|| गौधन की रक्षार्थे - शिवुभा जाडेजा ||
कितनो दिनों की प्रतीक्षा के पश्चात यह महामूल दिन आया था। उसके घर की चौकठ पर आज सोने का सूरज उगा था। राजपूत युवान रास खेल रहे थे, राजपूतानिया लग्न के मंगलगीत गा रही थी। नई दुल्हन घर पर लाने की ख़ुशी से शिवुभा छाती फुले न समाए रही थी। अंगो पर पीठि की हल्दी, चोरी-मंडप में दुल्हन से आगे होना, तथा फेरो के पश्चात खेले जाने वाले खेलो में कैसे दुल्हन से जीतना यही सब स्वप्न उसके भीतर उदित हो रहे थे। पूर्ण श्रृंगारयुक्त कमरे में आने वाली रानी के चमकते मुखचन्द्र को देखने की उत्सुकता उसके चेहरे पर भी छलक रही थी।
छांयावर अभी तक मध्याकाश नहीं पहुंचे थे। नूतन वर्ष का दिन था तो आसपास के गाँवों में शुभकामनाए देने गए राजपूत अभी तक वापस घर नहीं लौटे थे। शिवुभा के गले में तो वरमाल थी, उसे गाँव से बहार जाने की इजाजत न थी, इसलिए वह बस गाँव के ठाकर मंदिर के पास टहल रहा था। हल्दी से पीला हुआ शरीर, सर पर बंधा साफा, कमर पर रंगीन धागे से बंधी और रूपेरी मुठवाला खंजर शोभायमान था, हाथ में तलवार और पैरमें बंधा तोळा (पैरमे पहना जाता एक अलंकार) हलनचलन से खनक रहा था। लग्न ग्रंथि की मंगल विचारमाला के पारे उसके मन में पलट रहे थे।
छांयावर अभी तक मध्याकाश नहीं पहुंचे थे। नूतन वर्ष का दिन था तो आसपास के गाँवों में शुभकामनाए देने गए राजपूत अभी तक वापस घर नहीं लौटे थे। शिवुभा के गले में तो वरमाल थी, उसे गाँव से बहार जाने की इजाजत न थी, इसलिए वह बस गाँव के ठाकर मंदिर के पास टहल रहा था। हल्दी से पीला हुआ शरीर, सर पर बंधा साफा, कमर पर रंगीन धागे से बंधी और रूपेरी मुठवाला खंजर शोभायमान था, हाथ में तलवार और पैरमें बंधा तोळा (पैरमे पहना जाता एक अलंकार) हलनचलन से खनक रहा था। लग्न ग्रंथि की मंगल विचारमाला के पारे उसके मन में पलट रहे थे।
उतने में ही कही से चीत्कार उठने लगे, बछड़े आवाज करने लगे, गोपालक हाँफते - भागते - दौड़ते बस इतना ही बोल पाया, "दौड़ो कोई, गाँव की गाये लूंटी जा रही है।" जिसके हाथ लाठी उसकी भैंस का वह समयकाल था। गोपालक की राव सुनकर ठाकर मंदिर के चबूतरे पर बैठा चारण कविने ललकार किया,
"राजपूता री खोट, गढ़ थी जावे गावड़ी ;
दे कन्हड़दे दोट, मत लजावे मावड़ी ;"
दे कन्हड़दे दोट, मत लजावे मावड़ी ;"
रणहाँक पर एक राजपूत अपनी आँखे कैसे छुपा ले? चारण-कवि की हाँक सुनते ही शिवुभा के मनमे उठ रहे मोहक स्वप्न अदृश्य हो गए, वीररस का जवार उसकी नसों में उतर आया। एक पल का भी विलंब किए बिना वह दौड़ पड़ा। बचपन से अपने हाथो से पाली हुई ताजण (अश्वजात) की पीठ पर सवार हो गया। गौधन किस तरफ गया उन पैरों के निशान खोजता वह लुटेरों के पीछे लग गया। चारो पैरो से कूदती उसकी घोड़ी तीर की भाँती आगे बढ़ने लगी। कुछ ही देर में उसने देखा की चार लूटेरे गौधन को लिए भाग रहे थे। शिवुभा के शरीर में एक नया ही उमंग हो उठा था। वह गायो के बिच में से होता हुआ आगे बढ़ा, लुटेरों के नजदीक पहुँचते ही कुछ भी बोले बिना एक ही वार में चार में से दो के सर उड़ा दिए।
