स्थितप्रज्ञस्य का भाषा... चलो आज हिंदी को भी थोड़ा लाभ देते है।

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स्थितप्रज्ञस्य का भाषा...
(चलो आज हिंदी को भी थोड़ा लाभ देते है।)
अभी अभी ३-४ दिनमें बहोत कुछ घटित हो गया, YQ में भी..!! उस दिन तीन प्रश्नों पर मैने लिख दिया, कहा हूँ मैं? क्या कर रहा हूँ मैं? और क्या लक्ष्य है मेरा?.. इतना आड़ाटेढ़ा लिखा कि दो लंबे चौड़े रिप्लाय कमेंट में आये.. दोनो ने बहुत ही अच्छे से दिशाहीन का दिशानिर्देशन किया। उतने में एक कमेंट आया रेड का, की ऐसे विचारवायु मुजे भी होते है, उन्होंने ने भी थोड़ा दिशानिर्देशन दिया और एक  पुस्तक पढ़ने को बोला.. अभी पढ़ना तो मेरा मनपसंद काम है.. वह भी नवलकथा, अतरापी- लेखक ध्रुव भट्ट। (मेरे को है ने ज्यादा हिंदी आवडता नही है तो कोई एकाद गुजराती शब्द घुस जायेतो चला लेना हो..)

वैसे तो कोलेजकालमें मैं एक ही बैठकमें पूरा पुस्तक पढ़ लेता था, लेकिन अब समय लगता है। तीन दिन लगे। पुस्तक पढ़ने का सही मजा तब आता है जब चारो-ओर शांति हो, क्योकि पढ़ते समय आपके मन में लेखककी लेखनी से निर्मित सृष्टिमे आपका विचरण नही हुआ तो वह पढ़ना पढ़ना ही क्या? मोबाइलमे वैसे तो मेंने बहोत पुस्तके पढ़े है, लेकिन तब की बात कुछ अलग थी, अब कुछ अलग है..!! पूरा दिन तो शांति से पढ़ने का समय मिला नही, रात्रि को पढ़ना आरम्भ किया।

(पहले सोचा था, यह लिखने में कुछ अपनी कल्पना भी डालूंगा पर, चलो सत्य ही लिखते है..! जो हुआ वही।)

ऑफिस से घर आते आते लेट हो गया था। ट्रकोने उड़ाई धूल और कोयले से कार्तिकमे भी फागुनकी होलीकी याद आ गई। घर पहुँचा रात के दस बज रहे होंगे, नहा-धोकर भोजनादि से निवृत हुआ, और पलंग पर पसर गया। कुंवरसाहब सोये हुए थे। (पिता के लिए पुत्र कुंवर से कम थोड़े होता है।) बाजू में ही, में भी फैल गया। सर्व प्रथम इंटरनेट बंध किया ताकि बीचमे कोई नोटिफिकेशन आकर ध्यानभंग न करे। नीरव शांति थी, मौसम हल्का ठंडा होता जा रहा है, पंखा भी चालू था तो,एक चद्दरसी कुंवर को ओढाई, और कुंवर के पैर के पास मेंने पीठ पीछे तकिया अढ़ेलके पढ़ना आरम्भ किया। लेकिन यह क्या, कहानी का मुख्य पात्र एक कुत्ता है? ऐतिहासिक नवलो का रसिक, मैं यह पढ़ते ही, एक बार तो सोचा की बस.. आगे नही पढ़ना.. लेकिन फिर विचार आया.. कहानी इंसान की क्या और कुत्ते की क्या? कहानी के पीछे का विचार महत्व का है। अब पढ़ने का भाव बदल गया था, अब केवल पढ़ने खातर पढ़ने का भाव हो गया था। कहानी की शुरुआत हो गई थी, कल्पनासृष्टिमे सर्जन हो रहा था। धीरे धीरे रस का प्रवाह बढ़ रहा था, विचारोंकी तरंगमाला का विस्तृतिकरण होने लगा था, धीरे धीरे में भी कहानी में खोने लगा था, सारमेय (एक श्वान, कहानी का मुख्य पात्र) के साथ मे भी कल्पनासृष्टिमें विचरने लगा, वह नाव में नदी पार कर रहा था, और.. उतनेमें ही कुँवरसाहबने चद्दर हटाते सीधे मोबाइल पर लात मारी.. ओर नींदमें ही बालसहज कहा, "पपा! घोड़ो बाधे"

मेने फिर उसे चद्दर ओढाई.. और आगे का वांचन शुरू किया..लेकिन कब आंख लग गई पता नही चला। करीब रात्रिके दो-तीन बजे आंख खुली। मोबाइल मेरे ही वजनके नीचे दबकर मरने जा रहा था और मैने मध्यरात्रिमें उसे बचा कर पलंग के साइड टेबलके ड्रॉअरमें प्रेम पूर्वक रखके गर्वान्वित होकर पुनः निन्द्रादेवी का आराधन करता सो गया। दिनभर वही, दिमागकी दौड़भाग.. और संध्या पश्चात एक कर भरने का कार्य आ गया, और फिर रातके दस तो ऑफिसमे ही बज गए।

