चला जाता हूँ किसी की धुन में...!

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    हाँ, व्यस्त हूँ मैं...!!! फिल्मे देख रहा हूँ, और फिर भी समय बच जाए तो रील्स जिंदाबाद। अच्छा वाला गुजर बसर हो रहा था, फिर एक दिन एक ने YQ में भेज दिया मुझे। गुजरात टूरिज़्म का मोटो है न, "कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में.." बस वैसे ही कुछ दिन YQ चलाया, YQ दीदी की शादी अटेंड कर वापस अपनी फ़िल्मी और रील्स की दुनिया में चला आया। मडगाओं एक्सप्रेस, पंचायत की 3 सीज़न, ऊपर देख ली भैयाजी... गुड़ के ऊपर गोबर समान अनुभव होता हैं पंचायत के ऊपर भैयाजी देखना.. भाई आज भैया जी जैसी फिल्म बनती ही क्यों है? बेन लगना चाहिए ऐसे कचरे पर.. भारी पश्चाताप के साथ आवेशम देखी तब जाके कुछ चैन आया.. हालांकि आवेशम ने भी स्टोरीलाइन में कुछ उखाड़ा नहीं है लेकिन चलता है.. वो एक एटीट्यूड तो है आवेशम के रंगा में.. इस लिए भैयाजी की कुछ भरपाई तो हुई..! फिर याद आया.. मैंने आज तक कांतारा नहीं देखी थी। मान गए ऋषभ शेट्टी को..! क्या फिल्म बनाई है..  अब उस फिल्म के तो वैसे ही ढेर सारे रिव्यू ऑनलाइन पड़े है, तो अपन तो क्या ही लिख लेंगे..!


    फिर लोगो ने तारीफों के पुल बांधे तवायफों के..! सोचा इसे भी आजमाया जाए.. वैसे मुझे संजय लीला भंसाली बिलकुल पसंद नहीं है..! कारण है उसका नजरिया। मुझे जरा पसंद नहीं है की तुम गुलाबजामुन को रसगुल्ला कहो..! आकार मिलता-जुलता होने से ऊंट जिराफ नहीं हो जाता..! तुमने फिल्म के नाम पर गोलियों की रासलीला राम-लीला बनाई.. दो अच्छे भले समाजो के बिच वैमनस्य हो जाता। अपनी मानसिकता बंधी हुई है, अपन इतना ओपन माइंडेड है नहीं.. ऊपर से अपने साहबजी धार्मिकता इतनी चरम पर ले आए है की बात जाने दो। मैं तो तुरंत ही तुलना करने लगता हु। जैसे इस्लाम में ब्लासफेमी का कानून है, 'ईशनिंदा' के नाम पर अभी कुछ दिन पहले ही पाकिस्तानमें घूमने आए एक विदेशी टूरिस्ट को पाकिस्तानियो ने जिन्दा जला दिया। इस्लाम में ईशनिंदा के प्रति कड़क कायदे है। सनातन में ऐसा कुछ नहीं। तभी तो अपने यहां माता कालिका सिगरेट पीती भी देखने मिल जाती, या शिव-शंभु टॉयलेट में भागते हुए। मुद्दे से भटक गया मैं.. संजय लीला भंसाली पहले फिल्म बनाता है, फिर कुछ विवाद खड़ा होता है, फिर कुछ सिन में काटपीट होती है, आखिरकार रिलीज़ हो जाती है। रामलीला बनाई, जातिगत नाम की वजह से विवाद हुआ, और फिल्म में नाम तथा संवाद दोनों बदलने पड़े। बाजीराव-मस्तानी बनाई, अरे भाई बाजीराव जैसे परमवीर योद्धा को एक पागल-प्रेमी के नजरिये से तो भंसाली ही देख सकता है। पद्मावत बनाई, पुरे देश में हंगामा मचवा दिया। हां ! इसका क्या भरोसा ? स्वप्न के नाम पर कोई सिन दिखा दे। हालाँकि रिलीज़ होने के बाद फिल्म अच्छी लगी थी मुझे। बस वह रतनसिंह के किरदार में शहीद कपूर थोड़ा ओवर-रेटेड लगा। गंगूबाई काठियावाड़ी... एक महान नगरवधू, महानायिका... ईस पर कुछ टिप्पणी करना नहीं चाहता मैं। अभी भाई साहब के नजरिये से नगरवधुओ का स्वातंत्र्य संग्राम देखा "हीरामंडी" में। यह कुछ ज्यादा नहीं हो गया भाईसाहब? मतलब कुछ भी। मैं मानता हु की देशभक्ति कोई दिखाने की चीज नहीं है, वो बस ह्रदय में प्रज्वलित होनी चाहिए। जब जरुरत हो तो प्रचार किये बिना भी देशभक्ति दिखाई जा सकती है। लेकिन ऐसा तो पहली बार देखा। चलो, तुम यूँ दिखाना चाहते हो की किसी एकाद नगरवधू ने त्याग-बलिदान किया हो लेकिन मंशा तो साफ़ नजर आ रही थी, की पूरी हीरामंडी उस दिन देशभक्त हो गई और अंग्रेजो से आज़ादी चाहने लगी। संजय लीला की फिल्मो का वैभव मुझे बहुत पसंद है.. उसकी फिल्म में किरदारों के पीछे का सेट जो वैभवशाली होता है, जैसे एक एक चीज अपनी अदाकारी दिखा रही हो। सीरीज़ के अंत में एक गीत आता है, 'आज़ादी...' उस गीत में एक पंक्ति है, "सब ताज पड़े बेसुध होंगे, हम अपने हाकिम खुद होंगे..." पता नहीं कहना क्या चाहता है।


