मैं ध्रोल में राज करता हूँ..! || DHROL THAKORSAHEB CHANDRASINHJI DIPSINH JADEJA || AARZI HAKUMAT AND RATUBHAI ADANI ||

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"मैं ध्रोल में राज करता हूँ..!"


        1947 में एक तरफ अंग्रेज देश छोड़ रहे थे, लोकतंत्र का उदय हो रहा था, और राजतंत्र का अध्याय समापन की ओर बढ़ रहा था। देशी राज्य के पास दो विकल्प थे, भारत संघ या पाकिस्तान। सौराष्ट्रमें हलचल तेज हो चुकी थी, भारत के कुल 562 देशी रजवाड़ो में से 222 तो केवल गुजरात में थे। सौराष्ट्र का विशाल भू भाग छोटे मोठे कई रजवाड़ो में बनता हुआ था। अंदाजित 14 सलामी राज्य, 17 बिनसलामी, और 191 तालुकदारी के अलावा 46 जागीरी राज्य थे। भावनगर महाराजा कृष्णकुमारसिंह जी सर्वप्रथम भारतसंघ में विलय हेतु हस्ताक्षर कर लोकतंत्र की पहल की, समस्त सौराष्ट्र के सभी रजवाडोने भारत को अपना सर्वस्व सौंप दिया। एकमात्र जूनागढ़ नवाब ने अपने दीवान शाहनवाज़ भुट्टो की संकुचित मानसिकता को सर्वस्व मानते हुए पाकिस्तान को अपना समर्थन जाहिर किया।


        भारतीय भूभाग से घिरे इस रजवाड़े की देशभर में चर्चा होने लगी, 25 सितंबर 1947 को शामळदास गांधी तथा अमृतलाल शेठ के नेतृत्व में कुछ लोग मुंबई के माधवबाग में इकठ्ठा हुए। जूनागढ़ को भारत में मिलाने के लिए आरज़ी हकूमत की स्थापना हुई। लोकसेना बनाई गई, रतुभाई अदाणी ने इस लोक सेना का नेतृत्व संभाला, एक ही उदेश्य था, किसी भी तरह जूनागढ़ को भारत में मिलाया जाए। राष्ट्र निर्माण के कार्य में भारतीय सेना उस समय तक कोई कार्यवाही करने में सक्षम थी नहीं, क्योंकि जूनागढ़ नवाब ने पाकिस्तान के साथ जुड़ते हस्ताक्षर कर दिए। एकमात्र जनता विद्रोह ही उपाय था। सामान्य प्रजा में से कई लोग लोक सेना से जुड़े, लेकिन वे युद्ध के अभ्यस्त नहीं थे, उपरांत उन्हें शस्त्रों का प्राथमिक प्रशिक्षण देना अति आवश्यक था। देशी राज्य परदे के पीछे से आरज़ी हकूमत को पूरा सहयोग दे रहे थे। उन्ही प्रसंगो के घटनाक्रम में ध्रोल राज्य में राजा की अपनी प्रजा पर पकड़ या यूँ कहे की एक राजा को अपनी प्रजा का पल पल का समाचार या यूँ कहे की प्रजा के प्रति विश्वास कैसा होता था वह प्रसंग अद्भुत है।


        रतूभाइ अदाणी लिखते है,

        रसिकलाल पारिख, जिन्होंने लोकसेना के लिए शस्त्र-सरंजाम की व्यवस्था की थी, उनका कुछ राजवीओ के साथ गहरा तथा सौहाद्रपूर्ण संबंध था। उन राजवीओ में एक थे ध्रोल के ठाकुरसाहेब चन्द्रसिंह जी। लोकसेना को प्रशिक्षण देने हेतु हमे कुछ संशाधनो की आवश्यकता थी। रसिकभाई, जेठाभाई और में - हम चल पड़े ध्रोल ठाकुर साहेब से मिलने। ठाकुरसाहब ने उत्साहपूर्वक हमारा स्वागत किया। रसिकभाईने हमारे आने का उद्देश्य कहा, तथा हमारा सहयोग करने की विनंती की।


