"लोरी - राजपूती रीत" - सहदेवसिंह जी वाळा || TRADITION OF RAJPUTI CULTURE AND RITUALS

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"लोरी - राजपूती रीत"

[पुरोहित शासन से शुरू हुआ राज्यशासन का युग आज लोकशाही तक पहुँच गया है। मध्ययुग में तकरीबन सातसौ साल का राजपूत युग रहा है। इस राजपूत युग के विषय में अनेको नवलकथाए - कहानियाँ लिखी गई है, और लिखी जा रही है। रेडियो, लोक-सभाओ में भी कही जाती रही है। लेकिन राजपूती के संस्कार, भाषा तथा विनयविवेक और खमीर-खानदानी से अनजान लोग राजपूती संस्कार का गौरवभंग कर रहे है। यहाँ पुत्र-प्रसव के राजपूती संस्कार को उसी प्रणाली में वही विनयविवेक तथा सूक्ष्मतम विगतो और भावाभिव्यक्ति का तादृश्य चित्र दिया गया है।]



        राणीजी को प्रसव पीड़ा की झीनी झीनी शुरुआत हुई। पीड़ उठी। एकाध घड़ी तो घुटनो पर हाथ टिकाए निकाल दी। पलंग के पास निचे सोइ दाई को जगा के कहा, "बाईमाँ को बुलाओ !"

        दाई ने राणीजी को देखा न देखा  दौड़ती हुई चौक पार करती ऊँची मंजिल वाले बाईमाँ के कमरे के दरवाजे पर धीरे से टकोर की।

        'बाईमाँ' ने हाथमे रुद्राक्ष की माला फिराते-फिराते ही दरवाजा खोला। दाई के इशारे से बाईमाँ समझ गए। तुरंत राणीजी के कमरे में आए।

        राणीजी दो हाथ जोड़कर बोले, "बाईमाँ ! मुझे नहाना है।"

        "बहु जी, अभी? इस समय नहीं नहाना चाहिए, ठण्ड चढ़ जाएगी।"

        "पर... माँ... मुझे तो नहाना है, अघोरी की भांति खटिया में पड़े पड़े उंहकारे कर खड़ा नहीं होना।"

        "वो तो ठीक है लेकिन..."

        "मुझे क्षमा करे, लेकिन थोड़ा गर्म पानी मंगवा दीजिए, नहा लूँ।" राणीजी के अफर निर्धार के सामने बाईमाँ ने समय समझ लिया। पानी थोड़ा गर्म करवाया। राणीजी नहाकर चारपाई के पास आकर खड़े हुए।

        "बाईमाँ, जोगमाया को दिप करो, मुझे दर्शन करना है।"

        राणीजी की आवाज में विश्वास की रणक थी। श्रद्धा की नोबत गूंज रही थी। दिवार में स्थित गोख में जोगमाया का सिंदूर लीपा त्रिशूल था। बाईमाँ ने दीपक प्रज्वलित किया।

        राणीजी ने पूरा शरीर माता धरती को स्पर्श कराते जोगमाया के दिप का दर्शन किया। अटल विश्वास और भावविभोर क्षत्राणीकी अबोल आरदा (प्रार्थना) सुनकर पूरा खंड उज्जवल हो गया। मानो खंड खडखडाट हस उठा, प्रांगण में बिछ रहे प्रकाश का भाव अड़ीखम तथा धीर-गंभीर बाइमाँ ने भी पहचाना। वृद्ध क्षत्राणी मनोमन सोच रही, "एक ही मुष्टिकाप्रहार से हाथी की खोपड़ी फाड़ दे ऐसे वीरवर पुत्र तो इन वीरांगना के उदर से ही अवतरित होंगे न !"

        प्रभात की पहली रेख खींची जा रही थी। पूर्व में हल्के राताशयुक्त किरण पथरा रहे थे। उदयान्चल के आंगन में अरुण का आह्वाहन होने में समय न था। छड़ी पुकारते पंखी अपने पंख फफडाते किल्लोल कर रहे थे। सारंग ने अपना  नीलवर्णी कंठ हिलाते अपना मेहप्रिय नाम यथार्थ किया। वृक्षोने धीरे से अपने मस्तक झुकाते पुष्पवर्षा की, उनकी सुगंध ने सूरज का स्वागत किया। तभी कमरे में खनकती हुई थाली पर बेलन की दांडी पड़ी। वैसे कर्ण को अप्रिय इस बर्तन की इस समय की आवाज की झनझनाहट लेते समीर ने समाचार फैलाया, "दरबार के घर पुत्ररत्न पधारे।"

