हमारा वो "तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा" वाला मामला है। || Now is the time of categories even in friendship..

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प्रियंवदा ! मेरे मित्रो का परिघ बहुत सीमित है। हमारा वो "तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा" वाला मामला है। मैं, प्रीतम और गजा हम तीन लगभग आजतक अपनी मैत्री को टिका पाए है। यूँ तो यौरक्वोट, इंस्टा पर कई सारे मित्र है, लेकिन अब का समय मित्रता में भी श्रेणियों वाला समय है। मैत्री मैत्री में भी कुछ न कुछ अंतर होता ही है, अब इस अंतर का विस्तृतिकरण तो नही करता पर यूँ समझो कि जैसे मित्रो का एक बड़ा ग्रुप है, उस ग्रुप में भी हम पांच-छह का अनुसमुह होता है, उन पांच-छह में भी तीन-तीन के और पेटासमुह होते है, और उसमे भी दो की मैत्री और गहरी होती है।



मैं अपनी ही बात करता हूँ। यूँ तो मैं, प्रीतम और गजा बचपन से पक्के वाले मित्र है, पर मेरी और प्रीतम की ज्यादा बनती है। जब प्रीतम गैरहाजिर होता है तब गजा उसका स्थान ले लेता है। लेकिन मेरी गैरहाजरी में उन दोनों का साथ मे होना देखा नही कभी..! अब हम तीनों का तो फिक्स है, बचपन मे स्ट्रीट लाइट्स को बस निशानेबाजी के चक्कर मे पत्थर से फोड़ने से लेकर युवानी में पहली सुरापान की बैठकी के बाद एक ही मोटरसायकल पर ट्रिपलिंग करके बस डिपो पर सिगरेट पीने जाना हो.. या फिर इससे भी ज्यादा हद बाहर कहूँ तो नशेमें धुत्त प्रीतम के कानों के पास एयरगन के पटाखे फोड़ने हो.. हमने क्या नही किया..! एक बार तो रात्रि में तीनों श्मशान गए थे, बस चींखते सियारों को देखने और भूत के साथ बीड़ी पीने.. ऐसा नही है कि डरते नही थे, जब सियारों का झुंड बहुत नजदीक पहुंच गया तब उन्हें पीछे आता रोकने के लिए पथ्थर मारते हुए भागे भी थे..! बस भूत को नही देख पाए थे, क्योंकि तीनो साथ मे थे, और तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा.. किशोर से युवावस्था के संधिकाल में क्या होता है, यही सब उटपटांग साहस के नाम पर बेवकूफी भरी हरकते..!


फिर थोडे और बड़े हुए। प्रीतम अपनी प्रेमकहानीयो में लग गया, गजा को सुरापान से प्रेम हो गया और मैं.. मैं चला गया वडोदरा। साल में सिर्फ एक बार लौटना होता था। तभी प्रीतम और गजे से मुलाकात होती। बचपन की मैत्री, और किशोरावस्था की गाढ़ता पर अचानक ही ब्रेक लगी। मुझे वडोदरा के सेव-उसल के सिवा कुछ रास न आया। मैं वापिस अपने शहर को लौट आया। अब नवी नवी युवानी फूट रही थी, वो होता है न एक नवीन दिशा में साहस खेड़ने का मन.. वडोदरा में तो उस साहस से पाला न पड़ सका, यहां संभावना थी क्योंकि वह गाना मेरे लिए सही था, "घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही.. रस्ते में है उसका घर.." 


