मोहनदास गाँधी और लालबहादुर शास्त्री दोनों की जयंती है आज..! सुबह से ऑफिस में इतनी व्यस्तता है, जैसे छुट्टी का दिन ही नहीं है। फिर भी लंच टाइम के नाम पर एकाध घंटा इधर-उधर होकर थोड़ी देर काम से फुर्सत पा लेते है।
* यह लेख थोड़ा क्रूर और घिनौना लग सकता है।
४-५ दिन पहले हमारी बीसेक लेबर अपने गाँव बिहार को लौटी..! अब दिवाली से इतने पहले जा रहे थे तो मैंने कारण पूछ लिया। पता चला की नवरात्री में उनका कोई त्यौहार होता है, कुछ पूजाविधि करते है और खस्सी चढ़ाते है। अब यह खस्सी मेरे लिए कुछ नया था, तो मैंने थोड़ा विवरण पूछा की होता क्या है यह ? पता चला की बकरे को खस्सी कहते है। अब यह पूछना रह गया की नर होता है की मादा। नर ही होता होगा.. जब चढ़ रहा है तो। थोड़ी देर में समझ आया की किसी देवी के अनुष्ठान या पूजन विधि में बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। आज के समय में हमारे तरफ के कुछ लोगो को यह बलि वगैरह अजीब लग सकता है, पर मुझे नहीं लगा क्योंकि मैंने इन विषयो पर कुछ कुछ पढ़ रखा था। बलि, अनुष्ठान, यञवेदी, सबका अपना अलग होता है। अपनी अलग विधियां होती है, अपने अलग रिवाज होते है। कोई तो प्याज का भी परहेज करता है तो कोई मांस का दान भी करता है। पहले तो बलि वगैरह दी जाती थी और सरेआम भी दी जाती थी ताकि रक्त और मांस के प्रति की घृणा या घिन्न का जो भाव हो उसमे कमी हो। आज कई लोगो को मैं देखता हूं की रास्ते पर कोई एक्सीडेंट का चोटिल पड़ा हो तो उसके पास से गुजरते हुए बहता खून देखकर भी वोमिट जैसा करने लगते है, या फिर कोई लड़ रहा हो तो उसे देखता हुआ भी वोमिटिंग करने लगता है। यह भय है, और इस भय का मिटना बहुत जरुरी है। किसी दिन संकटकाल में यह भय तुम्हे वहीँ अटका देगा। एक समय पर पशुओ की बलि देकर रक्त को इसी लिए बहाया जाता होगा की उससे घृणा का भाव कम हो ताकि जब युद्ध की घडी आए और चारोओर लाशें देखकर भी मन भ्रमित न हो। कभी कल्पना की है ? युद्धभूमि कैसी होगी ? आज की नहीं, आज तो गोलियों के छोटे से हुए छेद इतने भयजनक नहीं दीखते जितने सरकटी, बांहकटी, लाशो पर मंडराते गिद्धों को देखना होता होगा। कहीं किसी की अंतड़िया, कहीं किसी का मांस निकला हुआ, कहीं तलवार के एक ही प्रहार से खुले हुए कपाल से झांकता अंतःकपाल। बीभत्स रस यही है... लेकिन इन युद्धभूमि की और फिर लोग पलटकर भी नहीं देखते। गुजरात के सौराष्ट्र में एक शहर है, "ध्रोल".. लोग आज भी अगर ध्रोल जा रहे हो तो कहते नहीं की ध्रोल जा रहे है, उसके बदले कहते है "सामेगाम" जा रहा/रही हूँ। युद्धभूमि का भय शायद आज भी अनुभव कर रहे होंगे। आज इस प्रकार की बिभत्स्ता की शायद आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम सामाजिक प्रगति कर रहे है, अद्यतन हो रहे है, जीवनचर्या बदल चुकी है, जीवनका स्तर भी बदला है। तभी तो कई लोग है जो मांस का सेवन कर सकते है लेकिन यदि उसीके सामने जीवहत्या की जाए तो कल्पांत करने लगेगा। फिर जब तुम देख नहीं सकते तो खाओ क्यों ? और यदि खाना ही है तो खुद से बनाओ, बनाओ का तात्पर्य यहाँ है की काटो भी स्वयं, खाल भी स्वयं उतारो, अंतड़िया वगैरह निकालकर साफ़-सूफ भी खुद ही करो, और फिर उसे पकाओ। तब तो कदम पीछे हटने लगेंगे। यह तो बाजार में तैयार कटिंग पीस मिलते है इस लिए आसान है।
इसका अर्थ यह कतई नहीं की मैं मांसाहार का प्रखर विरोधी हूँ। मैं उस रसनापोषी भाव का विरोधी हूँ जो दोगला है। आहार का कारन नहीं होता, आवश्यकता होती है। शारीरिक पोषण के लिए सबकी आवश्यकता होती है, पर उसका अर्थ यह नहीं होता है की सिर्फ एकमात्र उसी चीज से ही शरीर तंदुरस्त रहता हो। पोषण के कई सारे विकल्प है पृथ्वी पर बस करेला कड़वा लगता है। (मुझे तो वाकई लगता है।)
छोडो यार, बहुत घृणास्पद बाते हो गई। तात्पर्य यह था की किसी भी आहार का सेवन करो, लेकिन किसी और को प्रेरित क्यों करना है ? भाई तुम जो खा रहे हो खाते रहो। प्योर वीगन वाले भी मुझे पसंद नहीं, वो में नाम भूल गया किसी वनस्पति का दूध जैसा पदार्थ पीते रहते है। किसी दिन यह लोग मातृत्व के स्तनपान को भी पाप कह देंगे। यह अति ही कही जाएगी, एक्सट्रीम.. फिर मैं खुद ही सोचता हूँ, न ब्लैक अच्छा है, न व्हाइट... अपन ग्रे ही ठीक है।
(दिनांक : ०२/१०/२०२४, १९:३४)