"रखवाली" - राजेन्द्रसिंह रायजादा
सौराष्ट्र के प्राचीनतम राजवंशो में से एक जूनागढ़ के चुडासमा ओ की रायजादा शाखा जूनागढ़ के राज्यपतन के पश्चात जूनागढ़ के पास केशोद के आसपास आकर बसी थी। उनमे काकाभी रायजादा नामका राजपूत अति प्रसिद्द हुआ। उनका गाँव केवद्रा भी "काकाभी का केवद्रा" नाम से पहचाना जाता था। काकाभी के पास 84 गाँव की जागीर हुआ करती थी। उन्होंने सोरठ(सौराष्ट्र) में भंडुरी नामका गाँव भी जित लिया, अतः वे 'वाघोजी ठाकोर' नाम से भी प्रसिद्द हुए।
गोहिलवाड प्रान्त का कोई बलवान काठी भंडुरी पर चढ़ाई ले आया। काकाभी को समाचार मिलते ही तुरंत भंडुरी के लिए रवाना हुए। काठी को भी काकाभी के आने समाचार मिले। स्वयं काकाभी से टक्कर लेना मतलब लोहे के चने चबाने समान। वह वापस भागा, भंडुरी के ईशान में शेरगढ़ की सीमा आई। शेरगढ़मे महिया बसते थे, और महियो को रायजादाओ से पुराना बेर था, इस लिए उन्होंने भागते काठी को आशरा दिया।
इस तरफ काकाभी भंडुरी पहुंचे तो पता चला की काठी अपने आदमीओ के साथ पहले ही भाग चूका है। उन्हें विचार आया, इस पुरे इलाके में उसे कोई आश्रय देगा नहीं, कहाँ तक भागेगा? इस लिए उन्होंने पीछा किया। उस काठी ने कभी काकाभी को देखा नहीं था, और काकाभी उसके पीछे पड़ा है, वह समाचार शेरगढ़ पहुंचे। महियाओने काठी को थोड़ी हिम्मत बंधाई, और काकाभी के इंतजार में झाड़िओ में छिप गए। काकाभी तथा उनके आदमी उन झाड़िओ के पास पहुंचे, महियाओने काठी को काकाभी की पहचान बताई। नजदीक पहुंचते ही काठी ने झाड़िओ से बहार आकर अपनी बन्दुक से काकाभी पर गोली चला दी। ईस्वीसन 1865 में दगे से काकाभी की हत्या की गई। जिस जगह पर काकाभी की मृत्यु हुई, वहाँ उनका पालिया खड़ा किया गया। कुछ वर्षो बाद उनके वारसदारो ने केवद्रा गढ़मे ईस्वीसन 1889 में उनका पालिया खड़ा किया। एक ही व्यक्ति के दो पालिये खड़े हो ऐसे किस्से बहुत कम बनते है।
*****
सौराष्ट्र में केशोद के पास केवद्रा नामक गाँव है। उन दिनों केवद्रामें काकाभी रायजादा गाँव के ठाकुर थे। काकाभी की माळिया-हाटीना के हाटी पिठात के साथ अच्छी दोस्ती थी। किन्तु संवत 1865 मे काकाभी का अवसान होते पिठात हाटी ने केवद्रा पर कब्जा कर लिया। काकाभी के कोई रिस्तेदार मुलुभा राठोड केवद्रा में रहते थे। ठीक इन्ही दिनों चोरवाड़ में खीमाजी रायजादा का राज था। खीमाजी को काकाभी का गिरास पिठात खाए वह छाती में शूल सामान चुभता था। और मुलुभा राठोड अकेले कुछ कर सके ऐसी स्थिति में थे नहीं।
एकदिन चोरवाड़ से खीमाजी केवद्रा आए थे। मुलुभा से बातचीत करते दौरान काकाभी की जागीर पिठात दबाए बैठा है उस बात का दुःख व्यक्त किया। यह बात पिठात का भतीजा सुन गया। खीमाजी तथा पिठात के भतीजे के बिच झड़प हुई, लेकिन मुलुभा ने समय देखते खीमाजी को समझाया तथा वापिस चोरवाड़ भेज दिया।
केशोद में जैमलजी रायजादा की वृद्धावस्था थी, बीमार भी थे। पिठात ने यह सरल-साध्य मौका देखते केशोद पर हमला कर दिया लेकिन रायजादाओ की तलवार का स्वाद चखके वापस भागना पड़ा।