        दाई अपनी साडी में हाथ पोंछती, हर्षोन्मत्त होती कमरे से बहार आई, हर्ष में आधी पागल सी हो गई थी, सुधबुध खो चुकी थी, बाईमाँ को गले से लगा लिया। 'बाईमाँ' भी कहा होश में थे। उन्हें भी कहाँ होश था, उन्हें भी बड़ी देर से समझ आई की वे एक मीर दाई को चूमते थके नहीं थे। उसने बधाई दी थी न, "बाईमाँ पुत्र !" बोलते बोलते दाई की जीभ थक नहीं रही थी।

        इस मंगल प्रभात का प्रहर भी पौरुषवान होता, मंगल चौघड़िए की झनझनाहट लिए, दरबारगढ़ की रांग कूदता हुआ समस्त गाँव में गुंजायमान हुआ। हवा में भी हर्षोल्लास समा न रहा था।

        दाई फुलीबाई मीराणी गढ़ में से दौड़ती हुई निकलकर घर गई, उसके खाविंद को खबर दी। सिद्दी मीर ने तस्बी फेरते फेरते दो हाथ आसमान की ओर ऊँचे किए और दुआ मांगी।

        पुत्र सवा महीना का हुआ, इस लिए राणीजी को सवा महीना का सराबोळ नहाया गया। कपाल पर पिली मली गई, खुले केश से धीरा नीर टपक रहा था। पीहर से आए महंगे कपड़े धारण किये थे, ननदबा उन्हें कुमकुम के एक एक कदम करा रहे थे। एक एक कदम पर पीहर वालो ने बधाई की नगदी धरी, सुहागनों के गले से गवाते 'रांदल' (सूर्यपत्नी) के गीत गाते गाते कुलदेवी के द्वार पहुंचे।

        नन्हे राजकुमार को कुलदेवी के पास, चौखट पर सुलाकर, लापसी (प्रसाद) के कर किए, पूजनविधि हुई। राणीजी ने बहुत महीनो बाद साड़ी की पटलिया बाँधी थी।

        गर्भधारण के महीने-डेढ़ महीने बाद बाईमाँ ने राणीजी को कहा था, "बहु जी, अब पटलिया मत लगाना, साडी चपटी कर पहनना, और बड़ो के सामने हाथ जोड़ना लेकिन पैर नहीं छूना।" उस समय राणीजी के चेहरे पर शर्म की लाल लकीरे आ गई थी। पल्लू में मुँह लपाते हुए धीरे से हाथ जोड़कर चले गए थे।

        आज महीनो बाद पुत्र की जनेता कुलदेवी के दर्शन को आई थी। उन्होंने साडी का सिरा पकड़ते हुई आँचल बिछाया। माता जी के आशीर्वाद की याचना कर वापस मुड़े, बड़ो के आगे पूरा न बैठते हुए, दोनों हाथ के अंगूठे और पहली अंगुली के मध्य मोतीदार चुनरी के दोनों सिरे पकड़ते हाथ जोड़े। तत्पश्चात दोनों बांह थोड़ी खोलकर बड़ो के आगे गोद बिछाई, बाएं हाथ की कोहनी बाएं घुटने पर रखकर दाएं हाथ का पंजा बड़ो के दाएं पैर के अंगूठे के नजदीक ले जाकर मानो आशीष से पूरी गोद भर रहे हो वैसे चुनरी के सिरे समेत दाएं हाथ का पंजा बाएं हाथ से मिलाकर हाथ जोड़े। इस तरह तीन-तीन बार नमस्कार किया, तीन बार आँचल बिछाया, तीन बार पैर छुए।

        राजपूती संस्कार से सुहाता यह 'पगेलागणु' (पैर छूना) किया। बड़ो ने भी बहु जी के माथे से दोनों हाथ के खुले पंजे से मुठी भरते हुए अपने सर तक दुःखहरण किए। उज्जवल आशीष देते हुए राणीजी की गोद छलका दी। 

        'टाढु पेट वसतु पेट अखंड सौभाग्यवती' (आशीर्वचन)

        ऐसा कहा जाता है की, (टाढु) ठंडा पेट हो तो संतान होते है, वसतु पेट यानी की एक से ज्यादा संतान हो। और अखंड सौभाग्यवती के वाक्य में तो भारतीय नारी की भावना का - अखंड सौभाग्य की आकांक्षा का, अंतरतम भावकी बुलंदी का, जीवन - हर्ष का धबकार समाहित है। 

        माताजी के दर्शन के बाद, बड़ो के आशीर्वाद के साथ छोटी ननद के भी उसी भाव से पैर छूकर राणीजी अपने आंगन में आए।

        बाईमाँ के वही तथा उतनी ही सभ्यता से पैर छुए। बाईमाँ ने दोनों हाथो से आशीष देते बहुजी को उठाया, "बेटा थाल भरो, अभी सिद्दी मीर आएगा, ढोल पूजन होगा।"

