मैं द्विमुखी बाते करता हूं प्रियंवदा.. किसी से स्पष्ट ना नही कही जाती। कोई काम बताता है, मन तो नही होता है करने का, पर ना भी नही कही जाती.. फिर हम उसे लबड़ाते है.. लबड़ाववु गुजराती शब्द है.. वही झूला झूलाते रहो.. आज हो जाएगा, कल तो पक्का.. परसो तो हंड्रेड परसेंट..! भाई खुद ही इतने उलझे पड़े है, दुसरो के काम की फुरसत किसे है यहाँ ? लेकिन अगले का मन रखने के लिए ना भी नही कही जाती..!!!
आज वाराणसी की गाड़ी लगी थी, शाम को बिल बनाते समय हुआ इसीके साथ चला जाता हूं बनारस.. वाकई मेरी सालो से इच्छा है बनारस जाने की.. घाट.. गंगा.. मणिकर्णिका.. रात-रातभर प्रज्वलित अग्नि..। नहीं ! रिल्स देखकर हुई हो ऐसी इच्छा नही है यह। लेकिन मेरी इच्छाओंकी आपूर्ति कभी हो नही पाती.. सालो पहले एक शॉर्टफिल्म देखी थी.. तब से बनारस मन में बस गया है.. गुजरात मे कहावत है, "सुरतनुं जमण, अने काशीनुं मरण"... सुरत का भोजन प्रख्यात है, जीते जी मोक्ष.. और काशी का मृत्यु.. सारे निर्वहनो से तत्काल मुक्ति..!!!
पैसा भी तो परमेश्वर है.. पैसे से क्या नही मिलता है? आबरू तक खरीदी जा सकती है। यह तो विचारकों के ख्याल है कि खरीदी हुई इज्जत इज्जत नही होती। अगला उल्टा लटका कर नीचे बांटिया सेक सकता है। मनी कांट बाय हैपिनेस ... हबीबी वेलकम टू...। भरम है सारे, प्रेम, संबंध.. सब कुछ.. बॉलीवुड के जन्माए खयाली पुलाव.. यार आज क्या लिखे जा रहा हूं मैं खुद नही समझ पा रहा हूं। निर्भरता.. या फिर ओवरथिंकिंग।
भीड़ में भी खुद को अकेला रखने में जब मजा आने लगे तो अच्छी बात है या बुरी ? मेरा भी मन कभी कभी गंजेडीयो की तरह देह त्याग कर कहीं चला जाता है.. जैसे गंजेड़ी को होश पूरा होता है, लेकिन फिर भी बेसुधी सी छायी रहती है.. मैंने भी एकबार किसी से चिल्लम ली थी.. साफी थी नही, हाथ-रुमाल लगाकर एक दम लिया.. एक ही बहुत था.. इतना समझ आया कि योगियो-ध्यानियों के काम की चीज है। एक ही लंबे दम के बाद भाई चले थे बाजार.. होश पूरा था लेकिन अतृप्ति सी अनुभव हुई थी मुझे तो.. कभी नही होती वह इच्छा उस दिन हुई, पानीपुरी खाने की..
अनुभव सब चीज के लेने चाहिए पर मर्यादा भी बनी रहनी चाहिए.. यह नही की भंड होकर बाजार सर लिए चलने लगो.. रहस्यवाद में मजा ही अलग है.. अगले के लिए तुम एक पहेली बने रहने चाहिए.. ना स्पष्टता से समझ पाए, न स्पष्टता से आंकलन कर पाए..! जीवन मे कई प्रसंग बनते है, कई मुलाकाते होती है, कभी कोई व्यक्ति सिरे से समझ नही आता तो कोई खुली किताब जैसा भी होता है, हर कोई पढ़ लेता है.. लेकिन पढ़नेवाला जज भी तो करता है.. अपनी मतिअनुसार आंकलन करना वही हुआ कि गधा भार ढोता है, गधा आलसी है, गधा लात मारता है, गधा तो गधा ही है..! लेकिन फिर भी गधे का एक नाम कितना सुंदर है, "वैशाखनंदन".. कभी भी कोई भी किसी का पूर्णतः आंकलन करने में असमर्थ ही रहता है.. बस कल्पना गढ़ सकते है कि ऐसा हो सकता है..!
बर्लिन मूवी जैसी जिंदगी हो चली है.. कभी ब्यूरो कूट रहा है, कभी विंग.. कभी समय कठिन है कभी संसाधन.. जब दोनों की सहमति हो तब इच्छा रामशरण हो चलती है। यह कुछ अति-आशावादी कहते है न की जीवन को प्रतिपल जीना चाहिए, एन्जॉय करना चाहिए, मुझे लगता है वे शायद जमा नवरे (गुजराती हूँ ना, नवरे का मतलब जिसके पास कोई काम ही नहीं) है.. जिसके पास कोई काम नहीं उसके पास एन्जॉयमेंट के अलावा क्या आशा रख सकते है.. प्रीतमने एक डायलॉग सिखाया था, यह उन नवरों को समर्पित, "हे नवरे आदमी कुछ काम किया कर, कपड़े उधेड़ कर फिर सिया कर.." फिर पता चलेगा काम का भार क्या होता है, तनाव (स्ट्रेस) कौन बला है, और जब निर्धारित समय का बंधन हो तब पता चलेगा की एक एक पल को कैसे एन्जॉय की जाए...!!!
अपना ऐसा ही है.. पूरब से शुरू करो तो पश्चिम की क्षितिज तक रुको ही नहीं.. किस विषय से लिखना शुरू किया था और किस विषय पर आ चूका हूँ.. कोई तो है जो इसे बहुआयामी लेखनी के नाम से सराहता है.. बाकी मुझे तो यह मेरा दिनभर का क्लेश आपके सामने प्रस्तुत कर मेरा बोझ हल्का कर आपके बढ़ने समान है..!