कोरा कागज़ || Blank Paper ||

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कोरा कागज़...



थोड़ा असमंजस में हूँ, हिंदी में लिखू या गुजराती में.. क्योंकि कोलेब चेलेंज है मोटाभाई का...

एक और असमंजस है, लिखू या नहीं? अगर लिखूंगा तो कागज़ कोरा नहीं रहेगा, और न लिखूं तो झांसाचिट्ठी तो नहीं लगेगी? वैसे तो कागज़ कोरा हो, तब बगैर शब्द का होता है, भाव या तो कल्पना तब भी उसमे बनी रहती है।

कागज़/पत्र लिखने का जमाना तो जा चुका है। वरना कागज़ कितनी ही वेदना के उष्म आंसू, या हर्ष की गाड़ियां,  साथ ही दोकड़ा-आना, कोरी, ढींगला या रानीछाप भी लाते थे। ढेर सारी बाते, या सिर्फ "ढाका कॉन्कर्ड" जितने दो शब्द से लेकर उपन्यास, और महागाथा तक एक कागज़ ने संभाली है। एक बच्चे की कागज़ की नाव से लेकर बुढ़ापे तक चलनी नोट तक कागज़ की खुद की सफर कोई कम थोड़ी है? कागज़ ने कई सारी भावनाएं सम्हाली है, भाषाएँ, अक्षर, अरे स्वयं ने अग्निपरीक्षा देकर स्वयं को नष्ट करके भी रहस्यों को अन-उजागर ही रखा है। किसी प्रियतम का पत्र पढ़ते समय नवयौवना के मुख पर उपजती शर्म की लाल रेखाओ का कागज़ साक्षी रहा है। परदेश-विदेश गए हुए पुत्र का पत्र पढ़ती माता का अंतःकरण कागज़ है। किसी बहन पर आई आफत से भाई के तेतीस करोड़ रोँए होता कम्पन कागज़ ने भी अनुभव किया है। वह बात ही अलग थी, अनुभव ही अलग थी, अब तो कल्पनाए ही हो सकती है। 


मोटाभाई के कारण आज प्रीतम ने वॉट्सऐप और स्नेपचैट के ज़माने में भी पत्रव्यवहार का अखतरा (प्रयोग) आजमाया, मैंने मना किया था कि 'रहने दे, तेरा काम नहीं है।" लेकिन माने वो यह प्रीतम नहीं। पढ़ो आप भी क्या लिखा है उसने,


"प्रियंवदा !

मैं यहाँ राजीखुशी हूँ, तुम भी मजे में ही होगी। मैंने देखा, दोपहर को तुम ऑनलाइन थी, फिर भी रिप्लाई नहीं दी तुम। तुम्हारी स्टोरी देखकर मैंने रिएक्शन भेजा है।

अभी अभी भोजन करके उठा हूँ, तो मन किया की तुम्हे पत्र लिखा जाए। तुम्हे पता है, तुरई के तेल में जलेबियाँ गोल गोल उलझती नहीं है, बल्कि लम्बी लम्बी बांस के सोटे की माफिक बनती है। और हां, आज एक अलग तरह का समोसा देखा है, कंदोई मुझे थोड़ा कच्चा लगा, वरना चीज़ का स्टफिंग करके अंदर जामुन भरकर ऊपर मैदे का आटा में बांधकर समोसा तलते तो वो भोली फिर राजू बंदर का कलेजा मांगती ही नहीं। उतना स्वादिष्ट बनता है। अरे तुम्हे तो पता ही नहीं होगा ना भोली कौन, राजू बंदर कौन.. पढ़ना हाँ! @कमलेश भाई ने लिखी है। लालमलाल भी आते जाते रहते है, आजकल पढ़ने में लगे है ऐसा लगता है। बाकी यहाँ सब ठीक ही चल रहा है, तुम अपनी सुनाना।

ठीक है, आज यह पत्र लिख रहा हूँ, लेकिन पोस्ट कल तक कर दूंगा, दिन की थोड़ी सी कन्फ्यूज़न भी बनी रहनी चाहिए। हैं न..! 

तुम्हारा पाठक !
परदेशी प्रीतम"


अच्छा यहां तक तो मैं और प्रियंवदा दोनों सह भी गए, लेकिन फिर गजा आया, गजा धी ग्रेट.. गजा धी गोली..! उसने यह प्रीतम वाला पत्र पढ़ लिया, क्यों और कैसे वह सब डिटेलिंग आप नहीं जानेंगे तो चलेगा। क्योंकि वह मैंने सोचा नहीं है। और कौन उतने लफड़े में उतरे.. क्योंकि गजा हाथी की तरह सर भिड़ाता है, और अपना तरबूच जैसा सर बस पिचकने से बचाना है। तो गजा बोला, मैं भी लिखूंगा..! मैंने उसे भी मना किया, तू तो चांटे मार ले, लेकिन यह पत्र वाली पंचायत रहने दे भाई..! पर वह भी मानता कहाँ है... लिख लाया.. लो पढ़ो..


"प्रियम्वदा !

सुबह के सविता की सर्वप्रथम रश्मियों की फुहार तुम्हे भेजता हूँ, रत्नाकर की गहराईओं से आंदोलित होते भावो में से स्नेह और दुलार तुम्हे भेजता हूँ.. यह पत्र नहीं है, अंतःकरण के उद्गार तुम्हे भेजता हूँ।

अभी कुछ दिनों से मैं और यह मेरे शब्दों को वाचा देते लेखक अलबेली वायक्यू नगरी में विचरते हुए कई सारे साहित्यिक समुद्रो में नौकायात्रा कर रहे है। कभी किसी के झंझावाती हृदयोत्पन्न दो तुक पंक्तिया आकर्षित करती है, तो किसी की दैनंदनी के नारंगी गोले जैसे द्वीप पर कुछ देर ठहरते है..! फिर निकलते है तो कोई स्वर्णकार धीरे धीरे टीपते हुए स्वर्ण के तारो में वज्रमणि को बिठाकर हृदय को सातवे अवकाश में स्थापित करे ऐसे रत्नजड़ित आभूषण समान उर्दू की ग़ज़लों में गोते खाते है तो कभी तो कोई कहानीकार किसी बालकथा को गिरिश्रृंगो के घुमावदार रास्तो की भांति, या फिर नीरनिधि में उठती लहरों के समान, या ऊँचे से गिरते जलप्रपातों की तरह और रहस्यवादी धारावाहिक की तरह लिखी हुई वार्ताए मन मोह लेती है। और एक तुम हो जो कुछ कहती ही नहीं, अपनी ही उलझनों में व्यस्त।

चौपड़ के मोहरे एक दूसरे को हटाकर जगह बनाते है वैसे ही ठीक अभी संध्या को हटाकर श्याम अँधेरा यहाँ विराजमान हुआ है। तुमसे कैसे विनती करूँ? न ही तुम्हे आदेश कर सकता हूँ। तुम्हारे नाम एक अनजान पत्र यूँ ही सदा भटकता रहेगा।

लिखितं,
गजानंद"


आज फिर भी गजे की भाषा थोड़ी नियंत्रित थी ऐसा अनुभव हुआ। या तो गम नहीं मिले होंगे, या रम मिली नहीं होगी। चलो फिर मैं भी अब विदा लेता हूँ, शाम का समय है, झुकाम लगा है, इलाज तो मुझे भी चाहिए।


|| अस्तु ||


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