"जिन-बहादुर गाथा" || Just Office things...

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अरे आज का तो क्या दिन गया है ! सवेरे से माता लक्ष्मी आ रही है, जा रही है.. और चार बजे के बाद तो कब अँधेरा हुआ है.. कुछ पता ही नहीं चला.. अभी शाम के साढ़े सात बज गए..! काम हो, व्यस्तता हो तब तक तो सही है लेकिन काम के साथ साथ तनाव भी हो तब लगता है की कहाँ फंस गए है। खेर! इसी को जीवन कहा जाए, जहाँ सब कुछ होता है, सब कुछ चलता है, सब कुछ चलाना पड़ता है। अच्छा जब तनावपूर्ण काम हो, AC में भी पसीने बह रहे हो न तभी हमारा बहादुर बोतल से जिन की माफिक प्रकट होता है। एक तो वह ठहरा नेपाली, ऊपर से इतनी स्पीड से बोलता है कि लगता है, जैसे बुलेट ट्रैन स्टेशन पर स्टॉप लिए बिना गुजरी है। सवेरे मैं ऑफिस पहुँचता हूँ, वह मेरे ऑफिस में घुसते ही रेल दौड़ा देता है, "अदरक नही है, पैसे दो.." अब सुबह सुबह जाळ तो मन मे खूब उठती है पर मैं शांति रखते हुए उसे पैसे दे देता हूँ। आज धनतेरस को ज्यादातर काम बंद हो गए है, हमारा भी बस तैयारी में ही था, अब सीधा चार तारीख, सोमवार से ऑफिस शुरू होगा, अर्थात काम शुरू होगा, हमारा तो ऑफिस जाना तय ही है। तो आज आठ गाड़ियां इकट्ठी लग गई। धड़ाधड़ बिल्स बना रहा था मैं, तनाव का कारण था कि सात बजे के बाद बिल्स नही बन सकते, और अगर कोई बिल नही बना तो गाड़ी चार नवम्बर तक खड़ी रह जाएगी, ड्राइवर की दीपावली बिगड़ेगी। काम का भार खूब था और हमारा जिन तभी प्रकट हुआ, "मैं पंखा सफाई करेगा। टेबुल के ऊपर सड़ेगा तो कास तो नही टूटेगा?"



इतनी जल्दी वह बोल गया कि मैंने सिर्फ "हें?" ही पूछा।


"शेठ बाला ऑफिस में पंखा सफाई करेगा, टेबुल के ऊपर सड़ेगा तो कास तो नही टूटेगा?"


ऑफिस टेबल पर कांच का शीशा है। अब उसे पंखा साफ करना था तो पूछ रहा था कि टेबल पर चढ़ूंगा तो शीशा तो नही टूट जाएगा? हालांकि मैं भी उसके तीसरी बार पूछने पर ही समझ पाया था। 


"शीशे पर चढ़ेगा तो टूटेगा ही..! स्टूल ले आ, और उसके ऊपर चढ़ के साफ कर ले पंखा।" आखिरकार समझ आने पर मैंने कहा।


"ओ इस्टूल कौन ले गया, मालूम नही। सार-पांस दिन से दिखाई नई देरा।"


"ऐसे कैसे चलेगा भाई? कल को ऑफिस मैं से कोई कुर्सियां ले जाएगा तब भी तू यही कहेगा कि मालूम नही? जा अभी स्टूल ढूंढ के ले आए पहले।" मैंने अपने बिल्स बनाना जारी रखते हुए ही कहा।


"ओ उधर मील में, ओर ओ लेबरों के रूम में भी देख के आया, इस्टूल किधरी नई है।"


अब इससे कौन उलझे, मैंने दूसरे आदमी को इसकी हेल्प में लगा दिया.. वाकई आइटम है यह बड़ी वाली। इसको बेग लाने को बोलो तो चाय ले आता है। पानी मांगों तो पूछता है, "पानी पिओगे?" अबे पीना था इसी लिए तो मांगा था.. बोलता इतनी तेज है कि समझ मे न आए, और अपनी कही सुनता भी नही है। बस छोटी छोटी आंखों से देखता रहता है, लेकिन लगता ऐसा है जैसे घूर रहा हो। अब अपने को भी मन मे ख्याल आता है कि कहाँ ठेठ नेपाल से इतनी दूर यहां भारत के पश्चिमी छौर पर पड़ा है, यूँ तो दया भी आती है, और सुनता नही, समझता नही तब क्रोध भी। 