अचानक ही हुए इस हमले से बाकी दो चौंक गए। उनके मन में अचानक ही हुए इस हमले के कारण गायो में बिच में से अनेक वीर आ रहे हो ऐसा आभास हुआ। उन्होंने इस अकेले शिवुभा का सामना करने के बदले बस मुठिया भींच कर भागना ही उचित समजा। भागते लुटेरों के पीछे पड़ने के बजाए गोधन को वापस अपने गाँव ले जाते विजयोल्लास के साथ वह कुंदरोड़ी के मार्ग पर चल दिया। आधा मील रास्ता ही कटा होगा की, नदी पार करते समय एक भैंस का बछड़ा अपने जातिगत स्वाभाव के अनुसार पानी देखकर वहीं बैठ गया। दो-चार आवाज लगाने के उपरान्त भी वह पानी से बहार नहीं आया तो शिवुभा अपने अश्व से उतरकर छोटे कंकर मारते उसे पानी से बहार लाने की कोशिश करने लगा।
गौधन को ले जा रहे लुटेरों में से दो तो शिवुभा की तलवार का रसास्वाद लिए चल बसे थे, बचे दो भाग हुए ने दूरसे देखा की लूटी हुई गायो को वापिस ले जाने वाला एक ही शख्स था। अपनी भीरुता पर अब वे मन ही मन सरमाने लगे। अकेले शिवुभा को देख उनमे थोड़ी हिम्मत का संचार हुआ, वे शिवुभा के पीछे आए।
पानी बहार न आ रहे बछड़े को बहार लाने में लगे शिवुभा का पूरा ध्यान उसी में केंद्रित था। उतने में ही सननन ! करती एक गोली छूटी और शिवुभा के कंधे से पार निकल गई। अप्रत्याशित इस हमले से शिवुभा अचंभे में था, कमर पर लटकती तलवार खींचकर वह गोली का प्रत्युत्तर देने लुटेरों की ओर दौड़ा ही था की, दूसरी गोली आई, शिवभा की छाती को पार कर गई। आशासभर, विवाह की हल्दी मला हुआ नवयुवक वही ढेर हो गया। नदी पार किया हुआ गोधन तो इन गोलियों की आवाज से गाँव की दिशा में दौड़ चुका था। अब उन पर नियंत्रण करना लूंटेरो के बस की न थी, उनकी तमाम मेहनत व्यर्थ ही हुई।
गाय-भैंस तो हाथ से गई, लेकिन शिवुभा की ताजण वही खड़ी थी। लूंटेरे अब घोड़ी की तरफ आगे बढ़े, लेकिन समझू अश्व छलांग लगाते हुए गाँव की और मदद हेतु दौड़ पड़ी, उसकी पीठ पर की सादड़ी कही गीर गई थी। खुली पीठ वह गाँव में दाखिल हुई, शिवुभा के बिना सुने पड़े आंगन में खड़ी होकर हिनहिनाने लगी। चातक दृष्टि से अपने लाडले लाल की प्रतीक्षा कर रही शिवुभा की माता ने जब खुली पीठ की ताजण देखी तो एक कंपन उसके शरीर से पार हो गया, क्रोधित हो उठी वह।
"भूंडण ! मेरे शिवु को अकेले छोड़ते हुए तुझे काल क्यों न खा गया?" शिवुभा की माता ने ताजण को तिरस्कृत दृष्टि से कहा।
मानो शिवुभा की स्वामिभक्त ताजण यह वचनप्रहार न सह सकी हो ऐसे वह पृथ्वी पर गीर पड़ी, वही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए।
यह देख शिवुभा की माता द्रवित हो उठी। ताजण को खुली पीठ देखकर ही वह सर्व जान चुकी थी। कुछ ही समय में उसके वीर पुत्र के पराक्रम तथा वीरत्वयुक्त वीरगति के समाचार मिले। पति के मृत्यु पश्चात इतने समय तक, शिवुभा के स्नेह में दबाया हुआ उसका सतीत्व उछलने लगा। उस वीर माता के अंग अंग थथरने लगे। "जय अंबे" के गगनभेदी नाद के साथ शिवुभा की माताने पतिप्रेमी पत्नी तथा वीर जननी को सुहाय इस तरह अपने पुत्र को अंकमे लेते हुए चिता प्रवेश किया।
शिवुभा की माता का स्मृतिचिन्ह समान कुंदरोड़ी की सिमामें वीर माता, सत तथा वीरता का गुणगान गाता एक वरदहस्त को अंकित किया हुआ पथ्थर आज भी खड़ा है। तथा कुंदरोड़ी से चारेक मील अखियाण गाँव के पास शिवुभा की विजयपताका लहराता और यशगान गा रहा पथ्थर खड़ा है।
इस कन्हड़दे शाखा के देदा जाडेजा युवान की कीर्ति-कथा पर लगभग सवा-दोसो वर्षो का समयखण्ड प्रवाहित हो चुका है, पर आज भी लोकहृदय में वह कल की ही बनी घटना है।