किसी दिन माळिया (हाटीना) में पिठात अपने साथीदारों के साथ सभा भरकर बैठा था। उतने में जैमलजी की मृत्यु का समाचार आया। पिठात को उसदिन केशोद से पीछेहठ करते भागना पड़ा था तो केशोद के रायजादाओ के बारे में कुछ अपशब्द बोल बैठा। उस सभा में वहाँ केशोद का माया नाम का रबारी भी मौजूद था, अपने ठाकुर को कहे गए अपशब्द उससे सहन न हुए, वह क्रोधित हो उठा। पिठात उसे प्रत्युत्तर में कहता है, " भुजाओ में इतना ही जोर है तो रायजादाओ की जागीरे संभाल ले।" यह वाक्य माया को किसी तलवार के घाव से भी ज्यादा चोटिल लगे।
पिठात का अपमान कर वह वहाँ से निकल पड़ा। रास्ते में उसे एभल वगैरह काठीओने रोका, माया भी इसी वीरभूमि का पुत्र था, हाथ में एकमात्र लाठी के दम पर वह काठीओ की तलवारो से लड़ा, युद्ध हुआ, एभल को उसने मार गिराया, और बाकी काठी भाग गए। इसी दरमियान मायो रबारी चोरवाड़ के खीमाजी को सन्देश भेजता है, केवद्रा का कब्जा चाहिए तो आ जाओ। खीमाजी अपनी सैन्य टुकड़ी के साथे चोरवाड़ से निकल पड़े, माया अपने साथी रबारीओ को इकठ्ठा करता है। खीमाजी केवद्रा में बैठे मुलुभा को भी सन्देश देते है की हम आ रहे आप भी हमारा साथ दो।
पिठात को समाचार मिला की केवद्रा पर चढ़ाई हो रही है, उसने अपने भतीजे को हाटी युवानो के साथ भेजा, युद्ध हुआ, एक तरफ से रबारीओ का जूथ, एक तरफ से खीमाजी का जूथ। मौके पर केवद्रा से मुलुभा भी कई योद्धाओ को ले आते है। हाटी हार देखने के लिए भी न रुके। हाटी ओ के हाथ से केवद्रा मुक्त कराके मुलुभा ने खीमाजी को कहा, "अब आप अपना जीता हुआ केवद्रा संभालो।" तब खीमाजी प्रत्युत्तर में कहते है, "मेरे पास मेरा चोरवाड़ है, केवद्रा मुझे नहीं चाहिए, मुझे तो एकमात्र मित्रद्रोही पिठात को यहाँ से भगाना था। केवद्रा का भार में आपको सौंप रहा हूँ।" कहकर खीमाजी वापिस चोरवाड़ लौट गए।
इस समयखण्ड में कणेरी, मेसवाण, अजाब, शेरगढ़ इत्यादि गांवोंमें महिया ओ का जोर ज्यादा था। उसमे भी शेरगढ़ तो महिया ओ का बड़ा थाना हुआ करता था।
खीमाजीने मुलुभा को केवद्रा सौंपने के कुछ दिनों बाद शेरगढ़ के महिया केवद्रा का गौधन लूंटने आए। सोंदरडा की सीमा के पास महिया गौधन को हकालते ले जा रहे थे, उन पर मुलुभा तथा साथीदारों की तलवारो की झड़ी बरसी। महिया तो भाग गए, किन्तु मुलुभा के शरीर पर अनेक घावों के निशान छोड़ते गए। घाव जिव लेने को उतारू हुए। मुलुभा अब ज्यादा दिन के मेहमान न थे, किन्तु उनका जिव शरीर से छूट नहीं रहा था। उनके बेटे ने अंतिम इच्छा पूछी, तब उन्होंने कहा, "बेटा ! केवद्रा राठोड़ो का नहीं है, रायजादाओ का है। यह अपने पास अमानत के तौर पर है। मेरे मृत्यु के पश्चात रायजादा का वारिस खोज, तथा केवद्रा सौंपने का वचन दे मुझे..!" बेटे ने हाथ में जल की अंजलि भर वचन दिया। तत्पश्चात मुलुभा का जिव सद्गति को प्राप्त हुआ। मुलुभा की खांभी (वीरगति को प्राप्त हुए वीर की स्मृति में खड़ी की हुई शिल्पकृति) आज भी केवद्रा से पूर्व मे इस बात की साक्ष्य बन खड़ी है।
मुलुभा के वारसदार दादाभी ने केवद्रा का कब्जा रायजादा रामाभी को संवत 1882 में सौंपा। मुलुभा के हाथमे रायजादा के केवद्रा की रखवाली एक मात्र वचन तक ही सिमित रही। तथा उसके वारसदारने भी रायजादा ओ को केवद्रा सौंप कर क्षात्रत्व के उत्तम गुणों का पालन किया। आज भी उनके वारसदार केवद्रा में रहते है।