आधी अधूरी..

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शादियां और सर्दियां.. यही चल रहा है। कुछ ही दिनों में हाल ऐसा हो जाता है कि फिर घर का खाना पसंद नही आता। आदमी अपने जीवनभर की कमाई इसमें खर्च कर देता है। और बदले में पाता क्या है? नए जीवन के नाम पर ढेर सारी जिम्मेदारियां.. नए रिश्ते, और झुकते कंधे, बढ़ती तोंद..! जो भी हो लेकिन उत्सव ही है, जहां एकाध सभ्य नाराज होता है, तो एकाध अति-उत्साही। जिसकी हो चुकी वे भी खुश, जिसकी बाकी है वे भी खुश.. घरेलू स्त्रियों का तो यह फैशन शो ही समझ लो, चूड़ियों से लेकर साड़ियों तक ठाठ-माठ और हो सके उतना ऊंचा भाव बताने से चूकती नही..

बस एक व्यवहार निभा रहा हूँ।



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