शुरू शुरू में इसकी चाय का टेस्ट कुछ अलग ही आता था। फिर एक दिन इसको बुलाकर पूछा मैने कि, तू चाय में क्या डालता है? काली मिर्च जैसा कोई मसाला था, वो कूटकर डालता था। तो मैंने पूछ लिया कि है क्या यह, उसने कुछ नाम बताया पर मैं भूल गया। बस इतना याद रहा कि "इससे पेट में गैईस नही बनता।" अब वास्तव में तो उसे पेट के गैस की तकलीफ है, लेकिन सारी ऑफिस को 'गैईस' मिटाने वाली चाय पिलाता था वो।


एक दिन तो इस जिन-बहादुर ने गजब ही ढा दिया। शेठलोग का घर से टिफिन आया था। अब बनियो का टिफिन भी अलग टाइप का रहता है, अलग अलग डिब्बो में सब आइटम आती है। रोटी का अलग, चावल अलग, कढ़ी अलग कंटैंनर में, मतलब कि छह सात अलग अलग डिब्बे। बहादुर ने तो प्लेट में सब तैयार कर के दिया, प्लेट में चावल, चावल के बाजुमें पनीर की सब्जी, कटोरी में कढ़ी, उड़द के पापड़ के चार टुकड़े कर के प्लेट के एक कॉर्नर में रखे, टमाटर और ककड़ी का सलाद, और छाछ का गिलास भरकर रखा। बनियो ने खाना खा लिया, भोजन के ऊपर मीठे के लिए गुलाबजामुन दो-दो पीस दबाए। बनियो ने हाथ धोए ही थे कि जिन-बहादुर प्रकट हुआ हाथ मे रोटी का डिब्बा लिए और बोला "अरे ए रोटियां तो मैं देना भूल गया.."


बाद में हमने जो ठहाके मारे है..बात जाने दो। अगलो ने यह सोच के कढ़ी चावल के साथ पनीर की सब्जी चुपचाप खा ली कि रोटियों भरा डिब्बा घर पर ही रह गया होगा।


कई बार यह थोड़ा डेढ़ हुशियार भी बन जाता है। होता क्या है कि थोड़े थोड़े समय पर कुछ रद्दी फाइलों और कागझो का ढेर हो जाता है। तो इसे कह देता हूँ कि यह सब जला देना। अगले को समझ नही आया तो बोला, "झलाना क्यों है, ऐसे ही बाहर फेंक दूँ तो?" तो मैंने इसे प्यार से समझाते हुए कहा कि "ऑफिसों में कागझ फेंके नही जाते, जलाए जाते है। क्योंकि इसमें बैंकिंग से जुड़े कागजात भी होते है।" उसे बाकी तो कुछ समझ नही आया लेकिन मुद्दा समझ गया कि आगे से कागझ फेंकने नही है, जलाने है। अब मेरी आदत थी कि जो फाइलें और कागझ जलाने होते है वे मैं उसे बुलाकर कह देता हूँ कि यह जला देना, और टेबल पर रख देता हूँ। अब एक दिन इसने टेबल पर से अपने आप एक टेक्स फाइल उठा ली और जला दी। मुझे पता नही मैं शाम तक खोजता रहा कि फाइल किधर है। अब अपने को तो सपने में भी ख्याल नही था कि ऐसा भी कुछ संभव हो सकता है कि आदमी बिना कहे कुछ काम सामने से कर दे.. आखिरकार बहुत ढूंढने पर भी फाइल नही मिली तो मैंने बहादुर को बुलाकर पूछा कि, "वो केसरी रंग की पतली वाली फाइल देखी है कहीं?"


"कोनशी?" उसने पूछा।


"अरे वो जो यहां टेबल पर ही रखी थी मैंने कल शाम को।"


"हाँ ! ओ मेने झला दी।"


"हैं ! जला दी मतलब? किसने बोला था तुझे?" मेरे तो अंग अंग में आग उठी।


"ओ आपने टेबल पे रखी थी, मुझे लगा झलानी है, तो झला दी।"


बस किसी दिन ऑफिस न फूंक दे इसी बात का डर बना रहता है। यही जीवन है प्रियंवदा.. इसे बस छोटी छोटी बातों में से ढूंढना होता है।


|| अस्तु ||

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