तुम्हे क्या लगता है प्रियंवदा, भूमिका बांधनी इतनी कठिन क्यो होती है? जबकि मैने तो गूढ़ या रूपक देकर लिखना कबका छोड़ दिया है, फिर भी..। आरम्भ करना आसान दिखता है, पर जब करते है तब अनुभव होता है, कितने ही वाक्य कागझ पर तैरने के लिए डूब जाते है, रूपकों की सृष्टि में सुनकार व्याप्त है, और फिर खुला छूटा मन आदेशात्मक रवैये को अपना लेता है, रुकता नही है।
चंदर, सुधा, बिनती, और पम्मी.. हिंदी साहित्य के पाठकों को यह नाम शायद स्मरण में रहते हो, मेरे लिए नए थे.. मैं इस नगर में नया हूं.. यात्री हूं, आज यहां हूं, कल घर को भी लौटना है। प्रियंवदा ! क्या तुम्हें भी नवलकथाएं पढ़कर उनके पात्रों से कोई जुड़ाव अनुभव होता है? मैं तो शायद अलग ही नही हो पाता.. कई दिनों तक.. फिर धीरे धीरे मेरा स्मृतिपटल एक डस्टर वहां फेर देता है.. 'गुनाहों का देवता' पढ़ी। हुआ कुछ यूं था कि इंस्टा पर रिल्स देखते हुए एक रील में इस बुक का जिक्र हुआ, मैं भूल गया। दूसरे दिन अमेजोन के जंगलों से कुछ जड़ीबूटियां मंगा रहा था, उसने भी कहा "यह भी लेले", मैंने इग्नोर की.. तीसरे दिन 'आपके उद्धरण' पर विचरते हुए रक्तपिपासु राताभाई ने भी इसी का नाम ले लिया.. अब तीन तीन बार उछल उछल कर एक शब्द आंखों के आगे आ रहा था, 'गुनाहों का देवता', 'गुनाहों का देवता', 'गुनाहों का देवता'...
एकतरफ तो मुझे मेरी रोज ही कुछ उलजुलूल शब्दो को पेश करने की नियमावली भंग नही होने देनी थी, एक तरफ तीव्र उत्कंठा इसे पढ़ने की.. एक ही दिन में चार छोटे छोटे हृदयोत्सर्ग भाव ब्लॉग पर शिड्यूल कर दिए और इसे पढ़ने बैठा। एक नई अचीवमेंट से रूबरू हुआ, अब मैं एक ही बैठक में पूरी बुक नही पढ़ पाता। e-book थी, pdf स्वरूप में, हाँ, अब मुझे कागझी महक से नशा नही होता। ऑफिस पर ही था, लगा कुछ काम नही है, पढ़ी जा सकती है, शुरू ही की थी कि जिन-बहादुर ने टोक दिया, "पैसे साहिए" वही अदरक से उसे कौनसे दुश्मनी है, कौन माथाफोड़ी करे..! उसी शाम को फिर एक बार बैठा, इस बार मोबाइल नोटिफिकेशनो ने ध्यान भटका दिया। लगा कि कोई मुहूर्त-वुहुर्त का चक्कर होगा।
फिर भी खांचे-खुचे से समय निकालकर दो पन्ने पढ़े थे, तो कुछ व्यवहारिकता ने दखल कर दी.. खेर, अब तो मैंने स्वयं को ही तसल्ली देनी चाही कि "तुमसे न हो पाएगा।" लेकिन वह भी अटल है कि "हार नही मानूंगा, रार नही ठानूँगा"… अब थोड़ा जिद्द वाला मामला था, मैं शुभ्रधूम्रदण्डिका को कान पर खोसके अपने पसंदीदा मैदान में चला गया, लेकिन तुलसीविवाह का दिन था, जगन्नाथ के स्थानक से ओड़िया भजन के स्वरों के बीच बीच पटाखों के गुंजारव मानो कह रहे थे, "घर जा, सो जा..!" साहस के जोरपर चार-पांच पन्ने और पढ़ लिए, लगा अब तो कोई दिक्कत नही, लेकिन वही नोटिफिकेशन के मायाजाल से कौन उबर पाता है?
