प्रियंवदा !
यूँ तो मुझे कल्पनाश्व के स्कन्धसवार होते देर नहीं लगती, वास्तव में तो २-३ बार ही बैठा होगा अश्व पर, किन्तु मुझे लगता है की मैं कल्पनाश्व को अच्छे से चला सकता हूँ। फिर भी मुझे जब किसी की प्रशंसा करनी है तो लगता है जैसे कच्छ के बड़े रण सी बंजरता आ बसती है... दूर दूर तक बस कोई सूखे पिले पड़ चुके शूलसभर पौधे, लू भरी हवाएं, आगझरते ताप से निर्मित होता मृगजल, और नितांत एकलता.. जहाँ कोई कोंपल उगती भी है तो बस उसकी आयु अत्यंत क्षणिक है। हृदयमे इस समय कई सारे भाव उत्पन्न हो रहे है, कई सारे शब्द आ रहे है, जा रहे है, पर किसी एक का चयन कर के उसे तुम्हे समर्पित नहीं कर पा रहा हूँ, क्योंकि मैं स्वयं से ही उसे तुम्हारे रूप के सामने कुरूप प्रमाणित कर रहा हूँ...!
कहीं तो मैं पड़ा रहा था कितने दिनों तुम्हारे आश्रय में, टुकड़ो पर पलते हुए निर्धन सा..! तुमने कभी द्वेष न प्रकट किया मेरी निष्क्रियता पर। मुझे सराहा, मेरे शब्दों को दिशाए दी, उत्साहवर्धन किया। मेरे शब्दों में छलकते किन्ही भावो का मदमर्दन किया, कहीं गजग्राह पर तुमने मुझे मुक्त किया मेरी ही अवमाननाओं से, तो कभी तुमने अपनी उलझनों से मेरा भी मार्ग निष्कंटक किया। मेरी वैचारिक शून्यता पर तुमने अपनी वैचारिक क्रांतिओ का एक उद्घोष किया, मेरे हाथ से भी गिरते शस्त्रों को देख तुमने भी कभी पाञ्चजन्य को गुंजाया है। मेरी कुछ अप्राकट्यता को तुमने छेड़ा नहीं, मैंने भी तुम्हारे इस स्नेह को ससम्मान बनाए रखा है मेरे भीतर, मेरे उस परिघ में जहाँ हर किसी का आना वर्ज्य है। तुम मानो न मानो, यह कोई ऋणानुबंध ही है। या मेरा कोई कर्मफल.. जहाँ तुम्हे मैं एक आदर्श के पद पर बिठाता हूँ, नूतन विचारो के पथदृष्टा के रूप में। मेरे स्मृतिपटल पर मुझे इतना विश्वास नहीं की यह सदैव मुझे तुम्हारा स्मरण कराता रहे, पर मेरे शाब्दिक आलस्य पर मुझे कण्ठतक विश्रम्भ है की वह तुम्हारा विस्मृतिकरण नहीं होने देगा।
अब कदाचित इस बात को और लिखता रहूं तो शायद विस्तृतीकरण की भी सीमारेख को पार कर जाए.. अंत में इतना ही की जिस हृदय तक यह अभिव्यक्ति पहुंचे वहां से यह विस्थापित न हो बस इसी आशा के साथ.. दिलवारसिंह की डायरी में ध्रुवसमान सदा चमकते रहो प्रियंवदा..!
(दिनांक : ०७/११/२०२४, १५:१७)