        गढ़ में प्रवेश करने से पहले सिद्दी मीर ने अपने जूते एक ओर रखे, गढ़ के किंवाड़ से दरबारी कचहरी तक पचासेक कदमो का चौक पार करके आधे पहुंचकर सिद्दी मीर ने गले में लटकाया हुआ त्रंबाळू ढोल पीठ पर सरकाया। ढोल की चांदी चढ़ाई लकड़ी वाला दांया हाथ और चारो अंगुली में चांदी के करड़े (अंगूठी का प्रकार) पहना बांया हाथ मिलाते हुए झुककर जमीन को छूकर अपने माथे पर लेता पगड़ी को छुआ तथा दरबारी बैठक को तीन तीन बार ताजम की,

        "खम्मा मारा अन्नदाता-धणी, खम्मा घणी खम्मा मारा पाळतल ने जाजी खम्मा" (मुझे पालने वाले अन्नदाता को खम्मा घणी)

        राजपूतो की बैठकने स्वागत किया।

        मीर ने गले बंधी ढोल की दांडी छोड़ी...  पर आज उसे बैठक में बैठना नहीं था। आज तो उसे दरबार में जाना था। भेठ बांध कर ज़नाना में जाना था। नन्हे दरबार का मुख देखना था। मीर का बीघा बढ़ा था। उसका अन्न-उपार्जन बढ़ा था। दरबार का, उसके वृक्ष समान धनी को फल आया था। उसकी शाखा बढ़ी थी। उसकी लोरी गानी थी।

        श्यामला सिद्दी मीर के बढ़े बाल और मुछ में श्याम-श्वेत का मिश्रण हुआ था। बाल ज्यादा सफेदी लिए हुए नजर चढ़ते थे। आधी उम्र को बीत चुका वह आज अपनी उम्र से तिस साल पीछे आ गया था। पच्चीस वर्ष के युवान का तोर आज उसके पैर में छलक रहा था। उसकी आँखे हँस रही थी, ह्रदय उमंग में था। उसके कंठ में आज अधिकतम मिठास थी। नाक का भरपूर सहारा लेती मीर गायकी में आरोह-अवरोह के तरंगो ने अधिक वमल लेते हुए लंबी सुरावली छेड़ी थी। मीठी मध समान लोरी की पंक्तिओ में पीलू की झलक गूंज रही थी। 

        ज़नाना - दरबार की किंवाड़ पार करता पीठ पर ढोल लिया मीर दरबार के आंगन में आ खड़ा हुआ। घूंघटो से छिपे मुंह वाले राणीजी ने ढोल स्वागत किया। थाल में गेंहू भरे थे। उसमे श्रीफल रखा था। श्रीफल को कुमकुम तिलक किया था। कंकावटी (कुमकुम की डिब्बी) में अंगुली डुबोकर ढोल को तिलक किया। साबूत चावल के दानो से ढोल को वधाया। और जैसे थाल मीर को दिया, मीर कूदते हुए प्रांगण के मध्य आ पहुंचा। ढोल पर थाप लगाई, ढोल जाग उठा। ढोल ध्रूजने लगा, दांडी पड़ी और धबकने लगा।

        ऊँचे मकानों के गोख स्त्रीओ से भरने लगे, उनके बिच से रास्ता बनाते बाईमाँ सवा महीने के कुंवर को गोदी में ले आए। उगते सूर्य की आभा लेकर अवतरे कुंवर को केसरी परिधान में सज्ज किया था। गले में स्वर्ण कंठी, पैर में स्वर्णिम घेवर (आभूषण), हाथमे सोने तथा काले पारे के नजरबुटा (नजर न लगे वह) पहनाए थे। किनखाब के कपडोमे लिप्त रघुवंश के नन्हे कुलदीपक को सिद्दी मीर को दिखाया गया। और मीर ने कुंवर की मीठे स्वर में लोरी गाई। सिद्दी मीर ढोल बजाते, घूमते हुए, आंगन में लोरी गाता रहा।

        मीर ने जैसे ही गाना शुरू किया, फुलीबाई स्त्रीओ के घेरे में से निकलकर मीर के पीछे खड़ी हो गई। बांए हाथ से दाईं ओर की साडी का पल्लू एक तरफ लिया, सर के ऊपर से पल्लू खींचकर दोनों हाथो की दो-दो अंगुली में साडी का सिरा खींचकर घूंघट के निचे से मीर की गायकी में सूर का साथ देने लगी। मानो खरज में तीव्र गांधार घुला। चोतारे सितार के चारो तार रणक रहे हो, पीछे से दिलरुबा (वाजिंत्र) की बत्तीसी खिलखिलाती हँस पड़ी, और उसके बत्तीस तारो वाला शरीर नाच उठा। ढोल के धींगे स्वर में शहनाईने भी सूर पुरे, और मीठी मुरली भी चहक उठी। 

