क्योंकि तुमने दुःसाहस किया था दुनिया के रिवाजो से हटकर चलने का..! || Because you had the audacity to deviate from the customs of the world..! ||

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ऐसा भी होता है की कभी कोई बिलकुल तुम जैसा ही मिल जाए तब एक ही बार में ढेर सारी चर्चा हो जाती है, क्योंकि तुम्हारी पसंद का विषय होता है..! लेकिन फिर ? बातो का भी अंत होता है कहीं न कहीं...! निष्कर्ष बनता है नीरवता.. न उनके पास कुछ कहने को बचेगा, न तुम्हारे पास.. हाँ कोई कोई बहुत बातूनी हो उन्हें यह लागू नहीं होता, लेकिन ज्यादातर लोगो के साथ यही होता है...! चर्चा का सार दोनों अपने हिसाब से अर्थघटन कर लेते.. और फिर कई दिनों तक शांति.. फिर किसी दिन तुम अपने विषय पर पुनः लौटोगे.. फिर चर्चाए होगी.. फिर तुम एक-दुसरे थोड़ा जान लोगे.. लेकिन फिर पुनः शांति.. फिर किसी दिन चर्चा बहस का स्वरुप लेगी.. और फिर अंत..!!! निराशावादी का सिद्धांत है, सुखद अंत उन्हें रास नहीं आता.. 



कल रात किसी ने अपने ब्लॉगपोस्ट की लिंक भेजी, अब अपन अपने ब्लॉग की लिंक भेज भेज कर किसी से पढ़वाते है तो कोई अपनी पोस्ट की लिंक भेजे तो अपने को भी पढ़ना पड़ेगा न ? वही ऋण चुकाने वाली बात हो गई.. उन्होंने क्या लिखा है बाकी.. धीरे धीरे ब्लॉगर जिन्दा हो रहा है.. लगभग 2013 में ब्लॉगर की बोलबाला चरम पर थी.. फिर डाउनट्रेंड आया, लोग अपने क्षेत्रो में व्यस्त होते चले, फेसबुक सरल था.. फिर व्हाट्सएप्प ने तो क्रांति ही करदी..! फिर हमारे जैसे यौरक्वोट के शरण में गए.. बठाउ धक्का देर काड्या म्हाने फेर अठे आर पड्या हां.. अब दो-तीन और टहलते धमकते ब्लॉगर पर आ गए..! अच्छा है.. जब पढ़ना हो, तब पढ़ सकते.. जब लिखना हो तब लिख सकते, ड्राफ्ट में लिखा हुआ पड़ा रहता, और क्या चाहिए.. वैसे चाहिए तो बहुत कुछ पर हरि इच्छा बलवान..!


मेरी चाहना मेरे प्रयत्नो या सामर्थ्य से बहुत दूर है.. वो बॉलीवुडीये कहते है न किसी चीज को सिद्धत से चाहो तो सारी कायनात तुम्हे उससे मिलाने में जुट जाती है.. "लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन" - आकर्षण का सिद्धांत है यह.. हमारे दर्शन भी कुछ ऐसा ही कहते है की तुम्हारी कोई वस्तु है तो वह तुम्हे मिलकर ही रहेगी, लेकिन अगर तुम्हारी नहीं है तो लाख कोशिशों के पश्चात भी नहीं मिलेगी। अब जिसकी मैं कामना करता हूँ उससे मेरा कोई ऋणानुबंध नहीं है तो मेरे प्रयत्न, ऊर्जा, तथा समय सब व्यर्थ। उदाहरण के लिए कहूं तो मान लो बैंक के CDM मशीन में मेरे कुछ रूपये फंस गए.. लगातार बैंक की ३ दिन की छुट्टिया आ गई, अब मेरा कोई कार्य रुपियो की वजह से अटका पड़ा है, पैसे मशीन में फंसे पड़े है, मशीन बैंक की, बैंक में छुट्टिया है.. सीधा सा प्रसंग है, मेरी कामना है मेरे पैसे। इंतजार किया, बैंक की छुट्टिया ख़त्म हुई, बैंक वाले को मामला बताया, और उसने कहा, "दो दिन में पैसे वापस आ जाएंगे।" तीन दिन का पहले इंतजार किया, दो दिन और सही.. तुम्हे लगेगा एक एक क्षण एक एक युग समान पसार हो रहा है। कामना अब भी यही है, जल्द से जल्द से पैसे वापस आए.. अब छह दिन हो चुके है, मैं फिर से बैंक में गया, मेरी कामना व्यक्त की.. बैंक वालो ने जवाब दिया, "चिंता न करो.. फल अवश्य मिलेगा.." अब इन्तेजारी की पराकाष्टा मानकर मैंने RBI और बैंक की हेड ऑफिस को मेल डाल दिया, और दो घंटे में मेरा पैसा मुझे मिल गया। अब इसमें योगानुयोग उसी दिन पैसा वापिस मिला जिस दिन मैंने मेल किया। अब कहोगे की आकर्षण का नियम कहाँ है इस में यह तो मेहनत हुई.. भागदौड़ हुई, चक्कर काटने पड़े, समय का व्यय हुआ.. मुझे मेरे पैसो के प्रति आकर्षण था तो मैं उसके पीछे भागता रहा, भागता रहा तब मुझे मेरा फल मिला.. बैंक वालो का दूसरे दिन मेल भी आया की "sorry for inconvenience" और कहने लगे कंप्लेंट क्यों कर दी.. आकर्षण का प्रभाव था, दुसरो को इन्वॉल्व होना पड़ता है..! वैसे यह सिद्धांत सब हवा जैसे होते है, दीखते नहीं लेकिन होते होंगे.. चाहो तो मानो, चाहो तो न मानो..! ऐसा ही कुछ ईश्वर है..


