किसी से चर्चाए करो न तो कुछ न कुछ विषय निकल ही आता है लिखने के लिए.. कभी कभी दुःख या संवेदना प्रकट करते है, कभी हसी-ठिठौली, या कभी कुछ गहन-गंभीर चर्चा.. लेकिन सार कुछ सही ही निकलता है। लेकिन उस चर्चा के प्रति एक दृष्टिकोण पालना पड़ता है, और कुछ सरल-सहज साहित्यिक शब्दों का चयन। मैं, कुछ नया होता है मेरे साथ, या कुछ बुरा भी, या कहीं मैं बुरी तरह फंसा होऊं, या कहीं किसी बेढंगी स्थिति में भी अटक गया होता हूँ तो प्रियंवदा को कह देता हूँ.. वास्तव में हमें एक पंचिंग बेग चाहिए होता है। अपनी उलझने कहीं तो निकालनी होती है, फिर चाहे वह मित्र हो, या संग्रहिका।
कई वस्तु ऐसी होती है, जो दिखती है, लेकिन कुछ समय के लिए। समय रहते वह लक्ष्य प्राप्त नहीं किया तो गया बारह के भाव में। और कुछ वस्तु ऐसी भी होती है जो ललचाती है लेकिन उन्हें प्राप्त करने के पश्चात दुःख भी उपजता है, भले ही वह क्षणिक दुःख ही हो। (उदाहरण के लिए हुंडई का आईपीओ मान लो।) मजाकमस्ती ठीक है, लेकिन कई बार ऐसा भी तो होता है की एक निश्चित लक्ष्य के पीछे पीछे भागते भागते उतना भाग लिए की अब प्रारम्भ की ओर लौट आना भी संभव नहीं। (उदहारण के लिए गिरते हुए टाटा स्टील में पैसा डालते रहना।) पता नहीं आज क्या लिख रहा हूँ मैं, और क्यों लिख रहा हूँ, बड़ी बात तो यह है। क्योंकि उलूलजुलूल बातो में कोई लक्ष्य तो मुझे भी नहीं दिख रहा। देखो आगे क्या लिखूं कोई नक्की नहीं है, ऐसे ही लौटना हो तो आप भी लौट सकते है। यही सब फालतुगिरी चलने वाली है शायद।
चलो गंभीरता की ओर चले। (गंभीरता आपको ढूंढनी है, मिले तो..)
हमारी समाज व्यवस्था में एक बात गजब थी। यह तो भला हो टीवी सीरियलों वालो का जो कुछ सुधार आया है। पहले क्या होता था कि मानो लो दो बूढ़ा-बूढी है। (यह थोड़ा भ्रामक है, बूढ़ा बूढी लोग दो है, कपल एक) अब बूढ़ा बीमार हुआ, हॉस्पिटल में भर्ती हुआ। लोग खबर पूछने आए, तो बुढ़िया पहले तो अपने सर पर घूंघट ठीक करेगी, फिर थोड़े भावुक स्वर में कहेगी, "देखो न, डाक्साब आए थे, अब तो कहा है की जल्द ठीक हो जाएंगे। दो दिन से तो ऐसे खटिया में पड़े थे की दिखते ही नहीं थे, शरीर सूख गया था बिलकुल। अब तो फिर भी दिख रहे है, सेब के दो टुकड़े खाए है।" और फिर आँखों से बहते पानी को सर पर रखे पल्लू से पोंछेगी और फिर दांतो में दाब देगी। मतलब अब कुछ और पूछा तो जोर से रो सकती है। फिर खबरपूछने वाले थोड़ा हूँफ-दिलासा देते है।
