रिल्स बदनाम समंदर है... || Reels is an infamous sea

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आजकल सब शांति से smoothly टाइम जा रहा है, कुछ भी उटपटांग नही हो रहा है..! दिनभर ऑफिस, शाम को मैदान, एकाद सिगरेट, और घरवापसी, और निंद्रा.. लेकिन वो बाबा फन्नीरुद्धाचार्यने कहा है कि सीधी रेखा में नही चलना.. सीधी रेखा मतलब मौत। परमज्ञान..!



"प्यार एक पूँजीवादी विचार है, 
लड़कियों के सपनो में राजकुमार आते है, मजदूर नही।"


रिल्स बदनाम समंदर है, लेकिन सिप में मोती वहां भी है..! अभी ऊपर लिखी लाइन्स वहीं किसी अज्ञात नाम से चमकती दिखी तो इधर ले आया। कितनी सही बात है, थोड़ी सी दार्शनिक टाइप..! सिम्पल है, स्त्री स्वावलंबी होगी तब भी मजदूर तो नही ही चाहेगी.. कोई अपवाद बात अलग है..! और होना ही चाहिए, मजदूर के साथ जीवन बिताए ही क्यों? उन्नति तो सब ही को चाहिए होती है, वो अलग बात है कि यदि वह चाहे तो राजकुमार को रोड पर ला सकती है। ऐसे ही शक्तिस्वरूपा थोड़े ही कहा गया है? ठीक है चलो मजाक अपने जगह, लेकिन यह वास्तविकता भी है। मैं समाज मे रहता हूं, तो अच्छे से जानता हूं, जब भी कोई विवाह प्रस्ताव के लिए रिश्ते देखे जाते है तब लड़के को तांबे के मटके की तरह ठोक-पीटकर कर चेक किया जाता है। जबकि लड़कीं में सिर्फ एक गुण देखा जाता है कि "घर सम्हाल लेगी?" बस इसमें पुरुष की और से सारा ही समर्पण भाव आ गया..! क्योंकि पुरुष जानता है 'पीठबल' की महत्ता को.. वह दुनिया सम्हाल लेगा, लेकिन घर तो स्त्री को ही सम्हालना है.. क्योंकि उसे थककर घर को लौटना है..


चुनाव चल रहे है.. बटेंगे, कटेंगे यही मुद्दा रहा, तीसरी बात की ही नही किसी ने.. आजकल अपने केजूकाका भी मार्किट में नही आ रहे। पता नही गुमसुम से है, या फिर मीडिया अब उन्हें याद नही कर रहा.. वो झगड़ा-वर्धक औरत बैठी है तब से। केजूकाका की तो बात ही निराली है.. बिल्कुल सादगी पूर्ण जीवन.. उनकी क्रूर आंखों से कितनी सौम्यता छलकती है, इतने वर्षों में कुछ बदलाव दिखता ही नही उनमे, बस वो खांसी की कभी कभी याद आ जाती..! एक समय था, मेरे डाघिया के लिए सूरत से फोकट के बिस्कुट भेजा करते थे, कितना सरल व्यक्तित्व। इतने ऊंचे विचार और कितना छोटा कद। फिर भी मजाल है कभी घमंड दिखा दे, महात्मा के चिंधे मार्ग पर कारागृह वास भी किया.. कितनो ने उनपर कालिख़ उड़ाई, किसी ने स्नेह से अपने हाथ उनके गाल पर भी रखे पर कभी इन्हें गुस्सा करते नही देखा। दूसरे मुझे याद आते है हमारे विजुकाका.. हमारे यहां दारू पर तो प्रोहिबिशन है, काका स्प्राइट पीते है। सीधी बात नो बकवास.. उन्ही को देखकर मुझे हिंदी की प्रेरणा हुई है। जीवन मे 2-3 भाषा पर तो हथरोटी होनी चाहिए। हमारे विजुकाका गिनती के बड़े पक्के है, बनिये है ना, मूल्यांकन में निपुण.. जब हवा में उड़ते हुए रिपोर्ट ने पूछा कि, "आपके यहाँ पच्चीस करोड़ में एक उंगली खरीदी जाती है।" तब उन्होंने हवा में ही बैठे बैठे कहा था, "पच्चीस करोड़ में तो वे पूरा हाथ ही खरीद ले।" विजुकाका का यह बेबाक अंदाज मुझे भी प्रेरणादायी हो पड़ा था.. मैंने भी फिर कीबोर्ड पर उंगलियां पटकी और यह उटपटांग आज के लिए लिख दिया.. लो फिर.. तुम्हारी मर्जी प्रियंवदा.. पढ़ना है तो पढ़ो.. पर मतदान जरूर करो..!


|| अस्तु ||


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