        "विनंती करने की कोई बात ही नहीं है। इस तालीम के पीछे का आपका हेतु मैं समझ सकता हूँ। काठियावाड़ (सौराष्ट्र) की भूमि पर पाकिस्तान का पैर नहीं होना चाहिए।" ठाकुरसाहब की राष्ट्रिय भावना झलक उठी।


        "हमारे केम्प के लिए अनुकूल मैदान, तथा तालीम के लिए आवश्यक हथियार बस इतनी व्यवस्था आप करवा दे तो बाकी की व्यवस्था हम अपने आप कर लेंगे।" मैंने सहकर की स्पष्टता की।


        "और कौनसी व्यवस्था?" ठकुरसाहब ने हँसते हँसते प्रश्न पूछा।


        "प्रशिक्षण हेतु आ रहे लोगो के प्रवास, भोजन तथा अन्य जरूरतों का प्रबंध हमने किया है।" मैंने उत्तर देते कहा।


        "मेरे गाँव में आकर आप लोग का अपनी रोटी खाने से बेहतर है आप कोई दूसरा स्थल खोजो। यहाँ रहना है तो मेरे मेहमान गिने जाओगे, बहार आपको जो खर्च करना है वह करना, ध्रोल में आपकी संपूर्ण जिम्मेदारी मेरी है।"ठाकुरसाहब ने अत्यंत भावपूर्वक अपनी भावना व्यक्त की।


        ठाकुरसाहब से इतने अधिक प्रेम की अपेक्षा हमने रखी नहीं थी। हम खुश हुए, उनकी बातो का हमने आभार व्यक्त किया, कुछ और बातचीत की, फिर हमने विदा होनी की अनुमति मांगी।


        "ऐसे नहीं जा सकते, केम्प आप अपनी अनुकूलता अनुसार शुरू करना, लेकिन  व्यवस्था अभी ही नक्की कर लेते है।" ठाकुरसाहब उनका भारी शरीर उठाते खड़े होते बोले।


        वे हमे एक बंधियार मकान में ले गए, अंदर बड़ा मैदान भी था।


        "यह मकान चलेगा?"


        "उत्तम"


        "हमारी रसोई आपको रास नहीं आएगी, दरबारगढ़ में से एक रसोइया और काम करने वाले आ जाएंगे। मोदीखाने से भोजन बनाने का सामान आ जाएगा। हथियार जब चाहिएगा तब मुझे सूचित करें।" ठाकुर साहबने एक ही साथ सभी सहूलियतों का प्रबंध कर दिया। उनकी व्यवहार-कुशलता तथा चौकसाई देखते हमारे मन में उनके प्रति अगाध मान उपजा। हृदयपूर्वक उनका आभार मान हमने विदा ली।


        वलभीपुर में प्रतिज्ञा लेनेवाले मित्र तथा कुछ अन्य युवाओ को तालीम शिविर की सुचना दी। उत्साहित इन युवाओ की ओर से जल्द पहुँचने का समाचार भी मिल गया। युद्ध के मोर्चे पर डट सके ऐसी तालीम पाने के लिए कोई जमादार, फौजदार पर आधार नहीं रख सकते। लड़ाई के अभ्यस्त फ़ौज के किसी अनुभवी अधिकारी की सेवा मिले तो तालीम ली कही जाए। अनायास ऐसे एक अधिकारी मिल भी गए।


        श्री सनतभाई महेता ने अपने परिचय में आए आज़ाद हिन्द के श्री बालमसिंहजी का नाम सूचित किया। नेताजी की फौजमे वे लड़ चुके थे, एक बार तो भारी बम-वर्षा में घायल होने के बाद दो दिन तक बेहोश रहे, तीसरे दिन होश में आए। मृत्यु के मुख से लौटे बालमसिंह जी ने उत्साह से काठियावाड़ के युवाओ को तालीम देने की बात स्वीकारी। दिनांक 27 अगस्त 1947 के दिन काठियावाड़ के 40 युवानो को ध्रोल में सशस्त्र तालीम वर्ग शुरू किया गया।


