा, कांटेदार घास वाला भूभाग, तथा रण का सपाट प्रदेश। हिरण, रोज़ और जंगली सूअरो का भयंकर त्रास, रणप्रदेश के कमजोर मौसम में खड़ी फसल को बर्बाद कर देते। किसानों को त्रासदायी सूअरो में एक बिगड़ैल आततायी हो चला था, झुण्ड के बजाए अकेला ही घूमता, तो लोगो ने भी 'एकल' नाम दे दिया। प्रवीणसिंह दौड़ते घोड़े से सुअरको भाले में पिरोने में प्रवीण थे। कूदते हिरणो से घोडा मिलाकर उन्हें घोड़े के निचे ले लिया करते थे। उनके पास चांगी (अश्व जात) घोड़ी थी। एक प्रसंग उन्हें सदा के लिए याद रह गया, वे बताते है की,
"मेरे पास जो चांगी घोड़ी थी, उसके पूर्वज तो चोटिला के नाजा खाचर की शान थी, हमारे पुरखे वहा से इस चांगी का वंश आडेसर ले आए थे।
बात यु हुई थी की, सन 1946, पोष मॉस का दिवस था। एक शाम को किसानो ने खबर दी की, रण किनारे सीमाक्षेत्रमे सुअरों का त्रास बढ़ गया है। जुवार की खड़ी उपज को बर्बाद कर देते है।" जानने को मिला है की इन सुअरों में एक महाकाय बिगड़ैल एकल सूअर भी है। लंबे दंतशूल, तथा भैंस के बछड़े जितनी कद-काठी है उसकी, ज़नूनी भी अनहद है।
दूसरे दिन रण की हाड कपाने वाली ठंडी में हमने रणभेरी की तयारी की। उस दिन मैंने चांगी की सवारी की थी। फिर तो हमने जुवार की खड़ी फसलों में से खोज खोज कर सुअरों को भालो में पिरोया। दस-दस गाउ तक की मजल की, लेकिन वह एकल हाथ न आया। मेरे दो शिकारी पगी ओ को एकल को खोजने का कार्य सौंप कर हम अँधेरा होते गाँव आ गए।
शिकारी जिव, ऊपर से सर्दी की रात तथा चमकदार युवावस्था, इस लिए पूरी रात्रि जी बैचैन ही रहा। सवेरे उठते ही शिकारी ओ ने खबर दी, "एकल का पता तो लगा लिया है लेकिन लगता है वह घायल है, उसके पैरो के निशाँ ऐसा बता रहे है।"
सूअर की चर्बी ऐसी होती है की, उसे चोट लगे तो रक्त ज्यादा बहता नहीं है, तथा उसकी शक्ति भी ज्यादा क्षीण होती नहीं है। लेकिन घायल सूअर अत्यधिक जनूनी हो जाता है।
समाचार मिलते ही चांगी को तैयार की। अकेले एकल का ही शिकार करना था इस लिए दो शिकारी कुत्ते और दो पैदल सिद्दी शिकारी ओ को ही साथ लिए थे। निशानों के अनुसार हम चले जा रहे थे। खबर पक्की थी। वह सूअर सामने ही पड़े जुवारके ढेर में आराम कर रहा था। इस ढेर के ठीक पीछे रण शुरू हो रहा था।
सूर्यनारायण पांच हाथ आसमान में चढ़े थे। सर्दियों के उत्तर की और बह रहे ठन्डे पवन मानो रण की छाती पर खेल रहे थे। कुत्तो ने सूअर की गंध पहचान ली, सामने लगे जुवार ढेर की ओर भोंकने लगे। अपने पीछे के पैरो से धूल उड़ाते हमला करने की आज्ञा मांगने लगे। तुरंत ही कुत्तो को शिकारी ओ ने सिटी बजा ढेर की ओर छोड़ दिया।
झुनूनी बनकर कुत्तो ने ढेर पर धावा बोल दिया, पर उतनेमें कड़ाके की आवाज के साथ एकल ने दंतशूल के एक ही वार में एक कुत्ते के दो टुकड़े कर दिए। दूसरा कुत्ता डरता हुआ पीछे हटता हमारे पास आ गया। मौका देखते सूअर पूरी स्फूर्ति से रण की सपाट धरती पर भागने लगा, लगभग आधे खेत जितना दूर निकल गया तब शिकारी की नजर दौड़ी,
"बापु ! एकल भागा, संभालो !"
