प्रियंवदा ! आजका दिन ऐसा है कि लगभग पूरे गुजरात मे आज कोई भी उजियारा होने से पहले और अंधेरा होने के बाद कहीं निकलेगा ही नही। अगर निकलेगा तो वह एकदम चौकस और पूरे ध्यानपूर्वक चलेगा, या वाहन चलाएगा। आज के दिन शाम के बाद चौराहे पर तो सिग्नल लाइट की भी जरूरत नही है, लोग स्वयं से चौराहे पर रुक जाते है। पहले ठीक से देखते है चौराहे के बीचोबीच कुछ है तो नही? अगर कुछ है, तो वह बड़े ध्यान से उसकी और देखे बिना थोड़ी दूरी बनाकर धीरे से निकल जाएगा। जहां बाकी भारत मे दीपावली से एक दिन पूर्व छोटी दीपावली के नाम से मनाया जाता है वहां गुजरात मे वह दिन "काली चौदस" कहा जाता है। कुछ अत्यंत-विश्वासी (सबका ही) लोगो का मानना है कि इस दिन घर से 'ककळाट' निकालना होता है। अब ककळाट ठेठ गुजराती शब्द है, ककळाट का शाब्दिक अर्थ तो होता है कोलाहल, या शोरशराबा। लेकिन यहां काली चौदस के दिन ककळाट गिना जाता है नजर लगी हो, और घर मे अशांति छाई हो उस तात्पर्य में। (अब क्या करूँ, ककळाट का हिंदी शब्द मिला ही नही।) खेर, स्त्रियां बाजरे के आटे का छोटे छोटे ढेबरा (अब ढेबरा की व्याख्या नही करूंगा, स्वयं गूगल कर लो) बनाती है। संध्या होते ही, सूर्य के अस्त होने बाद जैसे ही अंधेरा हुआ, कि सारे चौराहों पर कोई देख ना ले इतनी चपलता पूर्वक स्त्रियां इसे चौराहे पर रख आती है। जरूरी नही की स्त्रियां ही जाए। बच्चो को भी भेजती है, ऊपर से समजा-बुझाकर भेजती है कि चौराहे पर रख देने के बाद पीछे मुड़कर मत देखना, नीचा सर करके घर चले आना चुपचाप। अगर पीछे मुड़कर देख लिया तो ककळाट वापिस अपने घर आ जाता है।
अंधश्रद्धा लगती है, है न? अब इसका लॉजिक देखो। ढेबरा रखकर आने का अर्थ है घर मे सालभर से हुई अशांति को त्यागना। ढेबरा रखने के बहाने अपने मन के दुर्भावों को त्यागकर आने वाले नूतन वर्ष तथा त्योहारों को हर्षोल्लास से मनाना। सर्व व्याधि, संताप को पीछे छोड़कर, दीपावली पर नूतन शरुआत करनी। दीपावली के दूसरे दिवस, जब विक्रम संवत बदलता है, नव वर्ष की मंगलप्रभात से कुछ नया, आनेवाला साल हर्ष मंगल पूर्वक बरसे उसीकी कामना करना। यही तो त्योहार है। दीपावली के दूसरे दिन नए विक्रमसंवत के प्रथम दिवस लगभग सभी ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि से निवृत होकर एक दूसरे के घर जाते है। सम्भावना हो तो शत्रु से भी शत्रुता भुलाई जाती है। अरे दो दिन आगे चला गया मैं, काली चौदस की महत्ता बहुत है, अच्छी वाली तो आपको बताई जिसे अंधश्रद्धा के नाम मे खपाई जाती है ढेबरा के स्वरूप में। अब बुरी वाली सुनिए।
काली चौदस का दिन त्योहार होने के बावजूद त्योहारों की दुनिया का वह अभागा त्योहार है जिसे लोग कोसते है। क्यों? क्योंकि सालो से कोई न कोई अघोरी या तांत्रिक इसी दिन श्मशान में बैठा तांत्रिक विधियां करता है। काली चौदस की रात्रि को श्मशान जाना तो दूर आजभी लोग नाम से ही थरथराते है। मित्रो में किसी को परेशान करने या उसकी बहादुरी का मापदंड निर्धारित करने के लिए कालीचौदस की रात्रि को श्मशान में अकेले जाने शर्त