अब घर पहुंचते ही, वही आदतानुसार कार्यवाहीओ का निर्वहन करके, पलंग पर पसरा ही था, (आलसु जीव हूँ भाई) की YQ में नोटिफिकेशन आ रही थी, अपन आज भी एड देखकर ही टहलते है.. छह-सात बार वॉच एड पर टच करने के बाद, आखिरकार मेरे अथाह प्रयासोकी सराहना करते हुए, YQ के एड प्रबंधक गूगल जी ने एक एड दे ही दी मुजे। YQ होम पर आते ही देखा रेड दारू पी रहे थे, चियर्स कहके आगे बढा, पसंदीदा लेखको/कवि/कवियत्रिओं के शानदार साहित्य का रसपान किया, और उतने में क्या देखता हूं, कमलेशभाई का एक पोस्ट जिसमे YQ की अथॉरिटी वालोने मेईल का प्रत्युत्तर देते कहा, सहानुभूति के लिए यह सब मत करो..! पहले तो आश्चर्य हुआ, क्रोध भी हुआ, सोचा चलो जीनकी एप है, उनकी मर्जी.. अपने को क्या..! अपन वैसे ही एड देखके आएंगे, दो-चार को सराहेंगे, साहित्यका रसपान करेंगे, कुछ बकवास सा लिखेंगे और सो जाएंगे..! और में सो ही गया।

दूसरे दिन ऑफिस में कुछ कम काम था। और आश्चर्य से शांति भी! तथा समय था तो, अतरापी का आरंभ और क्या? "सारमेयकी स्थितप्रज्ञ (अरे हाँ! स्थितप्रज्ञ के बारे में तो गुजराती नाट्यकार संजय गोरडियाने एक नाटक में अपने संवादमे बहुत ही गजबकी व्याख्या की है।) स्थिति में ध्रुव भट्टने कहानी को क्या घुमाया है.. सारमेय का पृथा के घर से भागना, नाविक और काले से संवाद, पुजारीका प्रत्युत्तर, शकु का घर, वहां से वापस अपने घर, गुरु के आश्रम.. फिर सरमा और पुजारी के वहां.. अरे सब ही लिख दूँ क्या?.. अंत भाग बाकी था और, ऑफिसके कार्यो का वहन करना आवश्यक हो गया।

फिर वही, पलंग पर पसरना, एक हाथ मे मोबाइल, और वांचनयात्रा..! कहानी का अंत हुआ.. और.. मेरे विचारों का भी.. आखिर में मन बिल्कुल शांत था। अच्छे लेखकका गुणधर्म होता है, वह अपनी कहानी का प्रारंभ जहा हुआ है, कहानी के अंत को भी उसी स्थान या उसके आसपास ही लाकर खड़ा करे। बस.. कहानी अभी भी दिमाग मे घूम रही थी.. सो गया.. सुबह नित्यक्रमानुसार ऑफिस और YQ खोल देखा कि, कमलेशभाईकी पोस्ट पर डिजिटल गुंडो का अतिक्रमण हो रखा था। मुद्दा तो में जानता था, लेकिन यह तो गजब ही हो रहा था! यदि कोई एप निर्माता या उसके कर्मचारी किसीकी फरियाद को सुलझने के बदले सहानुभूति का नाम देकर डिलीट करने को कहे तो, यह तो ईस्ट इंडिया कंपनी बन रही है.. कमलेशभाईकी आईडी yq ने बंध कर दी ऐसा जाना..! लेकिन वो दो गुंडे जिन्हें स्त्री सम्मान का भी ज्ञान नही था शायद, वे गालिया भी बक रहे थे! अब क्या कहे, सामने हो तो दो झापड़ बजा शकते पर डिजिटल झापड़ का आविष्कार अभी हुआ नही है..!

अरे! आप लोग अभी भी पढ रहे हो? तो पढो.. कुछ बाते और कह ही देता हूं, आज इतनी सारी हिंदी मेरे मुट्ठीभर के शब्दकोश से निकल ही रही है तो..! में गुजरातीमें मुजे जो भी आये वो दो-चार अगड़म-बगड़म शब्द लिख लेता हूं, और हमारे गुजराती में yq एडमिनिस्ट्रेटर है YQ मोटाभाई.. !!! अरे भाई क्या ही कहूँ हमारे मोटाभाई के बारे में.. ये कब बदल जाते है पता नही चलता, कभी कभी छह-सात दिन अदृष्यमान भी हो जाते..!! चलो अभी तो हर रोज प्रकट होकर हुक्म छोड़ देते है.. लेकिन ये कॉमेंट में done लिखने वाला रिवाज हटाओ न मोटेश..! बिना डन लिखे आप पढ़ते नही हो..! अभी कल मेने सोचा कुछ पुराने लेख में हैशटेग ठीक कर दूँ और बायो में एडिट कर दु, तो पुरानी दो पोस्ट में मैने हैशटेग ठीक किया, लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब मोटाभाई ने उस पुरानी पोस्ट को हाइलाइट कर के "वाह" कहा..! मुजे लगता है, मेरे हैशटेग अपडेट करने से, मेरे पोस्ट में मोटाभाई को मेंशन कर रखा था, तो उनको नोटिफिकेशन वगेरह शायद गई होगी..! और मोटाभाइने "वाह" कह दिया..! चलो अच्छी ही बात है..!

और भाई रेड, अतरापी के लिए अतःकरण से आभार!

* YQ माने YOURQUOTE

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