    थोड़ी बहुत कन्फ्यूज़न के साथ 'मामला लीगल है' देखी। यह भी हथोड़ा ही है। रविकिशन वो भी वकील के भेस में...! वैसे मैं सहनशील बहुत हूँ। तो ऐसे प्रहार झेलने की क्षमता मुझमे कूट कूट कर भरी पड़ी है। ठीक है चलता है, गर्मियों के सीज़न में मुझे देर रात तक नींद नहीं आती, तो ऐसी फिल्मे मुझे सोने मदद जरूर करती है। उसके बाद मार्वल की सस्ती कॉपी ब्रह्मास्त्र देखी... जिसमे पूरी फिल्म में गंगूबाई बस शिवा शिवा करती रहती है वही...! थोड़ा और खर्चा कर लेते भाई, ऐसी मूवी बना ही रहे हो तो..! थोड़े ढंग के VFX देखने मिलते तो थोड़ा मजा और आ जाता। उसके बाद शाहिदबाबा की फ़र्ज़ी देखी। भाई विजय सेतुपति को हिंदी बुलवाना जरुरी था क्या? शाहिद का तो कैरेक्टर ही समझ में नहीं आ रहा, एक्टिंग के मामले में सेतुपति सॉलिड है, और वो राशि खन्ना ठीक ठीक है, शाहिद भाई तो बस खींचे जा रहे और मेरे हिसाब से पुरे नंबर जाते है मंसूर भाई को.. के के मेनन..! के के का तो स्वेग ही अलग है, स्पेसिल ऑप्स का सेकंड सीज़न कब आएगा?


    अब सोच ही रहा था की आगे क्या देखा जाय, उतने में बुधा आया 'बुधालाल' (चुने के साथ मिश्रित करने वाली तम्बाकू) रगड़ते हुए, "नई एक फिल्लम आई है देखी क्या ?"

    "कौनसी?"

    "मुँज्या"

    "कैसी है?"

    "हॉरर कॉमेडी"

    फिर क्या, वही रात, वही सितारों वाला आसमान, पिछले दिन हुई नाइ के फव्वारे जैसी बारिश के परिणामस्वरूप जन्मी भेजयुक्त गर्मी, और छत पर पलंग पे लेटा हुआ में, कानो में ब्लूटूथ, और मोबाइल स्क्रीन पर चल रही मुँज्या। (अभी कोई टोकना मत की तुम्हारे जैसो की वजह से मूवी पाइरेसी होती है।) भाई, मिली तो देख ली। नहीं मिलती तो नहीं देखता। मैं कोई युगपुरुष तो हूँ नहीं। बाकी क्या गजब मूवी बनाई है 'मुँज्या'...! ब्रह्मराक्षस की कहानी.. कटप्पा का किरदार अच्छा है। स्टोरी से ज्यादा अच्छा है मुँज्या का कैरेक्टर।  क्या लुक दिया है मुँज्या को। हालाँकि कॉमेडी है इस लिए डर नहीं लगता।


