कई बार आकर्षण को प्रेम के नाम पर बेचा जाता है.. और यह कार्य करते है हम जैसे कथित लेखक या कवि। कान पर पहने देढ़सो रुपये के झुमके की तारीफों के पूल बांधने शुरू कर देते, इन्हें उस झुमके में ब्रह्मांड दिखने लगता, झुमके में लगे छोटे-छोटे गोलाकार मोती इन्हें केंद्र की परिक्रमा करते ग्रह समान लगते है। फिर कोई कहता, "झुमका गिरा रे बरेली की बाज़ार में.." और मेरे ही मन के एक कोने में चल रहा होता है कि कहीं सुल्तान मिर्ज़ा की तरह अमरूद का भाव खुद ही नही बढ़ा रहे ? क्या पता..
एक तो होता है बखान करना, एक होता है इतने बखान करना कि वास्विकता ही छुप जाए। कोई कोई ख्याली दुनिया को इतना ज्यादा सजा लेते है कि पहाड़ बन जाता है, और फिर खोदा पहाड़ निकला चूहा.. अंदर से खोखला.. या फिर हवा भरा फुग्गा ही समझ लो..! ज्यादातर होता यही है, अवास्तविकता के अनुकरण में वास्तविकता दिखती है। गिरगिट जैसे अनुकरण करता है रंगों का। अब आशावादी इसे परिस्थिति अनुसार ढलना कहते है, और निराशावादी के लिए तो वह रंग बदलता प्राणी मात्र है। हम जैसे तीसरा दृष्टिकोण ले आते है, वह परिस्थित अनुसार ढल भी रहा है, रंग बदलने वाला जीव भी है लेकिन वह अपने शिकार को घेरने के लिए और स्वयं के संरक्षण के लिए ही ऐसा करता है, हालांकि यह एक फेक्ट है, लेकिन दृष्टिकोण तो दृष्टिकोण होता है। अब हमारी स्वयं की जैसी स्थिति होगी वैसा हमारा दृष्टिकोण होगा, उत्साहित, प्रफुल्लित होंगे तो गिरगिट का रंग बदलना अच्छा है, निराश और हताश होंगे तो गिरगिट धोखेबाज है.. हालांकि गिरगिट को हमारे इन दिए हुए उपनामो से तंबूरा फर्क नही पड़ता पर फिर भी हम सिंह को जंगल का राजा कहते है.. क्यों? सिंह ने स्वयं कभी कहा था क्या ?
अतिशयोक्ति किसी की अच्छी नही, न लेखन की, न विचारों की। अतिशयोक्ति के पश्चात क्या होगा ? रिक्तता.. नरी रिक्तता। जैसे पूरा कूप खाली कर दिया हो.. अब.. अगली वर्षा की आशा.. और लंबी प्रतीक्षा..! प्रतीक्षा का नाम पड़ते ही दुबक के बैठा कवि कूद पड़ता है मैदान में..
"बैठा था इन्तेजार में कब लौटोगे अपने शहर,
झुमकों की ही खातिर अब वापिस आ जाओ.."
नही मतलब देढ़सो के झुमके की खातिर वो परिवहन का खर्चा झेले? कुछ लॉजिक तो होना चाहिए न काव्य में, या विचारों में.. कल्पना के सहारे खड़ा हुआ महल कितना मजबूत होगा ? नही लेकिन बस लिखे जाते है, घिसे जाते है, अपने ही ख्याली पुलाव खुद ही खाते रहते है, दिखावा करते है, स्वांग रचते है, विचारक होने का, सोसियल मीडिया पर फ़ोटो लगाएंगे, ब्लेक एंड वाइट, हाथ मे बॉलपेन, मेज पर बुक, पास पड़ा होगा एक फूलदान, अर्ध-मिंची आंखे.. वैसे खुद का पासपोर्ट साइज फ़ोटो ही प्रोफ़ाइल पर लगा दे तो दुनिया कितनी अजीब लगेगी.. सबकी वास्तविकता स्वयंभू प्रगट हो जाएगी, किसी की लंबी नाक होगी, कोई छोटे कानो वाला, किसीके बड़े होंठ, किसी की झीनी आंखे.. कोई फिल्टर नही.. जैसे हो बिल्कुल वैसे ही.. फिर सबकी पसंदगी के लेवल निकलेंगे...