लगा करती है। मैं भी गया था, लेकिन मैं भी अकेला नही था, हमारी तिकड़ी (मैं, गजा और प्रीतम) साथ मे थी। कुछ नही, श्मशान के ठीक ऊपर पत्थरो से बना अंग्रेजकालीन पुल है, हम गए, वहां बीड़ी पी और चले आए। हालांकि कुछ दिनों बाद गांव में अफवा सुनने में आई थी कि काली चौदस की रात्रि को किसी ने श्मशान वाले पुल पर बीड़ी पीता भूत देखा था। खेर, लेकिन यह तंत्रविद्या में कालीचौदस का खूब महत्व है यह तो निश्चित है। मैं जब वडोदरा था, तब एक बार घर जाते समय बस स्टेशन पर किताबो की दुकान पर एक बुक दिखी "शाबर मंत्र" कुछ पन्ने पलटे और बस छूटने की जल्दबाजी में खरीद ली। बस में बैठकर पढ़नी शुरू की तो आंखे खुली की खुली ही रह गई। कितने प्रकार की विधियां, कई प्रकार के अनुष्ठान, स्थानादि का वर्णन, मंत्रो का विवरण, उच्चारण की रीति, ग्रह नक्षत्रादि स्थिति अनुसार मंत्रजाप से सिद्धहस्त हुआ मंत्र और फिर प्राप्त हुई सिद्धि। सिद्धियां भी बड़ी ही विचित्र, वशीकरण से लेकर मारण तक। उड्डयन से लेकर कायावरोहण तक। उन सिद्धियो से जुड़े प्रसंगों का वर्णन, गोरक्षनाथ-मत्स्येंद्रनाथ, कामरू देश की साम्राज्ञी, और भी कई सारी बाते जिनमे यादशक्ति से लेकर ध्यान समाधि आदि की विधियां, और उन विधियों का आचरण में उतारने के उपाय.. बस उसे उस बस ट्रेवलिंग के दौरान ही पढ़ी। कुछ वर्षों बाद जब मोहनलाल अग्रवाल की पुस्तक 'अघोर नगारा वागे' पढ़ी थी, तब मुझे उस शाबर मंत्र का स्मरण हो आया था, मैंने अपने सारे दराज छान लिए, वह बुक कभी मिली नही। पता नही कोई ले गया है या वह भी किसी तांत्रिक ने अदृश्य कर दी मेरे नन्हे से संग्रह में से।
जो भी हो यह कालीचौदस का अपमान भी खूब होता है। हमारे यहाँ कोई ज्यादा परेशान करता है तो हम कभी कह भी देते है, कि "पक्का कालीचौदस की पैदाइश है यह तो.." या फिर मित्रों में अक्सर एक दूसरे को काली चौदस के दिन "हैप्पी बर्थडे" कहना हो, जो भी हो, इस एक दिन के कई सारे उपयोग तो है ही।
एक प्राचीन कथानक भी जुड़ा है इस काली चौदस से। कालीचौदस को नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। कथानक सुंदर है कि द्वापरयुग में प्राग्ज्योतिषपुर नामक स्थल पर एक नरकासुर नामक असुर का अत्यंत त्रास था। उसने सोलह हजार स्त्रियों को बंदी बनाकर उनपर यातना बरसाता था। उसे शाप था कि उसकी मृत्यु स्त्री के हाथ से होगी। पूर्ण पुरुषोत्तम कृष्ण ने अपनी पटरानी सत्यभामा के साथ गरुड़ पर सवारी करके आज कालीचौदस के ही दिन नरकासुर का उसके आठ पुत्रो समेत वध किया था, और उन सोलह हजार स्त्रियों को कारागृह से मुक्त कराया था। जब समाज ने उन स्त्रियों के प्रति सम्मान नही दिखाया तब कृष्णने जन सोलह हजार स्त्रियों से विवाह रचाकर द्वारिका की रानी होने का सम्मान दिलाया था। स्त्री सम्मान का इतना उत्कृष्ठ उदाहरण हमे और कहीं देखने को मिल सकता है क्या? नही, कदापि नही। इस लिए आज कालीचौदस का दिन स्त्री सम्मान का भी दिन है। स्त्री शक्तिस्वरूपा महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी को पूजने का पर्व है।