    फिर सोच रहा था क्या देखा जाए? कोई बुक पढ़ने का मन था नहीं, ना कुछ लिखने को। हां, बुधे ने बोला इस लिए कुछ ऐतिहासिक पात्रो की कथाओ का हिंदी अनुवाद अवश्य किया। भद्रेश्वर के हाला महेरामण जी, वढवाण के राजा दाजीराज जी, दांता के राजसाहेब महोबतसिंहजी, लूणसर के कलो जी, कच्छ के महारावश्री, धोलेरा सत्याग्रह के शिवसिंह चुडासमा, भावनगर स्टेट लांसर के हनुभा चुडासमा..! लेकिन मन अभी भी फिल्मो में ही उलझा हुआ था। आखिरकार यूट्यब को पूछ लिया, कोई ढंग की फिल्म का नाम बता। अगले ने पूरी फिल्म ही दिखा दी। 'हिडिम्भ' : अच्छी मूवी है। लेकिन फिल्म का अंत बेकार है। साऊथ मूवी का सिस्टम फिक्स है, फर्स्ट हाफ में दौड़ा-दौड़ी कराते है, पूरी कहानी को इधर से उधर और उधर से इधर खींचते है, और सेकंड हाफ में हुकम के इक्के की माफिक सस्पेंस खोलते है, जो फर्स्ट हाफ को कंटीन्यू करते हुए कहानी के अंत तरफ ले जाए। हिडिम्भ में तो हद ही कर दी, अंडमान के पास एक द्वीप से नरभक्षी आदिमानवों की जाती से एक व्यक्ति को मेन लेंड भारत में ले आए। वह नरभक्षी भी कलर-ब्लाइंड निकला.. लाल रंग देखते ही मार के खा जाता। आश्चर्य है की एकाद अपवाद को छोड़ दे तो पूरी फिल्म में हिडिंभ ने स्त्री ओ को ही खाया है, कोई नारीवादी नेता जाएगी क्यों हो होगी? अन्याय है, नरभक्षी है तो सिर्फ नारी ही क्यों खाए?


    फिर किसी ने सुझाव दिया, "हैप्पी फेमिली, कंडीशन एप्लाय" देखो..! बस कल रात फिर छत पर सोते सोते 4 एपिसोड देखे, समझ आ गया, सामाजिक दूषण की व्याख्या किसे कहते है..! घर की वयस्क महिला - दादी को बेवडी और ठरकी दिखाना कोई इनसे सीखे...! मुझे रत्ना पाठक का वो पॉडकास्ट वाला इंटरव्यू याद आ गया, जिसमे वह अर्जुन के पंखी की आँख पर लक्ष्य-केंद्र के विषय में कह रही होती की, अर्जुन जैसा एक निश्चित लक्ष्य क्यों रखना है की तुम्हे सिर्फ पक्षी की आंख ही दिखे, तुम उस पक्षी की आँख पर ध्यान केंद्रित करके, मंद पवन, प्रकृति की सुंदरता, नदियों की कलकल, वृक्ष की सुंदर शाखाए, कोमल पत्ते - पुष्प यह सब छोड़कर सिर्फ पक्षी की आँख देखना उचित नहीं है.. मतलब मूर्खता की पराकाष्ठा है..! रत्ना मेडम, तुम्हे विश्लेषक या, विचारक बनना है तो कुछ ढंग का बनो..!


