ग्लेमर सिमित रहे तब तक अच्छा है... It's good as long as the glamor is limited..

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हां, कल कुछ लिखा नहीं इसी लिए आज कोई शिड्यूल्ड पोस्ट है ही नहीं..! पिछले साल भर से मेरा सबसे अच्छा साथी झुकाम रहा..! दो दिन में वातावरण में कोई छोटा सा बदलाव हुआ तो नाक सबसे पहले अनुभव कर लेता है। सोचा तो था की ग्राउंड में बैठकर कुछ सोचेंगे, और लिख लेंगे कुछ इन्ही उटपटांग सी बातो को.. जैसे दिनभर में क्या हुआ, रशिया या इज़राइल ने क्या किया, या फिर पॉलिटिक्स में क्या कुछ हुआ सुना.. वही सब..! लेकिन एक तो दो दिनों से ठण्ड की मात्रा में कुछ बढ़ोतरी हुई है, और झुकाम के कारण नींद बहुत जल्दी से आ गई। लगभग दस बजे तो सो ही गया था। सुबह उठकर ग्राऊंड में पैर पटकने गया था तब अनुभव हुआ कि, हाँ ! अब सर्दिया अपने रूप-रंग में आ गई है। मेरे जब तक दांत न कड़के, शरीर से एक कपकपाहट न छूटे मुझे लगता ही नहीं कि सर्दियां है। मुझे ठण्ड कम लगती है, लेकिन गर्मियों में मैं सामान्यतः रह नहीं सकता।



मैंने कल रात को सोच रखा था ग्लेमराइज़ेशन पर लिखूंगा.. ग्लैमराइजेशन मतलब आकर्षक बनाना, या जिससे लोगो में आकर्षण उत्पन्न हो ऐसा कोई प्रयास करना...! हुआ कुछ यूँ था की मैं गया था जैकेट लेने.. हर साल सर्दियों में यहाँ एक तिब्बत बाजार लगती है, जहाँ ऊनी वस्त्र, जैकेट्स, अब जैकेट्स में भी तो कई प्रकार है, बोंबर से लेकर पैराशूट तक के.. और लेडीज़ तथा बच्चो के लिए तो भरमार आइटम्स होती है उनके पास.. वहां चला गया, एक कतार में टेम्पररी दुकाने लगी है, तरह तरह के जैकेट्स लगे थे, लोग भी सवेरे सवेरे खूब आए थे। लेकिन मोनोपोली तो यहाँ भी है। ऐसा लग रहा था की सारे ही एक ही परिवार के है, क्योंकि फिक्सड रेट, एक रूपया भी कम न चले इनको। पूछने पर कहते है तिब्बती सोसायटी का रूल है। मैंने दो तीन दुकाने देखी, कोई जैकेट पसंद नहीं आ रहा था, क्योंकि मुझे पसंद ही नहीं पता मेरी..! बड़ी ही असमंजस भरी स्थिति हो जाती है मेरी कपडे/जूते खरीदते समय। "ग्लेमर.." सिम्पल है, जिस दुकान में लड़की है, वहां भीड़ ज्यादा है। मुझे लगा इसके पास वैरायटी ज्यादा होगी.. तो ऐसा भी नहीं था, बस वह लड़की सुन्दर थी, गोलाकार मुखपर छोटी छोटी चपटी-आँखे, नन्हा कद, और चपलता से भरपूर। अच्छा सिर्फ सुंदर थी उतना ही नहीं, वह लड़की खुद भी जानती थी कि वह सुन्दर है। तो वह अपनी सुंदरता को व्यापार के साथ में कैसे उपयोग में लेना है वह भी अच्छे से जानती थी। फिर कुछ सख्त से सख्त भी वहां पिघल जाते है। (अब कोई मुझ पर जजमेंट न ले, इसी लिए कह देता हूँ, की मुझे जो D&G का जैकेट चाहिए था, वह सिर्फ उसी के पास मिला।) अच्छा, लड़की बड़ी हुशियार.. इतनी हाजिरजवाबी कि आपको सोचने का मौका न दे, ऊपर से नखरे दिखाए वे अलग... उसने हँस-हँसकर ही मुझे लगता है काफी सामान बेच दिया होगा। मेरा D&G मांगते ही बोली, "आप बूढ़े नहीं हो, इशका झमाना झा सुका.." इसका यह अंदाज इसी कारण से था कि इसके पास भी D&G के दो ही जैकेट्स थे, फिर भी एक को इसने इतना बखाना की यह ले ही लो..! अच्छा, ग्लैमराइजेशन के साथ साथ धंधा करने की मोनोपोली तब दिखती है जब वहां लड़कियां एक दूसरे के स्टोर्स संभालती है। सबका माल बिकेगा, सबका मुनाफा..!


