अरे सुनिए, हमे पुनः कुछ कहना है, हम विचाराधीन है, मनशाधिन भी। आपके प्रति हमारा क्रोध तथा हमारी इच्छानुसार आपका हमसे वियोग हुआ नही है, जैसा हमने सोचा था, आपका क्षणभर स्मरण हम स्मृतिपटल पर आने नही देंगे, किन्तु, यदि पूर्ण सत्य कह दूँ, तो अब हमारा स्मृतिपटल एकमात्र आपके स्मरणसे डूब रहा है, मानो सहस्त्र गज दौड़ रहे हो..!
इस ठंड में भी हम उसी खिड़की के पास बैठ ठिठुर रहे है, जहाँ बारिश की बूंदे आप पर गिर कर जैसे जासुद के पुष्प पर प्रभात में लगी औंस पर उदित हो रहे आदित्यकी किरणों द्वारा बन रहे इंद्रधनुष के समान सौंदर्यकी नवदिशा का निर्माण कर रही हो, तथा उस दिशा के हम दिशा और अंतहीन प्रवासी होकर बस चले जा रहे हो।
आज वह खिड़की से आ रहे शीत पवन हृदयके प्रत्येक स्पंदन को प्रतीति करा रहे है आपकी अनुपस्थिति की। उस शीत पवन से यह शरीर ठंडा होता जा रहा है, ऊर्जाहीन आंखों से हम फिर भी नीरसता से खिडकी के बाहर देख रहे है, यह सड़क दिनभर दौड़ के थकी हो ऐसी शांत पड़ी है..तथा ऐसे ही हम भी..! स्मरण है, उस दिन आप और हम इसी खिड़की के पास बैठकर पृथ्वी का अमृत - चाय का रसास्वाद ले रहे थे, और सड़क पर उस सब्जी वाले का ठेला एक बैलने उड़ा दिया तब आप ठहाके लेकर कह रही थी, "ठेलेवाले ने बैल को नही खाने दिया, अब बैल ठेलेवाले को..!" आपके वह हास्य की गूंज अब हमारे हृदय को कुतर रही है.. बहोत समय बीत गया, वह हास्य…अब सुनाई नही दे रहा… कभी कभी हम कानो पर हाथ रखके सुनने की कोशिश करते है, पर नीरव शांति के सिवा कोई प्रत्युत्तर हमे ज्ञात होता नही है..!
हमारे आप पर क्रोध के अधिकार पर आपका हम पर रुष्ट होने का अधिकार भारी पड़ रहा है। आप मानेंगे नही, परंतु सोफे पर सोना उतना ही कष्टदायक है जितना बिना ढक्कनकी कलम को संभालना। यदि आप सब्जी में नमक डालना भूल जाये और हम सत्यवक्ता बने तो ऐसी सजा की आवश्यकता हमे तो उचित नही लगती की आप कमरे में सोए और हम यहां सोफे पर.. सौगंधसे कहते है, आपके द्वार खोलने की आशा में हम, अभी भी गुनगुना रहे है.. "आओगे जब तुम ओ साजना, अंगना फूल खिलेंगे.."