प्रियंवदा !
त्योहारों की साम्राज्ञी दीपावली बस अब कुछ दिन ही दूर है। हर्ष और खुशाली सर्वत्र छाई है, नूतन उमंग ही दिखाई पड़ता है। ऋतु अपना नया रंग लेकर तैयार खड़ी है। मेरी प्रिय सर्दियाँ लौट रही है, असह्य उष्णता से तप्त को शाता प्रदान करने। लोग भी अपने घर को लौट रहे है। और तुम ! तुम्हे भी लौटना चाहिए? यूँ तो तुम सदा ही मेरे स्मृतिपटल पर एकछत्र बनी हुई रहती हो.. पर फिर भी, याद होना और साथ होना, फर्क तो है।
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एक बात तो तय है, दोष देखना, और दोष गिनाना कितना सरल है, पर उन दोषों या क्षतिओं में सुधार के प्रति अग्रसर होना जरा भी आसान नहीं है। सहानुभूति भी व्यक्त करनी आनी चाहिए, तुम अपने मन में किसी की पीड़ा समझ सकते हो पर उस पीड़ा को तुम्हे उसके सामने व्यक्त भी तो करनी होगी, अन्यथा तुम उसके लिए पत्थर हो, स्थितप्रज्ञ पथ्थर। हम सोचिन हय कि हर बाधा, हर अड़चन अपने साथै समाधान लइके आवत रहे। कउनो बिकट प्रश्न हय तो उ का उत्तर भी कहीं न कहीं तो जरूर ही छिपा रहिन। वैसे यह बात भी बिल्कुल सही है कि आज सहानुभूति, और ध्यानाकर्षण सब ही चाहते है, कोई भी इससे अछूता नही है, न मैं, न तुम।
प्रियंवदा ! रात्रि के बारह बज रहे है। मैं अभी भी शुन्यमन्स्कता की स्थिति से उबर नही पाया हूँ। दोष मेरा ही है। जब लक्ष्य केंद्रित है, सरसन्धान किया हुआ है, तब मेरे उस लक्ष्य संधान के समय कोई न कोई ध्यानभंग कर ही जाता है। वही दोषारोपण की बातें.. अर्जुन बनना आसान थोड़े है? अज्ञातवास के समय पांडवो ने अपने शस्त्र शमीवृक्ष पर छिपाए थे। ऐसा क्यों किया होगा? छुपाने की तो और भी कई जगह होती होगी। फिर भी एक वृक्ष, सामान्य से वृक्ष, सदैव सबकी दृष्टि में पड़ने वाला वृक्ष ही क्यो? एक तर्क यह भी हो सकता है कि जो वस्तु सामने है, जो हाथ मे है, जो पास है, उसका मूल्यांकन करने में चूक हो जाती है। हर कोई करता है, जो है उसकी किम्मत नही है, जो नही है उसकी कामना मन छोड़ता नही है। और फिर उस कामना से उदीप्त हुई ऊर्जा कुछ नए ही समीकरणों का निर्माण करती है जिसका परिणाम कभी भी हमारे वश में नही होता। और हो भी क्यों?
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लो प्रियंवदा जी ! आ गई धनतेरस.. सवेरे भरपूर गिरी औंस के बाद वातावरण तो गर्म है की लेकिन आज अखाद्य बिस्किटों की मांग से बाजार भी गर्म है, चारोओर सिक्को की खनक गूंज रही है..! और मैं.. अपना सदैव से निश्चित, और स्थायी स्थल है ऑफिस.. एक समय था जब त्यौंहारों के प्रति उत्सुकता रहती थी, आज उस उत्सुकता में कमी जरूर है। क्योंकि हम पर जिम्मेदारियों का अधिक बोझा डाला गया है। या फिर हम स्वयं से ही उस बोझे को ढोते जाते है। दीपावली पर नई वस्तुओ को अपनाते है, पुराने को त्याग देते है। कुछ वस्तुए, कुछ बाते ऐसी होती है जो लगती है की कभी पुरानी होती ही नहीं है। क्योंकि वही ही तो होती है जो प्रेरणापद पर चिरस्थायी बनी रहती है। लेकिन कुछ बाते ऐसी भी होती है जो हम नजरअंदाज कर जाते है। उदाहरण दूँ ?
जैसे की आज रिल्स के जमाने मे हर कोई ज्ञानी है। इधर-उधर चारोओर ज्ञान की उल्टियां बह रही है। टुंडेकबाब जितने कुंडलिनी जागृत करने का ज्ञान बांट रहे है। लंगड़ा ठीक से चलने की सलाहें दे रहा है। एक वो आती है tv पर त्याग और अपरिग्रह पर भाषण देने वाली सुंदरी साध्वी, ढाई लाख का पर्स कंधे पर टाँगति है। एक महान कथाकार है, झोंपड़ी में रहते है, लेकिन झोंपड़ी में तप करते समय उत्पन्न होती शारीरिक उष्णता के शमन हेतु ac लगवाए है। अब मैं नाम ले लेकर कहूंगा तो बात कहां पहुंचेगी वह भी नही कह सकता। यह जो दोगलापन है न वो सबमे होता है, कोई प्रकट करता है, कोई नही करता। अब मैंने भी इस अनुच्छेद में ज्ञान ही बांटा ना? प्रियंवदा ! संसार वास्तव में सुई की नोंक पर खड़े रहकर तप करने समान है।
चलो यार धनतेरस है, मुझे भी एक सिक्का चाहिए है.. मैं जाता हूँ.. स्वर्णकारों को सराहने, और बढ़ते दामों पर कुछ बतियाने। ठीक है.. मिलेंगे फिर नए पन्ने पर..!