आज इच्छा हो रही है नौकरी छोड़ दू... फिर करूँगा क्या ? यक्षप्रश्न है.. किसी एक विषय में तो मेरी श्रेष्ठता है नहीं.. हर जगह मुंह मारकर मुंह की ही खाई है। एक ही काम लगातार करते रहो फिर मन भर जाता है.. कुछ नया प्रयोग करने की तीव्र इच्छा होती है। या फिर जब किसी और से अपनी तुलना करते है तो खुद पर तरस भी आता है, की देख वो कहाँ है और तू कहाँ है..!!! संतोष नहीं है न जीवन में..! संतोष में एक ठहराव होता है। एक ही स्थान पर रुके रहने की चेष्टा और इच्छा दोनों ही होती है।
पुरानी कहावत है, "बुढ़ापा में केश बदले, लखण न बदले लाखा.." मतलब की कुछ लक्षण होते है जो जिंदगीभर नहीं छूटते...! किसी मित्र से अकारण ही बात बंद हुई हो तो फिर वह चालू होने में समय लेती है.. पहला झिझक के मारे सोचता है, "मैं क्यों पहले मेसेज करू.. उसने बात बंध की थी..!" और दूसरा सोचता है की, "मैं ही सामने से मेसेज क्यों करूँ ? वह भी तो कर सकता है.." और यह खींचतान चलती ही रहती है..! दोनों को पता है की क्या हो रहा है, क्या चल रहा है.. फिर भी दोनों जताते है कि, "तू इतना जरुरी नहीं है..!" अजीब है लेकिन सच है।
ऐसा भी होता है की कई बार हम अपना सन्देश कुछ उधेड़बुन भरे शब्दों के बिच में रखकर पेश करते है, ऊपर से आशा भी करते है की वह समझ जाएगा.. क्यों भाई..? वह क्या अख़बार में आते क्रॉसवर्ड का चैम्पियन है जो पर्यायवाचीओ को जोड़ जोड़ कर समझ जाएगा ? या फिर वह किसी जासूसी उपन्यास का हीरो है जो कोड्स को डिकोड करने का एक्सपर्ट है.. फिर भी कभी भी हम लोग सीधे सीधे बात ही नहीं करते..! अनघड़ उपवस्त्रो के निचे सुघड़ सन्देश छिपाकर भेजते रहते है। वह सन्देश ठीक किसी आपत्तिकाल में फँसी नाव के नाविक ने बंद बोतल में भेजे मददपत्र के समान है जो किसी के हाथ लग भी सकता है और नहीं भी..! अगर समझ आया तब तो ठीक है वरना सारी कल्पना तत्क्षण चकनाचूर हो जाती है।
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रात को फिर से नवरात्री ग्राऊंड के काम में लग गए...! दोपहर को दो ट्रेक्टर रेती ग्राऊंड में डलवाई थी, मैं पहुंचा तब तक में एक इलेक्ट्रिशियन चबूतरे पर एक led हेलोजन लगा कर चला गया था, लेकिन दूर था तो ग्राउंड पर इतनी लाइट्स नहीं आ पा रही थी, फिर क्या, वही कल की तरह जुगाड़ू लाइटबोर्ड्स लंबे किये..! शारीरिक मेहनत ही करनी थी। एक तो ट्रेक्टर ने उतारी रेती को ग्राऊंड में बिछाना था, दूसरा वर्तुलाकार में ८ लकड़ी के खंबे खड़े करने थे, लाइटिंग डेकोरेशन के लिए। पहले तो ग्राउंड का सेंटर लेकर वहीँ एक खंबा खड़ा किया। उसमे रस्सी बांधकर प्रदक्षिणा करते हुए वर्तुलाकार निशान बना दिया। पुरे एक साल बाद हाथ में कोस (हिंदी शब्द नहीं पता, लेकिन खड्डा खोदने के लिए लोहे का मोटा सरिया जैसा होता है।) ली। सालभर से कंप्यूटर का कीबोर्ड चला-चलाकर कुछ नरम हुए हाथ ने दो खड्ढे खोदने में ही छाले स्वरुप तमगा ले लिया। दूसरे लड़को को रेती बिछाने में लगाया था। लड़के कामचोर तो है थोड़े.. रात को गजे ने एक ठंडा मंगवाया.. और दो ट्रेक्टर रेती लड़को से पुरे ग्राऊंड में बिछवा दी। इसे कहते है सस्ते में मैनेजमेंट करना। रात के लगभग १ बजे तक सारे खंबे खड़े कर दिए थे। पूरा शरीर रेती-माटी हो चूका था, ऊपर से एक खड्ढे में लाल चींटिया निकली.. मेरा पूरा हाथ काट-काट कर लाल कर दिया। लगभग १ बजे तक की हुई अथाह परिश्रम के बाद सवा एक घर पहुंचा, नहाया। थकान खूब हुई थी, होनी ही थी, पिछली नवरात्री के बाद एक भी शारीरिक मेहनत का काम किया ही नहीं था। लेकिन निंद्रा अब भी न आई, अनिंद्रा का शिकार हुआ। लगभग पौने दो बजे तक गाने सुनता रहा।
(दिनांक : ३०/०९/२०२४, ०१/१०/२०२४, ०९:११)