प्रियंवदा ! तुम्हे ह्रद में नवपल्लवित पुण्डरीक की उपमा क्यों न दूँ.. || Priyamvada! Why should I not give you the example of a newly blossomed Pundarika in my heart?

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प्रियंवदा !

यूँ तो मुझे कल्पनाश्व के स्कन्धसवार होते देर नहीं लगती,  वास्तव में तो २-३ बार ही बैठा होगा अश्व पर, किन्तु मुझे लगता है की मैं कल्पनाश्व को अच्छे से चला सकता हूँ। फिर भी मुझे जब किसी की प्रशंसा करनी है तो लगता है जैसे कच्छ के बड़े रण सी बंजरता आ बसती है... दूर दूर तक बस कोई सूखे पिले पड़ चुके शूलसभर पौधे, लू भरी हवाएं, आगझरते ताप से निर्मित होता मृगजल, और नितांत एकलता.. जहाँ कोई कोंपल उगती भी है तो बस उसकी आयु अत्यंत क्षणिक है। हृदयमे इस समय कई सारे भाव उत्पन्न हो रहे है, कई सारे शब्द आ रहे है, जा रहे है, पर किसी एक का चयन कर के उसे तुम्हे समर्पित नहीं कर पा रहा हूँ, क्योंकि मैं स्वयं से ही उसे तुम्हारे रूप के सामने कुरूप प्रमाणित कर रहा हूँ...!


यूँ काले घने नभाच्छादित अभ्र के घेराव को चीरती हुई एक क्षणप्रभा सी अलकलट तुम्हारे रूपमाधुरी संपन्न मुखारविंद पर जब आ जाती है, मृदुता से सिंचित अव्रण कपोल पर, विश्वास करो उसे वहीँ रहने दिया करो। खिलखिलाती दन्तावली, जपाकुसुम से भी रक्ताभ ओष्ट तथा गर्विष्ट उन्नस तुम्हारे रूपसौंदर्य को सप्तम अवकाश के शीर्षस्थ स्थान को प्राप्त करते है। तुम्हारे बादामी नेत्रों में समाहित समुद्र सदा ही पूर्णिमा की रात्रि सा हिचकोले खाता मैं अनुभवता हूँ, उस सामुद्रिक आंदोलनों में कभी स्नेह से आप्लावित उपवन सी सौम्यता है, तो कभी ज्वलंत भूगर्भरस सा क्रोध है, कहीं छिपे हुए है विनोद-व्यंग्य के बाण भी, तो कभी तो सुकुमारी सी निश्छलता भी छलकती है। कभी वहां गांडीव के धनुटंकार सी गंभीरता है, तो वहीँ मुझे महासमर के पश्चात छायी हुई परमशान्ति भी दृष्टिगोचर होती है। तुम्हारी कृष्ण कनीनिका की गति वास्तव में असह्य है, कभी तो उसकी चपलता कायल कर जाती है तो कभी उसकी स्थिरता किसी तपोमग्न तपस्वी की एकध्यानिता को चिन्हित करती है। अभेद्य किल्ले सी तीक्ष्ण नासिका की दिवार को भेदकर चमकती बाली, और स्वउर्जावान किसी स्फटिक से उद्गमित होते रश्मियों का एक प्रवाह तुम्हारे कानो के कुण्डल से परावर्तित होते हुए मेरी मरुभूमि को ऊर्जावान करने को उत्सुक प्रतीत होते है। विशाल ललाट प्रदेश पर घनिष्ट अरण्य से दोनों भ्रू के केन्द्रमे शीतकालीन उषा प्रहर के प्रभाकर सी लालिमासिंचित बिंदी को मैं यदि मरुभूमि में उगे वृन्तपुष्प का रूपक दूँ तो अन्याय होगा, मरुभूमि सी शुष्कता मेरे लिए असह्य है, किसी श्लाघा-वर्णन को आलेखित करते हुए। ललाटसुशोभन में अभिवृद्धि कर रही उस बिंदी को परिभाषित करते हुए मैं उसे विशाल शांत और स्थिरता के पर्याय समान ह्रद में नवपल्लवित पुण्डरीक की उपमा क्यों न दूँ? 

कहीं तो मैं पड़ा रहा था कितने दिनों तुम्हारे आश्रय में, टुकड़ो पर पलते हुए निर्धन सा..! तुमने कभी द्वेष न प्रकट किया मेरी निष्क्रियता पर। मुझे सराहा, मेरे शब्दों को दिशाए दी, उत्साहवर्धन किया। मेरे शब्दों में छलकते किन्ही भावो का मदमर्दन किया, कहीं गजग्राह पर तुमने मुझे मुक्त किया मेरी ही अवमाननाओं से, तो कभी तुमने अपनी उलझनों से मेरा भी मार्ग निष्कंटक किया। मेरी वैचारिक शून्यता पर तुमने अपनी वैचारिक क्रांतिओ का एक उद्घोष किया, मेरे हाथ से भी गिरते शस्त्रों को देख तुमने भी कभी पाञ्चजन्य को गुंजाया है। मेरी कुछ अप्राकट्यता को तुमने छेड़ा नहीं, मैंने भी तुम्हारे इस स्नेह को ससम्मान बनाए रखा है मेरे भीतर, मेरे उस परिघ में जहाँ हर किसी का आना वर्ज्य है। तुम मानो न मानो, यह कोई ऋणानुबंध ही है। या मेरा कोई कर्मफल.. जहाँ तुम्हे मैं एक आदर्श के पद पर बिठाता हूँ, नूतन विचारो के पथदृष्टा के रूप में। मेरे स्मृतिपटल पर मुझे इतना विश्वास नहीं की यह सदैव मुझे तुम्हारा स्मरण कराता रहे, पर मेरे शाब्दिक आलस्य पर मुझे कण्ठतक विश्रम्भ है की वह तुम्हारा विस्मृतिकरण नहीं होने देगा। 

अब कदाचित इस बात को और लिखता रहूं तो शायद विस्तृतीकरण की भी सीमारेख को पार कर जाए.. अंत में इतना ही की जिस हृदय तक यह अभिव्यक्ति पहुंचे वहां से यह विस्थापित न हो बस इसी आशा के साथ.. दिलवारसिंह की डायरी में ध्रुवसमान सदा चमकते रहो प्रियंवदा..!
(दिनांक : ०७/११/२०२४, १५:१७)

|| अस्तु ||

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