        देशी राज्यों के शासन में प्रजा पर बरसते जुल्म तथा अन्याय की बाते सुनी थी, उन बातो के कारण राजा-महाराजाओ के प्रति हम जैसो के मन में कुछ अनचाहे ख्याल बंध जाते है। ध्रोल महाराजा के बारे में भी कुछ ऐसा ही ख्याल था हमारा। लेकिन जब तालिमवर्ग में मेरा ध्रोल में रहना हुआ तब सब कही सुनी बाते बस बाते ही लगी।


        ठाकुर साहब का शरीर अति स्थूल है, स्वयं से ज्यादा चल-फिर नहीं सकते। लेकिन अपनी मोटरकार में आगे उनकी खास बैठक है, वहां बैठकर प्रतिदिन सुबह घड़ी की घंटिया बजती है तब दरबारगढ़ से निकलते है। डाक खाते से राज्य को कुछ भी लेन-देन नहीं था, लेकिन पोस्ट ऑफिस उनकी गाडी जरूर रूकती। पोस्ट-मास्टर आए तब उनसे बाते करे, उन्हें कोई समस्या हो तो बताने की सुचना करे। वहां से निकलकर राज्य के अन्य अलग अलग दफ्तरो के प्रांगणमे मोटरकार रोके, पूछने जैसा पूछ लेते, बताने जैसा बता देते। स्कूल भी जाते, पुलिस स्टेशन भी। बाजार में भी निकल पड़ते। घूमते घूमते ध्रोल शहर से थोड़े दूर रेलवे स्टेशन तक जाते। रेलवे-तंत्र के साथ भी राज्य को कुछ लेनादेना नहीं, लेकिन फिर भी रेलवे-मास्टर की ख़ुशी- खबर - तबियत वगैरह जरूर से पूछते। इस तरह मुलाकाते ख़त्म करके अपनी कचहरी में कुछ समय बैठकर दरबारगढ़मे वापसी करते। 


        ध्रोल का राज्य था तो छोटा, लेकिन राज्य के सभी गाँवों के पटेलों को ठाकुरसाहब पहचानते थे। कभी गाँवों की ओर घूमने निकल पड़ते। राज्य के प्रत्येक तंत्र पर उनकी पूरी नजर थी। उनका स्पष्ट निर्देश तथा हुक्म था की कोई भी तहसीलदार हिसाब-किताब के लिए गाँवों में जाए तो तब अपना खाना-पीना साथ में ले जाए। गाँवों से कुछ भी न लेने की उनकी स्पष्ट सुचना थी। किसी एक तहसीलदारने किसी गाँव में मुकाम किया था। भोजनसामग्री तो साथ में थी, लेकिन नमक भूल गया था। गाँव में से मुट्ठीभर नमक मंगवाया। व्यापारी को भी लगा की, 'मुट्ठीभर नमक का क्या पैसा लेना?' तहसीलदार ने सोचा की, 'मुट्ठीभर नमक का क्या पैसा देना?' दूसरे ही दिन ठाकुरसाहब को पता चला की तहसीलदारने बिना मूल्य चुकाए नमक लिया है। इस अपराध बदल उसे खूब डांट पड़ी तथा नौकरी से बेदखल हुआ अलग। काठियावाड़ के राज्यों में बुद्धिचातुर्य तथा सुघड़ प्रशासन के लिए ध्रोल ठाकुरसाहब के प्रति सभी सम्मान से देखते।


        ऐसे ठाकुरसाहब प्रतिदिन प्रातः निश्चित समय पर हमारे तालिमवर्ग के दरवाजे पर उनकी गाडी रोके। गाडी में से उतरना चढ़ना तो उनके लिए मुश्किल था। मोटरकार में बैठे बैठे ही हमारे खबर-समाचार पूछते, और कुछ भी तनाव हो मुझे बता देना ऐसा कहकर हँसते हँसते विदा लेते।


