सचमें, सरिता के किनारे कभी नही मिलते, कहीं नही मिलते... || Yeah! river banks never meet...

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अब क्या हो गया? मैंने जो लिखा वह तुम तक बिन कहे पहुंच गया? असम्भव.. हाँ मानता हूं इला पर कुछ अनसुनी शक्तियाँ है, पर हमारे मध्य तो ऐसा कुछ नही है..! न तुम मेरे मन की समझ सकते न मैं तुम्हारे मन की..! मैं तुम्हे पूर्णतयः टालने में जुटा हुँ। क्योंकि मैं नही चाहता, बारबार मैं उस overthinking वाली स्थितिसे पसार होऊं। तुम से दूर होकर ही तो मैंने स्वच्छंदता शिखी है।


अब मेरा कोई नित्यक्रम नही है, न प्रातः तुम मुझे साढ़े सात को जगाते हो, न ही मुझे अब सवेरे वाली चा की तलब है, तुम होते थे तो ऑफिस मैं जल्दी भाग जाया करता था, अब परवाह नही है, दिनभर computer पर चश्मे का नंबर बढ़ाकर अब मैं घर भी जल्दी लौट आता हूं..! शाम को जो भी मिले चुप-चाप खा लेता हूं! हाँ! अब तो मैं बगैर दोस्तो के भी कई देर तक उस जगह बैठ सकता हूं, जहां हम यार गप्पे लड़ाते है, जहां सिगरेट की रेस लगती है, और अंत मे बीड़ी भी जलती है..! सलवटों वाला बिस्तर निंद्रामें खलल नही करता, पर हाँ रात को देर तक नींद नही आती अब..! तुम कहती थी मेरे खर्राटे तुम्हे सोने नही देते, अब यकीनन तुम चैनसे सो पाती होगी, है न..? मैं भी मूर्ख हूँ, किससे पूछ रहा हूँ, सामने दीवार है मेरे..!!


सुना है overthinker पागल हो जाते है.. मैं तो वैसे भी कदाचित पागलपन के प्रथम चरण में तो होऊंगा ही, जो आजपर्यन्त तुम्हे संबोधित करके मेरी यह ले-भागू लेखनी चलाता रहता हूं! मुझे ज्ञात है, शत प्रतिशत मेरी यह व्यथा-गाथा तुम तक नही पहुंचती, फिर भी मैं वैशाखनंदन की तरह भार ढोते चलता रहता हूं, लिखता रहता हूँ।


अधबीता बसंत और कुछ नहीं पर प्रभाकर की ऊष्मा को बढ़ा रहा है.. ठंडा पड़ा सब कुछ नवचेतन को आतुर हो रहा है, धरा पुनः एक बार वर्षागमनकी प्रतीक्षाको आतुर होगी, सूखेगी, उसमे दरारे आएगी। हाँ सम्बन्धमे दरारे आने के बाद अगर पुनः भेंट हो जाए तो कदाचित वह सम्बन्ध और गाढ़ा हो जाता होगा.. तभी तो प्रतिवर्ष वसुंधरा और वर्षा की यह पुनः वियोग और पुनः मिलन की परम्परा चली आ रही है..! क्या हमारे मध्य यह संभावना शेष नहीं है?


होनी भी नहीं चाहिए, अब हमारे मध्य वियोग ही आमरण उपयुक्त है..! वह राम-सीता का युग था, जब बिछड़े सदा के बिछड़े ही रहते थे..! अब तो बिछड़न के तीसरे दिन युगल नवसम्बन्ध स्थापित करने से पीछे नहीं हटते..! पुरुष हो या स्त्री.. विवाहित हो या अविवाहित.. शारीरिक सुख के शमन हेतु एक दूसरे के प्रति त्वरित छल कर लेते है..! नौकरी गए पुरुष के पीछे से स्त्री अपने यार को घर बुला लेती है, नौकरी गया हुआ पुरुष अपने कार्यक्षेत्र से किसी और मुग्धा पर मोहित हुआ जाता है..! गोपीचंद ने ऐसे ही तो संसार त्याग नही किया था, वह भी छला गया था, अपनी ही प्रिया द्वारा..! त्रिपुरारी ने काम को जलाकर भष्मीभूत तो किया, पर वरदान पाकर सूक्ष्म स्वरूप में पृथ्वी पर सदा ही बस गया.. आज उसी का तो समय चल रहा है.. इंटरनेट से लेकर tv सीरियल्स तक बस कामुकता ही तो दर्शाई जा रही है। और उसके परिणाम स्वरूप टूटते संबंध..! तुम और मैं साथ नही रह सकते उसका कारण यह प्रेम-प्रपंच नही है, पर हमारा आपस का तालमेल, न तुम मुझे सम्भाल पाओगे, न मैं तुम्हे.. प्रेम विषय की लघुताग्रंथि जो मेरे मन मे है वह कभी न जा पाएगी.. और तुम मेरे पीछे बस घसिटाती चली आओ, वह मुझे योग्य नही लगता.. हमारी दूरी ही सर्वाधिक उपयुक्त है..! मेरा मन कहीं और लगे न लगे, तुम्हारा कहीं तो लग ही जाएगा..!!! सचमें, सरिता के किनारे कभी नही मिलते, कहीं नही मिलते, रेल की पटरियां कह लो.. बस क्षितिज के पार तक समांतर चली ही जाती है.. हाँ! जहां क्षितिज तथा यह पटरियां एकाकार हो रही हो वहां दोनो एक होने का भ्रम अवश्य उत्पन्न होता है, पर निश्चित वह एक भ्रम मात्र ही है..!


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