पालीताणा..
सुबह के पांच बजे कुछ करवटे बदल रहा था शहर.. शायद थोड़ी देर में ही जागेगा। शहर से बाहर निकलने को उत्सुक ट्रक्स, और बजते होर्न्स में "बहारों फूल बरसाओ" की धुन..! एक गधा उबासियाँ लेते हुए विचरण कर रहा था, बस डिपो के बिल्कुल सामने जागृति खुल चुकी थी। मैं जब भी इस शहर में आता हूँ, जागृति की चाय-खारी, गोकुल की लस्सी तय ही होती है। साढ़े दस तक मामलतदार के वहाँ हाजिर होना था मुझे। अर्धजागृत शहर को मैं पैदल नापने ही निकल पड़ा। शेत्रुंजी पर बने पुल पर मैं अकेला ही बैठा था। धीरे शर्माते उगता आदित्य, और शेत्रुंजी पर लहलहाती धुंध, अभी भी शत्रुंजय की तो छांयारेखा भी नही दिख रही थी। पैदल ही चलते चलते शत्रुंजय की तलहटी तक पहुंच गया था। अभी भी दुकान सोई हुई थी, लेकिन चाय हर थोड़े कदमो पर उबलती थी। बड़े पतिलो में बड़ा सा चम्मच और उछलती हुई चाय। जैन यति शायद शत्रुंजय के आरोहण को निकले थे, कई सारे श्वेत वस्त्रों में सज्ज यति। ऑटोरिक्शावाले बड़ी जल्दी में बिल्कुल छूकर निकलते है। लुप्त हो चुके राजदूत तथा डीज़ल वाले बुलेट यहां सामान्यतः दिख पड़ते है। प्रशासन किसानों को इतनी छूट तो देते है।
सरकारी दफ्तर दस का नाम लेकर भी दस बजे खुलते नही। गांवों से आए हुए लोग अजब-गजब की बाते करते है। इनकी बाते मजेदार है। एक कहता है, "मैं बाइक लेकर भावनगर गया था, पुलिस ने पकड़ लिया, चालान की रकम ३५०० होती थी, तो मैंने उस पुलिसवाले को बाइक ही दे दी.. कबाड़ी में दूँ तब भी पैंतीससौ नही मिलते, उतने का तो तूने चालान बनाया है।" तो दूसरे ने पूछा, "फिर" फिर पहले ने कहा "पचास रुपये लिए और जाने दिया.." फिर दूसरा बोला, "हाँ, सही है, पैसे ले और जाने दे टाइम तो खोटी मत कर.. हमारे यहां तो वो क्या कहते है मोटा टॉप जैसा सर पर पहनते है उसे.. हाँ.. हेमलेट.. वो नही पहना था, पुलिसवाले ने पकड़ लिया.." अब पहले ने कहा, "फिर?" "फिर क्या, मैंने उससे कहा हेमलेट नही पहना तो मेरा सर फूटेगा तुजे उससे क्या?" कितने भोले लोग है ना.. पुलिसवाले को ही कह रहे है, फूटेगा तो मेरा सर फूटेगा, तू क्यों चिंता कर रहा है भाई, इतनी चिंता तो मेरे खुद के लड़के नही करते..! गांव के लोग वास्तव में दिखते भोले है, लेकिन अच्छे-अच्छो को गोली पिला दे यह।
अभी शाम हो चुकी है, एयरपोर्ट की तर्ज पर बनाया गया राजकोट का बस डिपो अब बसपोर्ट कहलाता है। दोपहर में देढ़सो किलोमीटर काट चुका, और शाम साढ़ेसात को वही खिड़की वाली बस में बैठा हूँ, जिसकी कल कामना की थी, और अभी भी दोसो किलोमीटर और काटने है। भांति भांति के लोग देखने में मजा तो है ही। अभी अभी वो "प्यार हमारा अमर रहेगा याद करेगा जहाँ.." वाला क्षण नही घड़ी घटित हुई.. एक लड़का जिसके मुंह पर अभी मुछ-दाढ़ी के लक्षण तक प्रकट नही हुए, और लड़कीं तो देखते ही शायद कक्षा ग्यारह/बारह को पास की है शायद.. अक्कल दाढ़ तो पक्का ही नही आई होगी..! हुआ कुछ यूं कि मैं अपनी सीट पर बैठा, मुझसे आगे बाप-बेटा कम पक्के दोस्त बैठे है (जिसमे बेटे ने बाप के कंधे पर हाथ रखा है, यह भी मेरे लिए तो अकल्पनीय क्षण ही है।) और उससे आगे वह घुघी है, जिसका घुघा बस में चढ़ते ही नाक का पानी ऊपर खींच रहा था, पहले तो लगा बेचारे को झुकाम है। लेकिन सीट पर बैठी घुघी के सर पर हाथ फेरते हुए कुछ कहने के बहाने घुघी के कानों तक गया और गाल पर पप्पी ले ली उसने.. मैं और मेरे आगे वाला लड़का और उसके पापा हँस पड़े, लेकिन उन घुघा-घुघी को असहजता न हो इस तरह.. दूसरी साइड में बैठी आंटियां भी मुंह आड़े हाथ रखी हँसती मालूम हुई। घुघा-घुघी का यह विरह कार्यक्रम थोड़ी देर और चलता तो मैं ही ड्राइवर को बस आगे बढाने के लिए बोल देता। क्या करूँ, ईर्ष्या तो मुझे भी होती है। ईर्ष्या से अधिक मुझे लगता है यह वो भाव था जो चाहता है कि तुम अपना विरह जहाँ मिले थे वही निपटा आते, यहां बस में सबके समक्ष क्या साबित करना चाहते हो? रूढ़िवादिता कहते है शायद उसे।
ठीक है प्रियंवदा, शायद बारह बजे तक घर पहुंच जाऊंगा। निंद्रा के नाम पर चलती बस में लिए कुछ जौके ही नसीब हुए है। और इस खिड़की वाली में तो बड़े अक्षरों में लिखा है, "सवारी अपने सामान की खुद जिम्मेवार है।"
|| अस्तु ||
लो फिर आज कुछ अतिरिक्त लो, कुछ कैद किया गया समय...