    क्या करे, कभी कभी तो लगता है इन जैसो के तो सोचने पर भी टेक्स लागू करना चाहिए। वेल्ले कुछ भी सोचते है।


    बुधा कही से HD फिल्मे ले आया, ब्लूटूथ शेरिंग से मेरे फोन में ली। वही रात्रि निंद्रा के आगमन तथा स्वागत हेतु महाभारत की पृष्ठभूमि पर भविष्य में अवतार ले रहे विष्णु के कल्कि स्वरुप को अवतरित होने देने के लिए की जा रही अश्वत्थामा के संघर्षो को चित्र स्वरुप में प्रदर्शित कर रही फिल्म कल्कि देखी..! यदि आपने मार्वल की एवेंजर्स के इन्फिनिटी वॉर तथा एंडगेम देखे तो तो कल्कि के सीन्स आपको उनसे अत्यधिक मिलते-जुलते दिखेंगे। पटकथा सही है, चिरायु को प्राप्त अश्वत्थामा के पात्र में अमिताभ, कर्ण के अंशवतार समान भैरव के पात्र में प्रभास। कल्कि अवतार की माता बनी सुमति नाम की दीपिका पादुकोण ठीक ठाक ही लगी, और हंमेशा की तरह थोड़ी सी स्क्रीन शेयर करने आई दिशा पटानी। विलन के रूप में कमल हासन। ठीक है, एकबार देखने लायक है। मुझे बहुत कुछ मार्वल की एवेंजर जैसा लगा।


    उसके बाद देखी हॉलीवुड की फ्युरिओसा। पता नहीं फिल्म कहना क्या चाहती है। शायद मनुष्य जाती द्वारा किये गए पृथ्वी के अत्यधिक शोषण के पश्चात का जीवन कैसा होगा यही उस फिल्म का मूलाधार है। वह भी ठीक-ठाक है। मुझे अच्छी लगी नेपोलियन। इतिहास में थोड़ा बहुत रस है इस लिए। नेपोलियन ने फ़्रांस को खड़ा किया, युद्धभूमि में सदा रहा। जीता भी, हारा भी। फ़्रांस का किया गया विस्तृतीकरण से लेकर उसकी मृत्यु तक, उसके प्रेम प्रसंग से लेकर विरह तक। बहुत ही शानदार मूवी मुझे लगी। 


***


    वर्षा आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है। गर्मी के कारण उठी तृष्णा को तो वर्षा ही तृप्त कर सकने सामर्थ्यवान है। रचनाकार की अद्भुत रचना है यह ऋतु चक्र, अनंत काल तक चलती प्रक्रिया। ऋतु की प्रथम वर्षा के पश्चात धरा और तप्तता दर्शाती है, मानो मेघराज को पुनः मिलन की व्याकुलता दर्शा रही हो। या फिर ऐसा भी हो सकता है, धरा मेघ से रूठी हो। 

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"मेघो करे मल्हार, त्रांसी धारे त्राटक्यो ;
अनंत अरु अपार, अंबु आवी उतर्या..."
· · ─────── ·𖥸· ─────── · ·

    चार तरफ पानी ही पानी..! कही मयूर अपने कंठ को तीन-तीन बार पीछे खींचकर गेहकता है, शाम होते ही मेंढक भी मानो वाद-विवाद की स्पर्धा में उतरे हो। आसमान में बादलो की ऊपरनीचे दो परत बंधी थी..! उपरली परत स्थिर थी, निचली परत पवन के साथ आगे बढ़े जा रही थी..! मृगो के तुण्ड फट जाए ऐसी बिजलिया कड़क रही थी..! ऐसा लग रहा था जैसे बिजली को छू सकते है, इतनी निचे तक आकर गरज रही थी। काली अँधेरी वर्षायुक्त रात्रि की समाप्ति हुई, प्रातः तक आदित्यने अपने उजियारे से नवचेतना का संचार किया। प्रतिदिन की भाँती में ऑफिस गया, अपना कार्य संपन्न कर दोपहर 3 बजे घर वापिस आ गया।