देखो एक होता है जिगर, उससे आगे होता है (गुजराती में) छाण.. अब इसका शाब्दिक अर्थ न ही समझो तो अच्छा है। इस मामले में जिगर था, छाण नही। मैं वहां कच्चा था, या हूं। मुझे बड़ा शर्म भाव होता है लड़कीं से रूबरू बात करने में। हाथ कांपना, कपाल से पसीनो की रेल छूटना, सामने आंखों में देखने के बजाए इधर-उधर देखना। तो मोहिनी के मोह में मैं आसक्त तो हो चुका था, पर व्यक्त कैसे करे? साहस अपनी जगह, लेकिन यह अभिव्यक्ति आबरू से जा टकराती है सीधी। उन दिनों कीपैड मोबाइल की बोलबाला थी। नोकिया की N सीरीज़ की तूती बोलती थी। मुद्दे से भटक गया। हाँ तो अब मोहिनी की ओर से भी सहमति तो जान पड़ती थी पर लड़का होने के नाते पहल तो मुझे ही करनी थी। यूँ लिखने में तो तब भी मैं चालबाझ था, पर बोलने में तब भी कंजूस, और आज भी कायर। खेर, अब समस्या विकट थी। समय भी सरता जाता था, वह भी सोचेगी की क्या आइटम है, कुछ कहता ही नही, बस घूरता रहता है। तब जाकर मुझे ख्याल आया कि प्रीतम का मुंहफटपना आज ब्रह्मास्त्र सा काम करेगा। बड़ी ही झिझक के साथ मैंने प्रीतम को अपनी व्यथा सुनाई.. और प्रीतम ने सहजता से कहा, "बस इत्ती सी बात, अभी किये देता हूँ.." प्रीतम गया, अपने प्रितमपने की जिह्वा का कुछ तो जादू बिखेरा और मेरा फोन नंबर उसे दे आया।


दो दिन क्या असमंजस में और एक विचित्र खाजभरे बीते है! जब पहली बार उसका फोन आया। समस्या यहां थी कि मैं अकेला नही था जब उसका फोन आया, कुछ मित्र और वडील साथ मे थे। अब पहला फोन काट दूँ तो जिह्वा कटे, और उठा लूं तो हाथ.. फिर भी मैंने होगी वह देखी जाएगी सोचकर उठा ही लिया। गला कांप रहा था उस दिन.. हेलो की जगह मुंह से निकला "हाई", और मेरे कानों ने फोन से आती आवाज के बदले पीछे वडिलो के स्वर सुने जो किसी ने कहा कि "यह किसको 'हाई' कह रहा है?" ह्रदय तीव्र गति से धबक रहा था, अब पकड़ा जाऊंगा, तब पकड़ा जाऊंगा, यह लोग मेरे घर पर बता देंगे, "आपके लड़के को जवानी फूट रही है.." फिर भी कुछ होंश सम्हालते हुए फोन की उस मधुर कंठध्वनी से थोड़ी औपचारिक बाते की। और बाद मैं फोन करता हूँ कहकर एक और गलती दोहरा दी, फोन काटने से पहले कह दिया "बाय"। आज तो हाई और बाय सामान्य है, पर छोटे शहरों में कीपैड फोन वाले जमाने मे सामान्य न था।


लगभग महीनेभर चले इस मोहासक्ति के पाश को एक दिन प्रीतम ने ही तोडा... प्रीतमने ही तार जोड़े थे, उसी गधे ने तोड़ भी दिए। हुआ कुछ यूँ की लगभग दशहरा का दिन था। दशहरा मेरे लिए बड़ा त्यौहार है। हम शाम को प्रीतम का कुछ काम निपटाने बाजार गए थे। पुरे रस्ते मैं और मोहिनी फोन में बाते करते रहे, प्रीतम का काम भी पूरा हो गया, तब भी फोन चालू का चालू। अब हम घर को रिटर्न हो रहे थे तब भी फोन चालु। प्रीतम झल्ला गया। मोटरसायकल साइड में रोकी, चींखते हुए बोला, "तू नक्की कर ले, तुझे मेरे साथ रहना है या उसके? तू घूमता मेरे साथ है लेकिन होता उसके साथ है।" वो दोस्त दोस्त ना रहा वाली मोमेंट समझ लो। यार बचपन का दोस्त, उसका मन रखना भी जरुरी था। तो मैंने मोहिनी को प्रीतम के सामने मेसेज कर दिया की आज के बाद मुझे फोन मत करना। प्रीतम तो राजी हो गया पर अगली ने सच में मुझे इग्नोर कर दिया। अबे एक मेसेज मात्र से बाते कौन बंद कर देता है ? अब इस दोषारोपण का ठीकरा मैंने प्रीतम के सर फोड़ दिया। वो अवस्था ही ऐसी होती है न। पुराने मित्रो से अधिक भाव लाभ कुछ नए स्थापित हुए सम्बन्ध पाते है। मैं प्रीतम से नाराज हुआ, रुष्ट भी, उसीके कारण मेरा और मोहिनी का वियोग हुआ, पापी प्रीतम..!!! बहुत क्रोध था मेरे मन में की न मैं प्रीतम के साथ उस दिन बाजार जाता, न उसके साथ फोन में व्यस्त रहता और न ही प्रीतम मुझे उससे बाते बंद करने को बोलता। सब प्रीतम की ही गलती दिख रही थी। लेकिन उस मोहिनी का क्या? उसने बस एक मैसेज के ही कारण बोलना बंद किया होगा? क्या पता, किसे पता? सिर्फ उसे ही पता होगा। लगभग दो-तीन दिन मेरी और प्रीतम की बोलचाल बंद रही। दिख जाए कि सामने से वह आ रहा है, तो हम दोनों ही रास्ते बदल दिया करते। इस दरमियान गजा बड़ा कन्फ्यूज़ था की इस जुगलजोडी में दरार कैसे आई। अब दो दिनों के मनोमंथन से एक बात तो मुझे बड़ी स्पष्ट समझ में आ गई की, दोष प्रीतम का तो नहीं है। उसे भी तो मेरी मैत्री की जरूरत थी। मैं उसके साथ होते हुए भी उसके साथ न था, इसी कारण से उसे वह बात खलने लगी की बचपन से जो साथ है उसे वह दो दिन की कोई नई पहचान अपने साथ कैसे ले जा सकती है। फिर भी प्रीतम ने तो मुझे काबू में रखने के लिए ही कहा था। पर मैंने प्रीतम का मान रखने के लिए कुछ ज्यादती ही कर दी थी। 


