प्रियम्वदा ! आकर्षण के सिद्धांत के इर्दगिर्द घूमती एक कहानी पढ़ रहा हूँ.. इतनी रसप्रद नहीं लग रही फिर भी। हालाँकि अभी तो शायद आधी ही हुई है, क्या पता बाकी आधा भाग दिमाग के तंतुओ को हिला दे। कभी कभी वैसे पुरानी यादो में खोना अच्छा लगता है। किशोरावस्था भी कहाँ वापिस आती है? और आज तो शायद बाल्यावस्था के बाद सीधा ही यौवन आ जाता है इस फोन के कारण। किशोरावस्था संधिकाल है बाल्या और युवावस्था का। फोनमे सोसियल मिडिया है, और सोसियल मिडिया पर किसी का भी एकाधिकार या नियंत्रण तो है नहीं। किशोरावस्था में ही शायद सब पहली पसंद से आकर्षित होते है। और वह पहली पसंद जीवनभर याद रहती ही है।
क्या हो अगर एक लड़का और एक लड़की दोनों एक दूसरे को पसंद करते है, लेकिन दोनों ने एक दूसरे को कहा नहीं है? दोनों आमने सामने होते हुए भी कुछ कहते नहीं एक दूसरे से। दोनों बात भी नहीं करते पर दोनों एक-दूसरे के बारे में सोचते जरूर है। लड़के ने एक बार हिम्मत की, आगे बढ़ा उसके नजदीक तक पहुंचा लेकिन बिना कुछ कहे ही लौट आया। क्यों? क्योंकि स्वयं की क्षमता को आजमाने से डर गया, एक ख्याल खुद ने ही सोच लिया की बिना कहे उसके सामने तो हूँ, कह दिया और कहीं प्रत्यक्षता भी चली गई तो? बस यह कल्पना ही एक नवलकथा का प्लॉट बन सकती है.. है न? तो लिखो तुम, अपने पास इतना टाइम नहीं..
ऑफिस में दिनभर में इतना जूठ बोलना पड़ रहा है आजकल.. बस खाली शांति बनाए रखने के लिए। कभी कोई ड्राइवर आता है, "मेरे पेपर दो।" कभी कोई आता है "मेरी गाडी का आज दूसरा दिन है, कब भरेगी?" कभी कम्प्यूटर के नाम पर तो कभी गवर्नमेंट साईट नहीं चल रही ऐसे ऐसे बहाने मार कर शांत करना पड़ता है.. कभी कभी तो लगता है कि जूठ बोलना स्वभाव न बन जाए..! कभी किसी पर गुस्सा करना पड़ता है, कभी किसी के आगे मजबूर होने का स्वांग रचना पड़ता है, बस खाली पेमेंट का व्यवहार सँभालने के लिए। वाकई दुनिया एक रंगमंच है..
|| अस्तु ||