और मैने दाएं हाथ मे भाला लेकर लगाम खींचते हुए चांगी को सूअर के पीछे दौड़ा दी। एकाध मील सूअर आगे निकल गया था, लेकिन तीन ही मिनिट में चांगी सूअर से पचास फिट के अंतर में पहुंच गई। यह तीन साल के भैंस के बछड़े जैसा जंगली सूअर अपनी जान पर बन आई देख भागे जा रहा था। पचास फिट के फासले से आगे सूअर - पीछे चांगी - रण में इस गडहड़ाट के अलावा कुछ भी स्वर नही उठ रहा था।
चांगी एक शिकारी घोड़ी थी। खुद शिकार न बन जाए तथा असवार शिकार कर पाए ऐसी तालीम ली हुई चपल घोड़ी थी। संभालपुर्वक चांगी ने सूअर को अपने बाजू में लिया, ताकि में भाला मार सकूं। सूअर भी युद्ध के दाव का मानो प्रशिक्षित था, उसने अपनी गति धीरी की, चांगी को दंतशूल मारने घुरका ही था की मैंने भाला मारा, वह धीरा था, भाला उसे सिर्फ छू ही सका, वह फिर से वेगपूर्वक भागने लगा।
रण में विशाल पेड़ नहीं होते है, छोटे कंटीले वाड-पौधे होते है..! इस लिए अत्यंत वेगपूर्वक वह भाग नहीं सकता था, एक कंटीली बाड़ के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगा। लगभग चोरस हजारेक फिट के भूभाग में हम में द्वंद शुरू हुआ। कभी वह भागता, कभी अपने खंजर जैसे दांतो से अचानक हमला करता, शिकारवृत्ति की समझदार चांगी सूअर की झपटे न चढ़ती, लेकिन सूअर से भिड़ने चपलता से गोलाकार घूम जाती। 2-3 मिनिट में तो कई सारे खेल हो गए।
उतने में मुझे लगा की अब सूअर अब बराबर फंसा है, चांगी ने सूअर को अपनी टांपो के निचे लिया। मैंने भाला मारा, सूअर गुलाटी मारता फिर से त्वरित गति से खड़ा हो गया...! रण में पवन की गति सा भागने लगा। मैंने चांगी को उसकी ओर मोड़कर उसके पीछे दौड़ा दी, फिर से एकबार निर्जन रण में युद्ध गर्जना के सुर उठने लगे।
मैंने अपनी जिंदगी में कभी इतना भागने वाला सूअर नहीं देखा था। सूअर भी भागकर अब जाता कहाँ? छिपने के लिए कोई झाडी न थी, सूअर अब हाथ आने को ही था, बराबर मौका देखते मैंने इस बार सटीक भाला फेंका। लेकिन भागते सूअर ने अचानक ही अपनी दौड़ पर रोक लगा दी, जमीन पर कील की माफिक वहीं जड़ हो गया, पिछले दोनो पेरो से बैठकर अपने ऊपर चढ़ी आ रही चांगी की छाती में अपने दंतशूल पिरोने खड़ा हो गया। ऐसा युद्ध दाव देखते क्षणभर तो मेरी साँस ही थम गई। मैंने तो भाला फेंक दिया था, सूअर के रुक जाने से भाला उससे आगे जा गिरा। इस निष्फल प्रहार से ज्यादा भय मुझे चांगी का लगा था।
उतने में ही बिजली की चमक की भांति दौड़ रही चांगी ने छलांग मारी, सूअर के ऊपर से बारह हाथ जितना कूदकर रुक गई।
जातवान अश्व आपातकाल में त्वरित निर्णय लेने को समर्थवान होते है, ऊंट की भांति वे सामने से दुश्मन के मुंह मे नही जाते..!!
वेगवंत चांगी के अचानक रुक जाने मैं समतूला खो बैठा, और में घोड़ी से नीचे गिर गया। सूअर जैसा हठीला और विकराल जानवर यह मौका चूक सकता है क्या?
सूअर मुझे कुचल देने हेतु मेरी ओर बढ़ने लगा, जैसे ही में खड़ा हुआ कि उसने दौड़ते हुए मुझे अपना सर मारकर पटक दिया। अपने नुकीले दंतशूलों से मुझे काट देना चाहता था वो। सामान्यतः ऐसी स्थितियो में सूअर बेहिसाब अपना सर मारकर शिकार को कुचलने के भरसक प्रयास करता है। क्योंकि दंतशूल मारने के लिए उसे निशान साधना पड़ता है।
संकट समय मे हिम्मत ही काम आती है। सूअर का सामना करने के लिए मैं अपने दोनों घुटनों पर खड़ा हुआ, और अपने हाथो को आगे कर उसे रोकने का प्रयास कर रहा था। मैं इस लड़ाई को लंबी खींचना चाहता था, ताकि मेरे शिकारी साथी यहां तक आ पहुंचे। लेकिन सूअर यह पल मुझ तक कहाँ पहुंचने देता?