        जैसे आषाढ़ का मेघ तो घिर रहा था, उसमे तप्त अनंग के उग्र सिकंजे में फंसी तृषापूर्ण धरा पर वर्षा की प्रथम बुँदे गिरी, और धरा की तृप्तिपूर्ण सिसकियाँ सुनाई दे उससे पहले पवन की एक-दो-तीन लहरखी आई, मेदिनी महक उठी, समस्त वातावरण जिवंत जो चला, और लोरी की धुन पर राजी हो चला।

        जैसे ही लोरी पूर्ण हुई तब मीर ने नन्हे कुंवर के ऊपर से ढोल को घुमाया, और अपने सर पर रखा। मीराणी ने कहा, "करोड़ दिवाली अविचल राज तपो, जेठवी जनेता की कुख उज्जवल करो।"

        बाईमाँ ने कुंवर के नन्हे कर छुआकर मुठी भर भर कर मीर नजराना को दिया। जेठवी राणीजी ने अतलस का कापड, घडीअल घाघरा, स्वर्ण का कंठलो (गले का आभूषण), बहनबा ने भतीजे का पैर छुआकर दो जोड़ी कपड़े तथा सुवर्ण का वेढला (अंगूठी समान आभूषण) दिया। 

        काकाजी, मामीजी और बुआसाहबजी तथा साथ खड़े सभी संबंधीओ ने हृदयभर कुछ न कुछ भेंट मीर को दी।

        मीरने अपनी पगड़ी की परते खोलने लगा, सिरा दांत में दबाया, और फिर से पगड़ी बाँधने लगा, एक एक परत पर भेंट-सौगात लटकाता गया, कपड़े, साडला, सब पग़डीमे लटकाए। अपनी घेरदार धोती के दोनों पैर के सिरे उसने कंधे पर चढ़ाए। कोई कापालिक अवतारी साधु आंगन में नाच रहा हो, ऐसा दिख रहा मीर, लेकिन खुद के भीतर आज वह पिरो का भी पीर हो ऐसे तान में आकर ढोल बजाता गढ़ के मुख दरवाजे पर राजपूतो की जहाँ बैठक थी वहाँ आया।

        महफ़िल जमी हुई थी। मीर ने आते ही मुजरा किया, लोरी गाई, दरबार ने हर्षभर कहा, "मांगो मीर क्या चाहिए आपको?"

        "अरे अन्नदाता ! मैंने तो नन्हे धनी का मुंह देखा, उसमे राजी हो गए आप। मैं तृप्त हु, मुझे कुछ नहीं चाहिए।"

        "फिर भी, आज मांगना आपका हक बनता है, और आपको जो चाहिए वह देना मेरा कर्तव्य है।" कहकर दरबार ने गले से स्वर्णजड़ित तीन सेर की माला निकालकर मीर को दी।

        "घणी खम्मा" कहते मीर ने दोनों हाथ से माला ली, और सर पर चढ़ाई।

        दरबार फिर बोले, "सिद्दी मीर, यह चारजामा तथा तंग समेत मेरी रोझी घोड़ी ऊपर चढ़ जाओ, वह आपको लोरी की ख़ुशी में दी।"

        "जोगमाया आपको और दे।"... ख़ुशी से भावविभोर मीर बोल पड़ा। दरबार के बाजुमें बैठकर खरल में कसुंबा घोंट रहे काकुभा चांपाजी गर्वान्वित हो बोले, "लो मीर, हमारे हर्ष का इससे अच्छा दिन और कोनसा उगता ?" और अपनी झीनी टपकी की भात वाली बांधणी की पगड़ी मीर को हाथोहाथ दी।

        महफ़िल उठे तब काकुभा खुले माथे हो, या सर पर कपड़ा लपेटे तो हिनप दिखे। इसलिए दरबारगढ़ में से अपनी शरबती मलमल की कसूंबल रंग की पगड़ी मंगवा कर दरबार ने काकुभा को बंधाई।

        लोरी की बधाई में महफ़िल में बैठे सभी ने मीर की कद्र की। आनंद के अतिरेक में आंखोके कोने पर आए हर्ष के आंसू को पोछता पीछे कदम चलता वह चौगान में आया। चौगान में थनगनती रोझी घोड़ी की लगाम हाथ में ली। दरबारगढ़ के दरवाजे तक पैदल लेकर गया, बहार निकलते ही जातवान अश्व पर बैठकर बाजार के बिच में से लोरी गाता निकल गया। 

- सहदेवसिंह जी वाळा के लेख से हिंदी अनुवाद।


|| अस्तु ||

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