घर पर था, रात्रि के साढ़े ग्यारह हो रहे थे, ऑफिस के काम से चिंतामुक्त होकर मोबाइल इंटरनेट भी बंद कर दिया ताकि नोटिफिकेशन भी ध्यान न भटकाए.. लेटे हुए पढ़ने लगा, चार पन्ने ही पढ़े थे कि मोबाइल ही मुंह पर गिरा.. महामाया निंद्रा ने अपने पाश में बांध लिया। आज सुबह एक अच्छा सा मुहूर्त देखकर, इसे पढ़ने बैठा, इतना तो समझ आ गया था कि यह कहानी भी एक विचित्र विरहगाथा ही है। देखो फंडा सिम्पल है, इस पुस्तक ने चरितार्थ भी किया है कि विरह है तभी प्रेम का अस्तित्व है.. वरना प्रेम तो है ही नही.. अस्पष्ट और धुंधला कोई भाव है, जिसे प्रेम के नाम पर बेचा जाता है।
लेकिन लेखक ने बहुत अच्छे से भावविभोर कर देने वाले वर्णन किये है। मेरे मन पर भी बहुत गहरी उदासी मैंने अनुभव की है। प्रेम और वासना दोनो को अच्छे से मिश्रित किया है। मुझे अक्सर विरहगाथा ही पसंद आती है, लेकिन इसमें दुःख और पीड़ा को एक अलग ही स्तर पर स्थापित किया है लेखक ने। कहानी का प्लाट तो यही था कि एक लड़का है, घर से भगा हुआ, पढ़ने के लिए, एक प्रोफेसर के आश्रय में आया, प्रोफेसर की बेटी और उन दोनों में मैत्री हुई, एक स्नेह का बंधन हुआ, लड़का यानी चन्दर खुद लड़की यानी सुधा को किसी और से विवाह करने के लिए मनाता है, लड़की की सहेली या बहन बिनती का रोल भी खूब सपोर्टिव है। पम्मी जो एक घरभंग स्त्री है, वह प्रेम में वासना से नायक चन्दर को अवगत कराती है। सुधा के विवाह के बाद अब दोनों को ही विरह अनुभव होता है। चन्दर पागलपन सा व्यवहार करता है, शुद्ध देवता समान चन्दर विरहाग्नि में जलकर प्रेत समान हो जाता है और दूसरी और सुधा उसी विरहाग्नि में तपकर कुंदन बनती है। कहानी अच्छी है, लेकिन सत्य यह है की कोरी कल्पना... वास्तविकता से कोसो दूर.. हालाँकि उपन्यास या नवलकथा होती ही कल्पना है लेकिन पता नहीं क्यों, मैं उन कहानिओ में वास्तविकता खोजने की कोशिश करता हूँ, अपने स्वयं से जोड़ने की कोशिस करता हूँ।
आश्चर्य क्या है पता है? लेखक धर्मवीर भारती ने शायद तेईस वर्ष की ही आयु में यह बुक लिख दी थी, और मैं अधेड़ होकर भी घुइया छील रहा हूँ.. देखो उस समय के क्या हालत वास्तविकता में थे, मैं नहीं जानता पर लेखक 'भारती' है, और उन्होंने अपने पुस्तक में जातिवाद को जरूर घसीटा है, यहाँ मुझे लगा की पूर्वाग्रह है कुछ तो। पर छोडो, दूसरी और खतरनाक बात करते है। यह कहानी में नब्बे प्रतिशत तो आंसू ही है। कभी कोई उधर मुंह करके रो रहा है, कभी घुटनो में सर दबाकर आंसू बहा रहा है, कभी कोई अपने दोनों हाथ से मुंह ढककर रो रहा है, तो कोई किसी के पैरो में गिरकर उसके 'कबूतर' जैसे पेरो पर किसी की आँखों से पानी चु गया..! पढ़ते हुए कितने अच्छे शब्द लगते है न "कबूतर जैसे पैर".. अब जरा सोचो, कल्पना करो.. कबूतर जैसे पैर पर यह भारी स्थूल देह टिक सकता है? (दृष्टिकोण है, कबूतर के लाल गुलाबी पैरो के रंग की बात होगी।) एक बात और, कुछ कुछ बातो में मुझे बड़ी घिन्न आती है। कैसे कोई पैर के तलवो को चुम सकता है? या फिर पैर के तलवो पर अपना चेहरा रखकर सो जाना.. यह तो उसने मोज़े नहीं पहने होंगे और सर्दी की सीज़न नहीं होगी..! HYGIENE नाम की चीज शायद उस जमाने में नहीं थी। या धर्मवीर भारती जी भूल गए होंगे..!