कुछ ग्लैमराइजेशन नेशनल मिडिया भी करती है..! जैसे की क्राइम्स को दिखाती है, वे लोग लगातार क्राइम्स दिखाते है। लेकिन गुनहगार का बाद में क्या हाल हुआ वह कौन दिखाएगा? कोलकाता केस की अभी क्या पोज़िशन है कौन जानता है? दो दिन यह नेशन मीडया trp बटोरने के लिए हो-हल्ला करते है, बारिश की ऋतु में घुटनेभर पानी को गलाडूब दिखाते है, या फिर हर शहर में एक जगह ऐसी होती है जहाँ पानी भर जाता है और थोड़ी देर में चला जाता है, यह लोग उसी जगह को बार बार दिखाएंगे..! फिर मुझे लगता है यह गलतियों / गुनाहो को ग्लैमराइज़ करते है, जब वहां सुधार हुआ उस विषय में कुछ बताते नहीं। मुझे सुरेंदर शर्मा की वह लाइंस खूब अच्छी लगी कि, "आजकल मिडिया वो दिखाती है जो पब्लिक देखना चाहती है, जबकि उन्हें वो दिखाना चाहिए जो सही हो।" ग्लेमर मनोरंजक तो है लेकिन उसकी अति हानिकारक है। जैसे गालिया ग्लैमराइज़ हो चुकी है। टीवी सीरियल्स के ग्लेमर ने रिश्तो को तोडा है। 


बुरहान वानी के बाप का इंटरव्यू देखा कल.. कितना अजीब बोलता है। बोला दोनों गलत है, मेरा लड़का हथियार उठाया वो भी गलत है, और फ़ौज दमन करती है वो भी गलत है। अबे तुम रिएक्शन देना बंद करो, यहाँ से एक्शन बंद हो जाएगा। या फिर तुम एक्शन बंद करो यहाँ से रिएक्शन नहीं आएगा.. शिक्षक होकर एक्शन-रिएक्शन का नियम नहीं जानते? बस इंटरव्यूस के व्यूज़ के चक्कर में कुछ नहीं होना चाहिए वो ग्लेमराइज़ हो जाता है। एक वो चीज भी कुछ ज्यादा ही ग्लैमराइज़ होती जा रही है। जगह याद नहीं पर एक लड़की अंतरवस्त्रो में ही चाय की दुकान पर जाती है और पूछती है कि "मैं ऐसे कपड़ो में आऊं तो कैसा लगेगा?" दुकानवाला भी कुछ समझ नहीं पाया और बोल पड़ा, "अच्छा लगेगा.." एक वो सिर्फ टॉवल लपेटकर इंडिया गेट पर रील बनानेवाली लड़की.. यह बेवकूफ कुछ व्यूज़ के चक्कर में अपना भविष्य बर्बाद कर रहे है। एक अपने शक्तिमान साहब, मुकेश खन्ना जी.. आदरणीय भीष्म..! सच में कलाकार पर जबतक कला का प्रभाव न पड़े तो वह अपूर्ण ही कलाकार है। मुकेश जी पर कुछ ज्यादा ही कला का प्रभाव हो चुका है। खुद ही खुद का इंटरव्यू लेते है। फिर वो उक्ति सही ठहरती है, सठिया गए है। साठ की उम्र सठियाने की होती होगी... 


जो भी हो, ग्लेमर सिमित रहे तब तक अच्छा है, प्रत्येक वर्त्तन में ग्लेमराइज़ेशन ठीक नहीं, तुम्हे क्या लगता है प्रियंवदा..?


|| अस्तु ||


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