क्या हो जब तुम्हारे शब्द तुम्हारा साथ छोड़ दे.. मैं कुछ दिनों से प्रियंवदा से ही बाते करने लगा हूं, क्यों ? सहारा.. शब्दो का सहारा..! खुद के कल्पनाश्व को बांधकर किसी अन्य की सहायता से किसी विषय मे भ्रमण कर रहा हूं..! कारण इतना ही है कि कई बार मैं एक ही साथ पूरा कूप खाली कर देता हूं। किसी पौधे को सींचते समय ध्यान रखना जरूरी है कि पानी कम न पड़े, लेकिन साथ साथ यह भी तो देखते रहना चाहिये न कि ज्यादा पानी भी न डाला जाए.. दोनो ही कारणों से पौधा मृतप्रायः हो जाता है..!
बात तो सही है, मैं भी तो आडंबर करता हूं, मुखौटा रखकर। अपना अलग ही व्यक्तित्व लोगो के सामने रखता हूं.. वास्तविकता से शायद कोसो दूर.. जो मेरे मित्र है, अंगत तौर पर मुझे जानते है, उनके प्रति का मेरा व्यवहार, भाषा, दिखावा, सब अलग होता..। और जो मुखौटे से मिलते है उनके साथ भी अलग ही तरीके का व्यवहार किया जाता है.. क्यों? मेरा तो कारण बस इतना सा है कि अगर मुझे जानने वाले मुझे लिखता पाएंगे तो मेरी लेखनी मुझसे न जोड़ दी जाए। इसी कारण से मेरे मुखौटे से बात करने वाले मेरा अलग रूप देखते है.. और जो मुझसे वाकई मिले है वे नही जानते कि मैं लिखता हूं.. भले ही उटपटांग हो.. पर लिखता हूं.. अपनी परेशानियां, अपनी खुशिया, अपने दुखड़े, या सुखों की जाहो-जलाली.. सब कुछ में कल्पना का घोल मिलाकर खुली डायरी में चेप देता हूं... एक-दो दोस्त है वे तो फोन करके बोल भी देते है, "चल जुठठे.." कहीं यह मुखोटा हंमेशा के लिए तो नही चिपक जाएगा ? मुझे तो मंजूर है..!
वैसे मुखौटे का बड़ा फायदा यह है कि यदि कोई तारीफे करता है तब भी मैं अलिप्त रह पाता हूं, कोई बुरा-भला कहे तब भी दिलासा रहता है कि उस मुखौटे को दे रहा है.. दिल पर बोझ नही आता। अब कोई कहे कि यह बस आत्मविश्वास की कमी के कारण होता है, तो मैं तो अब किसी पर भी पूर्णतः विश्वास करने में असमर्थ हूं, किसी के प्रति सम्पूर्ण अपेक्षित भी नही रहता। अब इसे आडंबर कहा जाए, या कायरता, या कुछ भी.. क्या फर्क पड़ता है.. मुझे जिस बात में खुशी अनुभव होती है, जो काम करके मेरा दिल हल्का होता है, और किसीका कुछ नुकसान भी नही हो रहा तो क्यो न मुखोटा रखूं ? अच्छा, एक बात मेरे संज्ञान में आई है.. वह है सलाह देना.. हाँ जैसे मैं ज्ञान का भंडार हूं.. बिनमाँगे सलाहै बांट रहा हूँ.. किसी ने नमक का पूछा तो समंदर के खारे पानी के सूखने तक कि विधि बता रहा हूं ? पता नही क्यो..!!! कुछ देर बाद खुद ही सोचता हूं, यह क्या बोल दिया है, अब अगला क्या सोचेगा ? कुछ देर बाद खुद ही खुद को दिलासा दे देता हूँ अब बोल दिया तो बोल दिया..! अगले को जरूरत थी। मानवीय धोखे से उबरे हो और टेक्नोलॉजी धोखा दे जाए तब जो संवेदना होती है वह पूरी पूरी वेदना से ही भरी हुई होती है..! जैसे लगता है शिकारीने अभी जाल बिछाई भी न थी और मैं सामने से उसका शिकार होने चला गया। यह अनुच्छेद बहुत लंबा नही हो गया..!
अब तो हवा से उड़ते पन्नो से लगता है मानो प्रियंवदा कह रही है, "ब्रेक ले ले तू..!" पर "दिल है कि मानता नही.."
जो भी हो.. पिछले कुछ सालों से मैंने दिल की सुनना छोड़ दिया है, पिछले कुछ दिनों में मेरी आस्तिकता की परिभाषा भी बदल गई है.. एक समय था मेरा जगन्नाथ के सामने मस्तक नमाना दिनचर्या थी, वहीं आज देवद्वार देखे भी कई दिन बीत चुके है..! कई बार क्या होता है, की किसी चीज से, वस्तु से हमे खूब फायदा हुआ हो, फिर उसे हम अपने से अलग नही कर पाते.. उसको एक अलग ही उच्च स्थान देने में लग जाते है.. फिर चाहे वह चीज अपने मूल स्वरूप से कितनी ही भिन्न हो जाए.. उदाहरण कहूँ तो जैसे बजाज हो गई, एक समय पर बजाज की पल्सर ने खूब धूम मचाई थी, आज भी बजाज की बेस्ट सेलर पल्सर ही है। लेकिन आज क्या हो रहा है.. स्पोर्ट्स नेकेड बाइक, मूल पल्सर से बिल्कुल अलग बाइक, भी बजाज पल्सर नाम देकर ही बेच रहा है, बस पल्सर के आगे NS, RS लगा देता है। अच्छा, अपनी कोई खासियत हो.. तो सिर्फ उसी खासियत के आधार पर चलना सही है या स्वयं में और भी बदलाव कर के दूसरी खासियतों का भी निर्माण करना चाहिए ? जैसे मैं प्रेम की आलोचना के नाम पर एक ही बात को दोहराता रहता हूं अलग अलग शब्दो से, जाल बुना करता हूं.. यह ठीक वैसा ही है जैसे महिंद्रा ने अपनी फ्लॉप TUV300 के अनबिके मॉडल्स को BOLLERO NEO के नाम पर बेच दिया.. लोगो ने खरीदा भी.. जैसे लोग टोयोटा की ग्लांज़ा खरीद कर खुश होते हुए सुजुकी की बलेनो की खिल्ली उड़ाते है..!!!