वास्तविकता को स्वीकारना कठिन है.. क्यों क्योंकि कल्पित स्वरूप से कुछ अधिक ही भिन्नता दिखाई पड़ती है.. सबकी अपनी पृथक विचारधारा, सबकी अपनी विभक्त विचारधारा, लेकिन कल्पना लगभग लगभग सब समान ही कर लेते है.. जैसे शराब के प्रति सबका नजरिया समान है, चाहे वह एक ही पेग पीता हो, चाहे पूरी बोतल.. बेवड़ा ही माना जाता है। चाहे जिंदगी में उसने पीकर कोई उधम न मचाया हो।
खिल्ली उड़ाना आसान है, क्योंकि मैं भी तो यही ब्लैक & वाइट वाला ही हूँ, दिखावा करने वाला..! रोज विचारो का बवंडर खड़ा करता हूँ, खुद ही तबाह हो जाता हूँ..! फिर भी कभी कभी कुछ विचित्र ही अनुभव हो जाते है.. जब अपने पर बितती है तब समझ पाते है की अनुभव की कीमत तथा उसके परिणाम स्वरुप मिले निशाँ..! एक प्रसंग बना था, काफी दिनों तक उसने मेरे मन में उत्पात मचाया, लिखू, न लिखू ? गोपनीयता भी बनी रहनी चाहिए, लोगो को भी सचेत करना चाहिए, या बस स्वयं को हुआ अनुभव उसे एक दुःस्वप्न समझ चुपचाप भूल जाना चाहिए ? या फिर लिखना चाइए की कोई किसी को गिराने के लिए अपना स्तर कितने निचे तक ले जाता है... समझो तो बात बड़ी भी है पर नजरअंदाज भी की जाती है। यह अभी जो कोलकाता वाला काण्ड हुआ वह भी बुरा और दुःखद है लेकिन एक और बुरी बात होती है सोसियल मिडिया पर किसी की इज्जत उछाली जाए। सोसियल मिडिया पर कई बार ट्रेंड चलता है न "NEW FEAR UNLOCKED" उसी टाइप का। एक लड़की थी, यौरक्वोट पर मैं उसे खूब पढ़ता था, छोटी सी उम्र में ही कमाल की लेखनी पाई थी उसने.. उसका वर्णन करना असल आँखों के आगे से चलते चित्र की माफिक था, शायद बारहवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थी, मैं तो वैसे भी बहुत जल्द प्रभावित हो जाता हूँ, उसकी लेखनी को बार बार पढता, एक टीस, एक दर्द, एक कराह थी... इतनी छोटी उम्रमें शब्दों से किसी प्रसंग का विवरण करना आसान नहीं। लेकिन उसे आता था। उन दिनों मैं किसी को कभी भी सराहता नहीं था, लेखनी का बखान करना मुझे लगता था की उसमे अभिमान न भर दे.. यौरक्वोट से भागे हुए सभी ने इंस्टाग्राम का आशरा लिया। इंस्टाग्राम पर भी उसे फॉलो कर लिया। यहां भी उसकी लेखनी का चाहक हुआ मैं उसे पढता, अपनी जिंदगी से उसकी कलमकारी की तुलना करता, और कुरेदे घावों को पुनः खरोंचता..! अभी तक हमारी कभी बात न हुई थी।
एक दिन उसका मेसेज आया, "Hi"
मैंने भी प्रत्युत्तर में "Hi" का रिप्लाय दिया। फिर जो उसका मेसेज आया मैं अंदर तक हिल गया.. (लिखने में झिझक अनुभव कर रहा हूँ। क्योंकि मैं यह सोच रहा हूँ की वाचक मेरे विषय में कोई ग्रंथि न बाँध ले।) उसकी ओर से रेट लिस्ट आई थी, वीडियो-कॉल की। मैंने चैटबॉक्स में उसके फोटो पर क्लिक कर प्रोफ़ाइल खोली, इस आईडी को तो फॉलो ही नहीं किया था मैंने। किसी ने उसकी फेक आईडी बनाई थी, लेकिन उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाने का यह क्या तरीका हुआ ? झिझकते हुए ही उस लड़की को इन्फॉर्म किया... ग्रुप रिपोर्टिंग करवाकर उस फेक आईडी को तो बंध करवा दिया, पर मुझे लगा वह लड़की डर गई थी। उसकी लेखनी चुप हो गई थी.. कई दिन बीते, उसकी कोई पोस्ट न आई, मैं भी उसकी लेखनी का व्यसनी हो चूका था शायद.. पर मेरी भी हिम्मत न थी दिलासा देने की। उस फेक आईडी ने और भी लोगो को इस तरह के मेसेज किए होंगे..! फिर एक दिन वह गायब हो गई.. इंस्टाग्राम से, यौरक्वोट से.. और मैने अनुभव किया की सिर्फ वह नहीं गई, एक पूरी प्रतिभा ही गायब हुई है..!