        एक दिन हमारे तालिमवर्ग के लिए मोदीखाने के आए राशन में ढेरसारे कीड़े-मकोड़े-जिव-जंतु निकले। मोदी को अच्छा राशन-अनाज भेजने को कहा। प्रतिदिन विनयपूर्ण वर्तन करनेवाले मोदीने कुछ भी कारण हो लेकिन विचित्र जवाब दिया, 'एक तो मुफ्त का खाते हो ऊपर से मिजाज दिखाते हो।' वर्ग में यह बात पहुंची। युवा-मित्रो के मष्तिष्क में गुस्सा फुट पड़ा, त्वरित ही निर्णय लिया गया।


        "आजसे ठाकुरसाहब का राशन नहीं चाहिए, हम खुद अपना इंतजाम करेंगे।" मुझे भी उनके साथ सहमत होना पड़ा। 


        दूसरे दिन तत्काल तो नास्ते में कुछ प्रबंध न हो सका, इस लिए सवेरे गाँव में से गांठिया और प्याज मंगवाए। दोपहर तथा शाम के भोजन के लिए जरुरी सामग्री खरीदने का प्रबंध किया।


        कुछ देर बाद प्रतिदिन के नियमानुसार ठाकुरसाहब की गाडी हमारी छावनी के बहार आकर रुकी। मैं मिलने गया। प्रतिदिन मुस्कुराते बाते करते ठाकुर साहब आज कुछ गंभीर लगे। जैसे मैं उनके पास पहुंचा, तुरंत ही उन्होंने पूछा, "आज गाँव में से प्याज और गांठिया क्यों मंगवाना पड़ा?"


        मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ, मैंने कारण बताने के बजाए सामने पूछ लिया, "आपको कैसे पता चल गया?"


        "रतुभाई, मैं ध्रोल में राज करता हु, गाँव में चिड़िया भी चहके तो मुझे पता चलना चाहिए।" ठाकुर साहबने सगर्व प्रत्युत्तर किया।


        "हम दोस्तों का आज मन हुआ इस लिए गांठिया और प्याज मंगा लिए।" मैंने उनके मूल प्रश्न का छोटा सा प्रत्युत्तर दिया।


        "मन किया और मँगा लिया वह ठीक है, लेकिन पैसे देकर क्यों? मोदी को कहा होता तो वह भेज देता न..!" ठाकुर साहब ने मूल बात पकड़ ली।


        "इन छोटी सी इच्छा के लिए मोदी को क्यों तकलीफ देनी?" मैं मोदी की तुच्छ वर्तणुक तथा कटुवचनो की बात टालने की कोशिश कर रहा था।


        "रोकड़ा पैसा देकर मेरी नाक कटाई आपने उसका क्या?" ठाकुर साहब के चेहरे पर नाराजी का भाव आ गया।


        "आप ऐसा अर्थ न लीजिए ! हम ऐसा सोच भी नहीं सकते।" मैंने बात उड़ाने की कोशिस की।


        "आपका जो भी इरादा हो, मैंने आपको मेरा मेहमान माना है, और आप गांठिया खरीद कर ले आओ तो मेरी किम्मत क्या? अगली बार ऐसा नहीं होना चाहिए, और मैंने मोदी को साफसूफ करके राशन भेजने की सुचना कर दी है।" ठाकुर साहब थोड़ा मुस्कुराए।


        मैं जो बात टालना चाह रहा था, वह मोदी के गैरबर्ताव वाली बात भी उन तक कैसे पहुंची? मैं आश्चर्य के समंदर में गोते लगाता रहा। "आपकी भावना बदल बहुत धन्यवाद किन्तु आपको इन सब बातो का पता कैसे चला?" मेरे से पूछे बिन रहा नहीं गया।


        "ध्रोल में मैं राज करता हूँ।" मंद मंद मुस्काते ठाकुर साहब को लेकर उनकी लाल गाडी चली गई। 


HH Thakore Saheb Shri CHANDRASINHJI DIPSINHJI Saheb,
21st Thakore Saheb of Dhrol

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|| अस्तु ||

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