लड़ते लड़ते पीछे हटकर जिस तरह टक्कर मारी जाती है, वैसे ही सूअर ने मुझे अपना वजनदार माथा मारा। मैं वही गिर पड़ा, उसने दूसरी टक्कर मारी, मेरे आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। उसके दंतशूल का एकाध निशान भी बना मेरे शरीर पर। आंखे इधर उधर घूमने लगी मेरी, अब तो माताजी ही सहाय हो।
बाद में जब मैं पूरे होश में आया तब में अपने शिकारियों की गोद मे था। चांगी नसकोरे फुलाती मेरे पास में ही बेलगाम खड़ी थी, और एकल सूअर मरा हुआ पड़ा था। मेरे होंश में आने के बाद शिकारी ने मुझे बताया,
"बापु ! हम तो घोड़ी के पीछे ही दौड़ते आ रहे थे, लेकिन दो खेत जितने दूर थे तब हमने आपको घोड़ी से गिरते देखा। हम तो डर ही गए थे कि नक्की आज हम पर काली लकीर चढ़ी। चांगी बिनास्वार दौड़े जा रही थी, आप तथा सूअर आपस मे लड़ने में व्यस्त थे, यह तो बस एक मिनिट का ही मामला था, किन्तु चांगी को अपनी पीठ पर आपका भार मालूम न हुआ हावळ (अश्व की आवाज) देती वापिस मुड़ी। आपके ऊपर सूअर को प्रहार करता देख पूंछ का झंडा करके तीर की भांति दौड़ते सूअर के ऊपर कूद पड़ी। आपके ऊपर चढ़ बैठे एकल को चांगीने डाढ़ (दांतो) में लिया। ठीक पीठ से पकड़कर झटका देते हुए एक तरफ पटक दिया।
एकल भी क्रोधित ही था, हमने दूर से बहुत आवाजे-पडकारे किए लेकिन वो तो पूरे जनून से आप के ही ऊपर हावी होने को था। चांगी जैसे अपने असल रूप में आई हो, जैसे प्रसंगोचित रोम रोम खड़ा हो जाए, वैसे ही चांगी के गर्दन के बाल खड़े होते दिखे हमे, आडेसर तक सुनाई पड़े ऐसी गर्जना कर उसने फिर से सूअर को पीठ से पकड़कर झोंटा मरती आपके ऊपर से दूर ले गई, जबड़े में जोरपूर्वक पकड़कर उसने अपने अगले पैरो की टांप सूअर के सर में मारने लगी थी। हमारे गले से मुश्किल से आवाज निकली, "पहुंच गए है चांगी ! माताजी ! तूने तो आज हमारी लाज रख ली।"
हमारे पहुंचने तक मे तो चांगी ने विकराल सूअर को अधमुआ कर दिया था। हमको तो तैयार मौका मिला, एकल चांगी के जबड़े की पकड़ में ही था, और हम दोनो ने सूअर को काट दिया। लेकिन बापु ! क्या चांगी का जनून ! कटे पड़े सूअर के खून से गढ्ढा भरा था, चांगी तो चटकारे से पीने लगी, हम मुसलमान, इस लिए सूअर का खून पी रही चांगी को बड़ी मुश्किल से बहला-फुसला कर रोक पाए।"
यह घटना हुई, उसके बाद चांगी तीन साल जीवित रही। चांगी हमारी जीवनदाता थी, तो उस पर सवारी करना छोड़ दिया। सुबह शाम उसके आगे लोबान का धूप कर उसे पूजते थे हम।"
चांगी की याद में विलाप करते वे बोले, "अब तो वे घोड़े गए, असवार भी। सांप गए निशान रह गए। कभी-कभार नाभि के कुंभ में छिपी इन बातों का अपचा हो जाए तब बाहर निकल जाती है।
ऐसा कहकर वे बीत चुका जमाना और चांगी की याद में आंखों के किनारे आई कुछ बूंदों को दूर करने में व्यस्त हो गए।
- वैरीसाल अयाची के लेख का हिंदी अनुवाद।
सविशेष :
लाखियार वियरो के जाम हमीर जी के मझले पुत्र तथा भुज नगर के स्थापक रावश्री खेंगारजी के अनुज तथा बृहद कच्छ के शिल्पी, कुशल पट्टेबाज, और 'छोटे राव' के नाम से प्रसिद्द साहेबजी बावा के सबसे छोटे पुत्र तोगाजी साहेबाणी के पुत्र रणमल जी को आडेसर (आदिसर) तथा सांतलपुर की जागीर गिरास में मिली थी। रणमलजी की पांचवी पीढ़ी में पराक्रमी मूळवा जी हुए, उन्होंने सांतलपुर से बदलकर आडेसर में राजगद्दी की। उसी वंश में जब भारत गणराज्य की स्थापना हो रही थी तब आडेसर जागीर की राजगद्दी पर प्रवीणसिंहजी विराजमान थे।