सभी अपने आश्रय को लौट चुके है... || everyone has returned to their shelter...

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लगातार डम्पर्स के चलने से रज में तब्दील हुई मिटटी से सनी कच्ची सड़क, किनारे पर ध्यानस्थ खड़े बिजली के खम्भों की एक कहीं ख़त्म न होती कतार, अपने ही भार से त्रस्त झूल चुके बिजली के तार.. उस पर बैठा हुआ लम्बी चोंच को इधर उधर घुमाता किंगफिशर... सर्दी का भार ढोते आते सूखे पवनो की लहरों से विद्युत का परिवहन करते तार भी हिचकोले लेते है कभी कभी, फिर भी वह किंगफिशर अपनी पकड़ मजबूत बनाए बैठा निचे खेत की बाड़ में से किसी किटक पर एक सचोट निशाँ ताके बैठा है। मेरे ऑफिस की खिड़की से यही दृश्य दीखते है दिनभर। कोई मिटटी से सना बच्चा, अपनी माँ के पल्लू को पकडे हुए जाता हुआ, उस माँ के माथे पर जलाऊ लकड़ी की गठरी है, एक काख में उससे छोटा बच्चा लिया हुआ है, और एक खाली हाथ में पानी का एक केन..! उनके चलने से और धूल उड़ती है, हवा में थोड़ी देर टहलती है, और वापस गुरुत्वाकर्षण का सम्मान करती है। ढेर सारे कबूतरों ने मिल के श्वेतलोहपत्र को हरा करने के भरसक प्रयास किये दीखते है। शाम होने लगी है, सूर्य का रंग लाल हो चूका है, बस उपरका हिस्सा अभी भी केसरी और पीलापन को बांध के बैठा है। दिनभर खटखट करते कम्प्यूटर्स के कीबोर्ड ने जैसे अभी अभी मौनव्रत लिया है, तो सुनाई पड़ता है पास ही सालो से खड़े एक नीम पर अनेको गोरैयों के लड़ने की चहचहाट, वे भी लड़ती है 'रिज़र्व्ड सीट' के लिए, आरक्षण शायद उनमे भी है..! एक दूसरी को चोंच मारकर जगह को लेने के लिए, या अपनी जगह को बनाए रखने के लिए प्रकृति ने उनमे भी संघर्षवृत्ति की मात्रा कुछ अधिक ही रखी है। लगभग आधे घंटे में थकहारकर या अँधेरा घिर जाने के कारण जिसे जहाँ जगह मिली आख़िरकार वह वहां बैठ गई.. और खुली आँख से ही सोई हुई लगती है। धीरे धीरे ऑफिस खाली हो रहा है, उद्यमों से गरजती मिल भी अब शांत होकर जैसे सुषुप्तावस्था के शरण जा रही है। धीरे धीरे सब अपने आश्रय को लौट रहे है.. मोटरसाइकल्स चालु होने से नीम वाली चिड़िया चिरकती है, आदमी अपनी सीट पर कपडा मारते हुए ऊपर देखता है, कुछ बड़बड़ाता है, फिर अपनी मोटरसायकल की सीट उठाता है, एक थैली निकालता है, कुछ दाने नीम के निचे डाल देता है और चला जाता है। प्रकृति बिलकुल शांत हो चुकी है, पवनकी लहरों में ठण्ड की मात्रा कुछ बढ़ी है। सभी अपने आश्रय को लौट चुके है, प्रियंवदा ! तुम कहाँ हो?

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