    कार निकाली, पेट्रोल पम्प जाकर कार की अनंत तृष्णा परितृप्त करने को असमर्थ मैंने बस उसका गला गीला हो उतनी आहुति अर्पण की। अंजार बायपास होकर भुज हाइवे पर 4 काले टायर चिचियारे करने लगे। रविवार, और वर्षा के पश्चात पृथ्वी भी लग रहा था की कोई मुग्धा अपने गीले बाल झटक कर पानी की बुँदे उड़ा रही हो..! हाइवे के दोनों ओर हरियाली वर्षा की उच्च कीमत आंक रही थी। अंजार से आगे सापेड़ा में बायपास निकलते हुए आभास हुआ की मार्ग तथा वाहन व्यव्हार मंत्रालय ने साबित तो किया है की भले ही मंद गति से हो किन्तु वे काम तो कर रहे है। सापेड़ा के बाद रतनाल में भारत के विकासशील होने की साक्षी स्वरुप अभी भी वही पुराने दो फाटक कार्यरत है। रतनाल से निकलते ही एक और रेलवे फाटक कुकमा गाँव आने की सुचना देता कभी हरे - कभी लाल सिग्नल के माध्यम से ट्रको से भरपूर ट्राफिक को अपने वर्चस्व का आभास कराता है। इस रेलवे क्रॉसिंग को पार करते ही, बायीं ओर एक बिलकुल कुपोषित सड़क पर्वतों में ले जाती है। लगभग छह साल हो गए, मुझे इस सड़क पर आए। छह साल पहले तो यहाँ पक्की डामर की सड़क भी न थी। अनार तथा खारेक से लदे खेतो के बिच में से होती हुई यह कच्ची सड़क सीधे आशापुरा टेकरी ले जाया करती थी। आज इस पर चलते हुए छह साल का फासला दो मिनिट में आँखों के आगे से पसार होते दिखा।

    पिछली बार मैं अपनी स्प्लेंडर लेकर गया था। सड़क के नाम पर खेतो में जाने वाले ट्रेक्टरों ने किए हुए गड्ढो से भरपूर मिटटी तथा रेती वाली जगह में होते हुए कभी बाए कभी दाए मुड़कर सामने ही एक छोटा लेकिन मध्यम कद के पर्वत की तलहटी में लाकर खड़ी करती सड़क। तलहटी से दो रास्ते अलग होते है, एक सीढ़ियों से पैदल पर्वत पर चढ़ो, दुसरा खड़को से युक्त पर्वतीय ढलान पर मोटरसायकल चढ़ाओ। मैंने सीढ़ी चढ़ने के बजाए मोटरसायकल चढ़ाने की सोची, वहीँ दो लड़के खड़े थे। युवा थे, मैंने उनसे पूछ लिया, "मोटसाइकल ऊपर जा सकती है क्या ?"

    "कलेजे में जिगर में हो तो..!" शायद वो अपनी हेवी-मोटरसायकल नहीं चढ़ा पाया था, तो मेरी स्प्लेंडर देखते हुए बोला।

    उन दिनों मैं रिस्क लेने में जरा भी झिझकता नहीं था। मुझे अपनी ड्राइविंग पर गले तक भरोसा था। उठा न सको उतने बड़े रेतीले पथ्थर, एकदम खड़ी चढ़ाई, कहीं कहीं रेतीले पथ्थर पर मोटरसायकल के टायर एक ही जगह पर कई बार घूम भी जाते, एकांत पूर्ण, लेकिन स्थानिको के अलावा निर्जन स्थान पर मैंने मोटरसायकल दौड़ा दी। कुछ कुछ जगहों पर मोटरसायकल से उतरकर भी पैदल धक्का लगाना पड़ा, चोटी पर पहुँचने से पहले एक जगह ऐसी थी की दोनों तरफ खाई। यदि जरा भी संतुलन बिगड़ा तो किसी एक तरफ की खाई में पहुंचना निश्चित था, हुआ भी कुछ ऐसा ही, एक पथ्थर पर थोड़ी खड़ी चढ़ाई थी, थोड़ा ज्यादा एक्सेलेटर देते ही बाइक कूदी, ब्रेक लगाते लगाते पिछला टायर सड़क और खाई की सीमारेखा को छू गया, फिर से एक्सेलेटर दिया, टायर उसी जगह पर घूमते हुए ग्रिप मिलते ही मोटर सायकल वापस सड़क पर आ पहुंची।

