सच कहूं तो आज तो इसी लिए लिख रहा हूं, प्रतिदिन एक पोस्ट करने की एक पिछले कुछ दिनों की श्रृंखला भंग न हो जाए..! लगातार तो लिख नही पाया हूँ क्योंकि दो दिनों से कुछ पढ़ रहा था। और दीवाली आते आते ऑफिस में भी कुछ काम बढ़ जाता है, धड़ाधड़ पांच-पांच गाड़ियां लगती है, तो उनके हिसाब, बिलिंग्स में जब भी फुर्सत मिलती तो वह बुक पढ़ने लग जाता था।
खेर, आज फिर से प्रीतम से बात हुई, उसी बुक के विषय मे थोड़ी सांत्वना मैंने उसी से प्राप्त की..! बस आज नवरात्रि का अंतिम दिवस है, कल तो दशहरा है। शायद कल से इतने दिनों की लगातार की हुई अतृप्त निंद्रा को आराम मिले ? क्या पता।
कभी कुछ पढ़कर अगर लिखने बैठते है तो उसी विषय की प्रतिछाया विचारों में घूमने लगती है, भास होता है, कहीं हूबहू जो पढा वही न लिख बैठु?
आज दशहरा है। राम का रावण पर विजय.. क्षत्रियो की शायद तब से ही परंपरा बन गई है, युद्ध की प्रतिकृति करने की.. कल रात को २ बजे नवरात्रि समाप्त हुई, रात्रि बारह को गरबा पास ही तालाब में पधराया गया, शुद्ध मिट्टी मात्र के गरबे, अंदर भरा हुआ धान-अनाज, अनाज के ऊपर एक प्रज्वलित दिप, गरबा के ऊपर मिट्टी का एक ढकना, जिसमे कुछ प्रसाद.. एक साथ कई सारे दिप प्रज्वलित गरबे जब तालाब में तैरते है, ठीक उसी प्रकार लगता है जैसे पानी पर कोई रास खेल रहा हो..! भवानी का प्रतीक स्वरूप तलवार आज नौ दिनों बाद मुक्त हुई। मुक्त तो क्या हुई कदाचित फिर से सालभर के लिए दीवार पर टंगने के लिए सज्ज हुई। प्रातः उठकर स्नानादि से निवृत होकर, मा भगवती की आराधना की। तलवार को पानी तथा निम्बू मिश्रित रस से स्वच्छ किया। आद्यशक्ति के सम्मुख बैठकर दिप प्राकट्य, पुष्पार्पण, और तिलकादि विधि सम्पन्न की। दशहरे की तलवार की रौनक अलग ही दिखती है, या मुझे कुछ अलग ही अनुभूति होती है। यूँ तो साल में कई बार साफसूफ़ी के बहाने हाथ मे लेते है, पर दशहरा का हाथ कुछ अलग ही कंपन करता है। कुछ तो प्राकृतिक लगाव होता है। माना जाता है कि तलवार के पाने (मुठ के आगे धार वाला भाग) में कभी अपना मुख नही देखना चाहिए। सामूहिक शस्त्रपूजन का आयोजन था ही।
दशहरा का उत्साह भी खूब था, मैं सबसे पहले ही चौक में पहुंच गया था। धीरे धीरे सब इकट्ठे हुए, अब साफा बांधना मुझे ही आता है, आता तो और २-३ जनो को भी है लेकिन उन्हें मेरा बांधा हुआ ज्यादा पसंद है.. सोचने वाली बात है, जिनकी परंपरा रही है, साफा, पाघडी की उन्ही के वंशजो में यह कला विलुप्ति पर है.. जैसे कई सारे ब्राह्मण मंत्रो से दूर हो चुके है, ठीक ऐसे ही इस नए अद्यतन युग में वंशानुगत परंपरा का निर्वहन करना भी उतना ही कठिन हो चुका है। खेर, लगभग पचासेक साफे बांधे। तत्पश्चात शक्तिउपासना हवन, तत्पश्चात शस्त्र पूजा, और फिर पेट पूजा.. हाँ वो भी तो जरूरी है.. फाफड़ा-जलेबी.. दशहरे के दिन गुजरात में शायद करोड़ो रूपये के फाफड़ा-जलेबी का टर्नओवर एक मध्यम शहर में होता होगा..! बड़े शहरों में तो यह आंकड़ा और भी बढ़ता होगा। पेटपूजा के पश्चात नई ऊर्जा को सारे अनुभव करने लगे.. कोई बंदूके लहरा रहा था, कोई तलवारे, कोई भाले, कोई धारिया..! अब गुजराती आदमी किसी भी प्रसंग में रास को न जोड़े यह तो असंभव ही माना जाए। वही गरबा की धुन पर हाथो में तलवार लिए सब ने रास खेला। आधेडो ने अपने समय की तलवारबाजिया दिखाई, शायद यह दशेरा का दिन वास्तव में हमारे लिए तो शक्तिसंचार का ही दिन रहता है। वरना जो अधेड़ सालभर घुटनों के चलते टेढ़े टेढ़े चलते हो वे भी आज हाथ मे तलवार लिए कूदते देखे जाते है..! हालांकि मुझे लगता है इसका कारण है हमारी आस्था। सदैव से हमने तलवार को मात्र शस्त्र नही माना जो सिर्फ किसी को मारने-काटने को उपयोगी होती हो, हमने सदैव से उसे भवानी का स्वरूप ही माना है, वही परंपरा आज भी जारी है। उस शक्तिस्वरूपा को मस्तक से लगाते ही जैसे कोई परमचेतना जागृत होती है। हाथो में कंपन होता है, शरीर मे नूतन ऊर्जा प्रकटती है। और जैसे ही उसे म्यान की जाती है, मन कुछ बुझा बुझा सा लगने लगता है। यह आस्था ही है, जो एक चेतना से चेतना को जागृत कर जाती है। लगभग दोपहर १ बजे तक सब बस युहीं शक्ति के गुणगान तथा खेलते रहे।
बस फिर मैं भी अभी ऑफिस आ चुका हूं और अपने अन्य कामो में पुनः एक बार व्यस्त हो चुका हूं.! चलो फिर, मिलते है कल.. कुछ नया, किसी नए पन्ने पर..