लाल ने अच्छा लिखा था, "आस्तिक और नास्तिक दोनों एक जैसे हैं, दोनों उसी चीज को मानते है जिसे वे जानते नहीं...! सबका मानने का तरीका अलग होता, कोई जयघोष के नाद के साथ अपनी भक्ति दर्शाता है, कोई बिना हाथ जोड़े भी बस दर्शन कर लेता है, कोई तो अपनी आँखे बंध कर ईश्वरीय अनुभूति करता है.. फिर आते है वे लोग जो सोचते है जो दीखता नहीं उसकी किस बात की भक्ति.. और होता है कलेश... वाद बना, आस्तिकता और नास्तिकता.. समस्या उनको ज्यादा होती है जो न तो आस्तिक है न ही नास्तिक... बस बाप का बगीचा मानकर उन दोनों को बिच में टहल रहे है.. लेकिन ऐसे लोग को तो आस्तिक और नास्तिक दोनों ही नकारते है.. मजबूर करते है, कोई एक पक्ष तो तुम्हे चुनना ही होगा.. फिर मेरे जैसे होते है.. न ब्लेक न वाइट.. ग्रे... न पूर्ण आस्तिक न पूर्ण नास्तिक.. अच्छा हम जैसो को बड़े ढंग से देखा है मैंने दुःख आएगा तो दौड़कर आस्तिक बन जाएंगे.. मन्नते मानेंगे, धुप-दिप-वंदन न जाने क्या क्या करने लगते है.. लेकिन समय अच्छा चल रहा हो और तब भगवान स्वयं आ जाए तो पूछ लेते है आपकी तारीफ़ ? मेरा तो उल्टा है, मेरे शांतिकाल में मैं मंदिरो में अवश्य हाजरी लगता हूँ, पर संकट समय में मैं पूरा भार अपने पर रखता हूँ.. पूरी जिम्मेवारी भी मेरी ही.. जो भी कार्य करता हूँ मैं मानता हूँ, मैंने किये है, चाहे अच्छे हो बुरे..! अपने कार्यो का टोपला ईश्वर के सर क्यों डालना ? लोगो को कई बार सुना है मैंने, "जो भी करवाता है ईश्वर करवाता है.." एक बाबे टाइप ने तो कहा भी, "पेपर नहीं आता ?, छोड़ दो.. ईश्वर पर आस्था रखो वे तुम्हे फ़ैल नहीं होने देंगे...!" और श्रद्धालु तालिया पिट रहे.. अबे उसके गाल पर तालिया पीटो कोई.. 


विषय बदलते है... वही घिसेपिटे प्रेम पर आते है, अब तुम चाहो तो स्किप कर दो..!

वर्षा के बाद कि यह भादो की चिलचिलाती गर्मी.. जैसे किसी विरही को प्रियदर्शन के सुख पश्चात मिला पुनः विरह..! परितृप्त हुए चातक की नूतन तृषा का नवीन प्रारंभ..! वर्षा  की ऋतु में ऐसे ही बेफिजूल में उगे आए घास का कोई किसान मुलच्छेद करता हो ठीक उसी प्रकार मैं भी तुम्हारी यादों का मुलच्छेद करने में लगा हूँ.. पर होता क्या है? कहीं न कहीं से तुम्हारी कोई न कोई नई खबर पा लेता हूँ.. और वह यादों का वृक्ष और विशाल हुए जाता है.. मैं कमजोर। अब तो परिश्रम से भी भय लगने लगा है। एकांत के आश्रयमें सूनेपन से संधि की है..! एकांतवास मैं कुछ अलग ही अनुभव होते है, विचारों का शमन जैसे दावानल पर ही जलप्रपात हुआ, नएपन की कमी - क्योंकि पुराना प्रभाव ही घेरे बैठा है, स्थूलता में बढ़ोतरी, चेतनता कृष्ण पक्ष में पीछे हट रहे समुद्र सी पीछे हटने लगती है.. और भी बहुत कुछ.. सतत नीरवता आखिरकार संतापने लगती है.. क्योंकि मैं कलशोर का आदी हो चुका हूं, तुम्हारे स्वर के मीठे सुरों का आदी.. तुम्हारी गर्दन पर बने काले तिल का आदी.. तुम्हारी उंगुलियों को मेरी उंगलियों में फंसाने का आदी.. यूँ तो नीची नजर रखने वाला मैं तुम्हारी आँखों से आंखे मिलाने का आदी.. तुम्हे पता है ? कभी कभी स्वयं पर भी क्रोध हो आता है.. क्यों यह विरह मेरे ही हिस्से आया ? या फिर सोचता हूं, की कहीं मैंने इसे अपना ही लिया हो ? जो भी हो एक बात सदा से स्वीकृत है.. की ह्रदय का एक कोण तो सदा ही आरक्षित रहता है.. जहां हम अपनी पसंदगी को सजाते है.. उनसे मिलते है, बाते करते है.. संसार मे रहना है तो दूसरे संबंधों को भी तो न्याय देना होता है.. बस संतुलन बनाए चलता रहना होता है.. क्योंकि जब भी जरा सा भी बेलेंस बिगड़ा, दुनिया दांत फाड़कर हँसेगी तुम पर.. क्यों ? क्योंकि तुमने दुःसाहस किया था दुनिया के रिवाजो से हटकर चलने का..! प्रेम के पीछे अंधे होने का.. और अंधा महाभारत का ही कारण बनता है..


|| अस्तु ||

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