    आज तो RCC रोड - ऊपर मंदिर तक बन चूका है। मैंने ऊपर मंदिर तक कार ही चढ़ानी चाही। मेरे आगे एक बड़ी कार थी। सड़क पक्की RCC है लेकिन एकदम 45 डिग्री जैसी खड़ी चढ़ाई है, ऐसी चढ़ाई पर पता नहीं क्यों वह रुक गया। मैं उसके पीछे था, मुझे भी ब्रेक मारनी पड़ गई। पर्वतीय चढ़ाई पर मोटरसायकल चढ़ानी आसान है, क्लच की हुई कार में एक्सेलेटर के लिए ब्रेक छोड़ते ही पीछे की ओर सरकने लगती है। आगे वाली महिंद्रा ज़ायलो कार पीछे को आने लगी, थोड़ी देर तो लगा माताजी ने अलग ही अनुभव दिया है। धीरे धीरे उसने काबू पाया, और आगे बढ़ने लगा। अब वही समस्या मेरे साथ भी हुई, जो होगा देखि जाएगी सोचके, आधी क्लच छोड़ एक्सेलेटर पूरा दबा दिया.. भें-भें करती तीव्र गति कार आगे बढ़ गई, सामने से गोलाई पर एक तेज रफ्तार में उतरता हुआ इको बिलकुल मेरी कार से डोरा-भर दुरी से पसार हो गया, आज कुछ ठीक नहीं लग रहा था। जो आत्म-विश्वास चाहिए वो मानो साथ छोड़कर चला गया था। तलहटी कुल चार-साढेचार किलोमीटर की चढ़ाई है, तीन किलोमीटर में चढ़ चुका था, पहली बार मुझे लगा की यहां रुक जाना चाहिए,  जीवन में पहली बार खड़ी चढ़ाई पर चढ़ती कार का अनुभव ले रहा था। उत्साह, भय, रोमांच, सभी भावना का मनमे मिश्रण हो गया था। ऐसा कतई नहीं था की मैं हिम्मत हार गया, पर एक दृढ़निश्चय नहीं बन पाया। वहीँ चोटी से आधे-पौने किलोमीटर पहले थोड़ा खुला मैदान है, मैंने वहीँ कार पार्क कर दी, आगे का सफर पैदल किया। बड़ी गाड़िया तेज रफ्तार में बाजू से निकलती ऊपर चढ़ रही थी, अरे एक मारुती 800 भी चीं-चीं-चीं करती ऊपर की ओर चढ़ गई। सो बात की एक बात, आत्मविश्वास की अधूरप हो तो आगे नहीं ही बढ़ना चाहिए।

    चोटी पर स्थित कच्छ देशदेवी माँ आशापुरा के दर्शन किए, पास ही शिव मंदिर में शिवलिंग के दर्शन किए। लगभग पांच बजे तक वहीँ प्रकृति का आनंद लेते बैठा रहा। अंबुधर से सिंचित पृथ्वी की उपलि परत हरी हो चुकी थी। ऊपर काले बादलो से घिरा आकाश, निचे जहाँ तक नजर जाए एकछत्र हरियाली। कुछ पंद्रह बीस मिनिट भर सकूं उतनी आँखों में प्रकृति को भरकर मैं निचे उतरने लगा। कार यूटर्न कर निचे उतरने लगा, निचे उतरना आसान है, न्यूटन का गति का नियम यथार्थ होते लग रहा था। पूरी ब्रेक दबाने के बावजूद कुछ कुछ जगह कार की गति धीमी नहीं होती, पहले गियर के शरणस्थान के आश्रय की छाँव में जाना ही पड़ता है। हाँ ! कुछ जगह ऊपर की ओर जा रही गाड़ियां पीछे सरकती देख मेरे मनमें कुछ देर पहले वाले भावों का पुनरागमन अवश्य हुआ। कुछ ही मिनिटो में मैं भुज अंजार हाइवे पर खोटे सिक्के की तरह वापस आ गया। हाँ ! एक फर्क था, पश्चिम की ओर बढ़ा था तब मेरे भीतर उत्साह, रोमांच के भाव थे, पूर्व की ओर बढ़ते एक संतोष तथा शांति का अनुभव करते सात बजे तक घर पहुंच गया। 

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  1. सॉलिड लिखा है आपने भाई!🙏🙏🙏

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    1. बहुत शुक्रिया पढ़ने के लिए...!🙏

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