अब मानो बुढ़िया बीमार हुई, हॉस्पिटल में भर्ती हुई, तब बूढ़ा हॉस्पिटल में निचे कम्पाउंड में टहलता बीड़ी फूँक रहा होता है। और रिस्तेदार खबर पूछने आए, "चाची कैसे है अब, क्या हुआ ?" तब बूढ़ा पहले तो अधबुझी बीड़ी को फिर से चेताएगा, एक लम्बी फूंक खींचकर फिर गला खखेरते बोलेगा, "उँह ! ऊपर आठ नंबर खटिया पर पड़ी है। डाक्साब के जवाब का इंतजार है।" फिर रिश्तेदार पूछता है, "आपको क्या लगता है ?" तो बूढ़ा बीड़ी को बुझाते हुए, "देखते है।" अब देखते है में बीड़ी को बुझती हुई देखनी थी। देखने से ऐसा लगता है की कितना बेफिक्रा बूढ़ा है, पर वह बूढ़ा वास्तव में व्यक्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसे समाज ने ही सिखाया है की अब तेरे राम भजने की उम्र है, कहाँ तू इस जंजाल में फंसा पड़ा है। इस लिए वह अपनी निःरसता जताता है। वास्तव में तो उसे भी पता है की बुढ़िया थी तो समय पर रोटियां तोड़ लेता था, अब बहुओं के राज में मर्यादा के नाम पर उसकी समयसारिणी सबसे पहले सरकेगी।
होता ऐसा ही है कुछ व्यवस्थाओं में। लेकिन कोई भी व्यवस्था सदा के लिए नही टिकती, उसमे भी नए संस्करण कुछ सुधार के साथ होते रहते है।
***
यह खुला मैदान, पटाखों के प्रतिध्वनित होते निनाद, और कई सारे झींगुर.. पता नही कितनी मादा को आकर्षित करने के लिए झीं... झीं.. की आवाजें किए जा रहे है। दूर एक लकड़ी की फैक्ट्री में कोई कील ठोक रहा है, उत्तर, पूर्व में अंधेरा है, और दक्षिण पश्चिम में दीवाली के आगमन का स्वागत करती रंगबिरंगी लड़ियाँ गिरगिट से तो कई तेज अपने रंग बदल रही है। अब मौसम इतना मस्त गुलाबी है तो लिखनेवाले को क्या चाहिए? एक प्रेरणा, एकाध सिगरेट और थोड़ा विरह। अच्छा, यह विरह है न, सबके पास थोड़ा थोड़ा होता है। जिसके पास न हो वो कल्पना करके भी विरह का दुखड़ा रो लेता है.. उदाहरण दूँ?
"प्रियंवदा ! शरद अपनी समाप्ति की और बढ़ रहा है। धीरे धीरे शर्वरी में शीतलता का पक्षपात बढ़ता जा रहा है। यह गुलाबी ठंड मुझे बारबार उस शिशिर की पहली भेंट का स्मरण कराती है। वह किशोरावस्था की पहली दृष्टि का मिलन, वो बैचेनी सी भी तो होने लगती है। एक अद्भुत आकर्षण, जिसे स्वप्न में कहाँ तक ले जाया जाता है वह तो कल्पना की भी समझ से परे होता है। और फिर आता है सदा से कथित प्रेम का शत्रु वियोग.. शाश्वत विरह.. चिरंजीवी विरह.. असह्य, निर्दय, और क्या क्या कहे, जो जो कहे वही विरह..! जब मनसपटल पर सतत विचरती रहे वह एक प्रतिछाया, एक मनोहर, रम्य छवि। वर्षोपश्चात भी उस छवि में, उस स्फटिक से मुखारविंद पर आयु की असर के किंचितमात्र चिन्ह नही उभरते। वह प्रथम स्पर्श, हाथ से हाथ का भूल से छू जाना.. सितार के पंचम सुर से उत्पन्न हुए राग बागेश्री-बहार के कंपनों से भी तीव्र कंपन उस एकमात्र भूलवश हुए स्पर्श ने किया था। उन चक्षुओं में देखी थी जो समुद्र सी अगाधिता, अवकाश की अनंतता, जलप्रपातों सा स्नेहसौहार्द, अद्रि सी अचलता आजपर्यंत विस्मृत हुई नही है, न हो पाएगी। यह विरह की पीड़ा नही है, वरदान है, जो मेरी ऊर्जा को कहीं एक स्थान पर केंद्रित कर रहे है। उस केंद्र में तुम हो मार्तण्ड सी प्रकाशित, और मैं ज्वलंत बुध सतत परिक्रमाधिन रहूंगा, नष्ट हो जाऊंगा, पर पथभ्रष्ट कदापि नही।