मुझे इस कहानी में सबसे अच्छी सुधा लगी.. क्योंकि उसे कुछ पता ही नहीं है, फिर भी फ्लो में बहते हुए ही उसने प्रेम को किसी स्तर पर तो पहुँचाया। हालाँकि उसके गुजर जाने पर शायद चन्दर से ज्यादा मुझे अफ़सोस हुआ है। चन्दर तो बेवकूफ था, देवता क्यों बनाया उसे? कभी वह सुधा को समझ दे रहा है क्या करना चाहिए और क्या नहीं लेकिन जब खुद की कसौटी आई तो पम्मी के यहाँ अधरपान करने चला गया..! पम्मी के वक्ष की गर्माहट में भूल गया कि किसी ने उसे देवता की उपाधि दी है। शायद इसी कारण से लेखक ने उसे गुनाहो का देवता कहा हो? क्या पता.. सबसे फायदेमंद रही बिनती, जिसने जिंदगीभर ताने ही सुने, उसे सुधा की मृत्यु के पश्चात एक नया और शुद्ध देवता मिला, चन्दर.. इस समय शायद वो गुनाहो का देवता नहीं रह गया था। वह बस निश्छल, निष्कपट, और एकलक्ष्यनिष्ठ बना था। चन्दर, जो शायद उज्वल होगा, और बिनती में सुधा का संचार करेगा।
सबसे ज्यादा मुझे दुःख इस बात का था की यह चन्दर और सुधा के चक्कर में बेफालतू में कैलाश की जिंदगी बर्बाद हो गई। कैलाश, सुधा का पति, जिसे सुधा जैसी सुलक्षणा, स्वरुपवान पत्नी मिली। नहीं नहीं, पत्नी कैसे कहूं उसे? उसे सुधा का सिर्फ देह मिला.. सम्पूर्ण सुधा नहीं। मुझे लगता है सुधा यहाँ चूक गई, अपने पतिव्रत धर्म को निभाने में। उसने देह तो कैलाश को दी, पर आत्मा चन्दर के पास ही छोड़ आई थी, वही चन्दर जो उन दिनों पम्मी की बाहुपाश में लिपटा हुआ था। मुर्ख चन्दर, जो बर्टी (पम्मी का भाई, जो पागल है) जैसे पागल के मुंह से निकले शब्दों को परमज्ञान मान रहा था। कैलाश की भी क्या स्थिति रही होगी? वह तो सुधा का मन जानता ही नहीं, क्योंकि सुधा ने कभी जताया ही नहीं। बस वह कैलाश के साथ जीती रही चन्दर की होकर। कितना अजीब और अव्यवहारिक है न?
खेर, आंसू बहाने हो, और पैर के तलवो से घृणा न हो तो यह 'गुनाहो का देवता' उपन्यास जरूर से पढ़ना.. मजाक छोड़कर मुझे सचमे अच्छी लगी कहानी.. इसमें भावुकता बहुत ज्यादा है, यदि इसे पढ़कर तुम्हारा मन विचलित न हो, तुम्हारे मन पर उदासी न छाए.. तो वह पथ्थरदिल की परिकल्पना को तुम ही परिभाषित कर रहे हो..!!!