पता नही.. जैसे एक अंधा हाथी की पूंछ पकडकर कहता है हाथी तो रस्सी जैसा है, दूसरा अंधा हाथी की सूंढ़ पकडकर कहता है, नही हाथी तो मोटे बांस जैसा है, तीसरा अंधा हाथी का पैर पकड़कर कहता है कि तुम दोनों गलत हो, हाथी तो खंभे जैसा है..! बस ठीक ऐसा ही होता है जब तुम अलग अलग लोगो के सामने अपने अलग अलग व्यक्तित्वों का परिचय दो..! उसे उतना ही पता है जितना तुमने जताया है। फिर भी वह राजी है, क्योंकि उसके मन मे मेरा कल्पित स्वरूप उसकी विचारधारा से मेल खाता है। लेकिन वास्तविकता में मैं तो सिरे से भिन्न हूं, उसकी कल्पना से बिल्कुल ही अलग.. फिर होगा मोहभंग.. क्रोध.. और जाओ आजके बाद मुझसे बात मत करना। अरे भाई मेरी क्या गलती है, तुमने खुदने सोचा था कि हाथी रस्सी जैसा है, खंभे जैसा है.. लेकिन वह वैसा नही है..!
दुनिया हकीकत में दोरंगी है.. यहाँ हर क्षण ट्रेंड बदलता है..! मैं वही तो गलती करता हूं, पवन की दिशा में नही चलता, पवन से विरुद्ध चलता हूं, न ही गंतव्य को पाता हूं, न ही आराम..! कई बार मैं सोचता हूं लोग कितने बेफिक्रे है, कुछ भी हो जाए इन्हें कुछ फर्क ही नही पड़ता.. ऐसा नही है। अकेला मैं वही अटका रह जाता हूं, overthinking के चलते। उसने बेवफाई की, वह आगे बढ़ गया, सब कुछ दिन बाद नॉर्मल हो गए.. पर मैं वही रुका रहा.. क्यों? एक आशा में कि वे लौटेंगे.. पर मुझे यह समझ कतई नही आता कि वे मेरे थे ही नही.. जब मेरे थे ही नही तो लौटेंगे क्यों ?
इसी पर एक विचार आ रहा है.. आज तो लग्नविच्छेद (तलाक) की व्यवस्था है.. दो लोग का मनमुटाव हुआ, अलग हो गए.. पहले तो ऐसी कोई व्यवस्था न थी फिर भी लोग साथ रह लेते थे। कितना मजबूत मनोबल होता होगा ? दोनो में से यदि एक ने विश्वासघात भी किया तब भी.. दोनो में से कोई साथ रहकर राजी नही हो तब भी, दोनो में से कोई एक क्रूर हो तब भी.. दोनो में से कोई एक तेज हो दूसरा बिल्कुल धीमा तब भी.. दोनो में से कोई एक विकलांग हो तब भी.. आज कहाँ सम्भव है यह सब ? क्षण की चौथाई में निर्णय ले लिया जाता है अलग होने का..! कभी कभी कोई फंस भी जाता है.. कोई तो चाहकर भी अलग नही हो पाता..! गुजराती में 'कजोड़ा' कहते है, अरेंज मैरिज में कई बार कजोडे बनते है, पर जिंदगी भर साथ निभा लेते थे, दो दिन झगड़ा किया, तीसरे दिन सुलह.. कभी अलग तो न हुए थे। सहनशीलता या धैर्य क्या होता है वह ये कजोडे अच्छे से जानते होंगे। यह तो कुछ ओवरलिमिटेड overthinking हो गई..! या फिर सबके जीवन से मेल खाता हुआ या कहीं न कहीं देखा हुआ सत्य लिख दिया..? पता नही..!
मादा बिच्छु की प्रसूति के बाद उसके सेंकडो बच्चे जन्मते ही भूख के कारण उनकी माँ को ही खा जाते है..! यह एक फेक्ट है.. दृष्टिकोण होता है एक तो माँ बिच्छू अपनी संतान के भविष्य के लिए अपना देह समर्पण कर रही है.. दूसरा दृष्टिकोण कहता है जन्मते ही माँ को खा जाए वह विषैले ही होंगे न ? अब हम जैसे प्रसंगानुसार उक्त उदाहरण को प्रयोग में लेते है.. कभी हम मादा बिच्छू के समर्पण को सराहेंगे, कभी भूखे बच्चो पर तरस दिखाएंगे, कभी अपनी माँ को खाने वाले कीड़ो को कोसेंगे भी..! एक ही प्रसंग से कितने निष्कर्ष निकलते है.. फिर भी ज्यादातर लोग इस प्रसंग में माँ का पुत्रो के प्रति 'प्रेम' देखते है.. दुनिया प्रेम की आसक्त है.. क्षुधातुर है, जैसे पीलिये के रोगी को पिला दिखता है, वैसे ही प्रेमिओ को चारोओर प्रेम दिखता है..! तो पीलिये का रोगी और प्रेमी एक जैसे हुए की नही ? यह भी दृष्टिकोण है..