दोस्ती वही होती है जो दो दिन पश्चात सब भूलभालकर जैसे थे वैसे कर दे। दो दिन बाद मैं और प्रीतम बिलकुल वही पुराने वाले अंदाज में आ चुके थे। फिर किसी दिन बैठकी के दौरान प्रीतम ने पूरा मामला उत्साहपूर्वक गजे को बताया। वो दिन और आजका दिन, प्रीतम और गजा आज भी कई बार मोहिनी का जिक्र कर मेरी टांग खींचने से चूकते नहीं।


देखो ! मैत्री का जो भाव है न, वह शाश्वत है। किसी भी परिस्थिति में फंसे हो या आबाद हो, मैत्री सदा ही साथ रहती है। हमे मित्रो से रुष्ट होते है तब भी मैत्री ही छिप कर पश्चाताप का भाव उत्पन्न करती है। और उस पश्चाताप के ताप में तप कर मैत्री कुंदन बन जाती है। सम्बन्ध और प्रगाढ़ हो जाते है। मित्र में कितनी ही बुरी आदत हो, हमे बुरी नहीं लगती। प्रीतम आज भी सुरापान के पश्चात कान से कीड़े गिरने लगे ऐसी भाषाप्रयोग करता है। पर फिर भी मैं रात के लेट से लेट तक भी उसकी स्थिति ठीक होने तक राह देखते बैठता हूँ, और उसके लड़खड़ाते शब्दों को एक कान से दूसरे कान तक का रास्ता साफ़ रखता हूँ। मैत्री में हमने जो भी किया हो वह गिनाया नहीं जाता, याद किया जाता है। मित्र-विरह भी तो होता है, बड़े बड़े कवियों ने मित्र विरह में मरसिये लिखे है। मैत्री वास्तव में कभी कभी व्यसन सी भी मालुम होती है, एकबार के लिए घरवालों से दूर होना पद जाए पर मित्रो से? नहीं रह पाते ! क्योंकि मैत्री का सम्बन्ध हमने स्वयं ने स्थापित किया था, अन्य सारे सम्बन्ध हमारे जन्म से निश्चित होते है लेकिन मैत्री का संबंध नहीं होता, वह स्थापित किया जाता है, इसी लिए मैत्री की सीमाए होती है। परिघ होता है, बंधारण होता है। समान चित्त होता है, समान पसंदगी होती है, समान विचार होते है। 


चलो यार ! कुछ ज्यादा ही भाषणबाजी हो गई। फिर मिलेंगे.. कहीं किसी और बात पर किसी नए पन्ने पर..


|| अस्तु ||


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