अभी कुछ दिनों से दिमाग भी ठंडा पड़ा है..! दिनमें एकाद बार लिखने की तीव्र इच्छा हो जाती फिर काम का बोझ या आलस्य उस ज्वालामुखी के मुहाने पर बादल बन बरस जाता। वैसे कुछ तो पारिवारिक और व्यावसायिक तंत्र में उलझा हुआ दिमाग लिख भी क्या ही लेता। आज कल इंस्टा पर में ज्यादा घूम रहा हूँ। रिल्स पहले भी देखता था, लेकिन अब शायद कुछ ज्यादा ही देख रहा हूँ। पहले फ्री होते yq खुला करता था, अब इंस्टा। वजह है, एड देखने की दस मिनिट बचती है वहाँ। पांच मिनिट तो "please try after some time" ही लिख के भेजते है yq वाले।
तो इसी उधेड़बुनमे कुछ लिखू ना लिखू करते करते आज फिर इंस्टा में घुस गया.. कलाकारी यहां भी कमतर नही है.. हाँ वॉलपेपर वगेरह स्वयंसे बनाना पड़ेगा। उसमे तो मुजे कोई कठिनाई नही है। वैसे मुजे भी आज हिंदी लिखने का कीड़ा जाग ही उठा.. वैसे कुछ दिनों से पढ़ भी हिंदी ही रहा हु..! खिड़की, मिडनाइट डायरी, तुकबन्दी, अपनी हिंदी, वगेरे अच्छे खासे पेज है इंस्टा-हिंदीमें.. अब जैसा खाओगे वैसा ही ***, तो हिंदी में लिखनेका रहस्य भी यही है.. (બાકી ગજો ને ડાઘીયોય હમણાં બા'ર-ગામ ગયા છે એલા..!!)
वैसे इंस्टामें मीले भी yq वाले ही है..!! कवि, कवियत्री, लेखक, लेखिका... और एकसे बढ़के एक उपनाम.. एक दो दिसम्बर के दीवाने भी देखे..। यह समझ नही आया लेकिन पढ़ के अच्छा लगा। खाने के, सोने के, सोने-जवाहरात के, पीने के भी दीवाने देखे है, लेकिन 'दिसंबर' के भी दीवाने होते है यह अब ज्ञात हुआ। फिरभी लेखनी कमाल है उनकी..!! ऐसे ही एक दिन Yq में एक id में घुस गया.. अच्छा लिखते, वैसे बहोत अच्छा लिखते है। मेरा किसीको पढ़नेका तरीका ही ऐसा है कि, एक साथ ढेर सारा पढ लो.. लाइक और कमेंट की नोटिफिकेशन पैनल में लाइन लगनी चाहिए...! तो अब उनको में पढ़ रहा था दो-तीन कमेंट ही दी होगी, उतने में मेरी एक पोस्ट में उनकी कमेंट आ गई, "तुम भी गुजराती हो न?" एक बार को तो मेरा माथा ठनका कि मतलब क्या है?.. फिर सोचा रहन दो। हरिओम तत्सत॥
पता नही लेकिन जहां देखो वहां इश्क के बीमार बैठे है.. ऐसा है, जहा भी पढो, बस प्रेम तथा वियोग.. बिछड़न.. (में भी तो वियोग ही लिखता हूं, भले ही कभी कभी..) ऊपर से यह ठंड, वियोगीओकी प्रिय या घातक ऋतु..! जैसे मोर को वर्षा, चातक को वर्षाबुंद, और चकोर को चंद्र प्रिय है। नखशिख कपकपाती यह ऋतु वैसे तो मुजे सबसे अधिक प्रिय है। क्योकि इसी ऋतु में तो मेरे प्रिय कार्य सबसे अधिक होते है, भोजन और निंद्रा..!! नही, कभी कभी वांचन भी कर लेता हूं। भारतके राष्ट्रीय शायर (गुजरातके ही है, मो.क.गांधी ने कहा है तो मान लो…) ज़वेरचंद मेघाणी की एक पुस्तक है, परकम्मा.. वियोग की एक बहोत ही सुंदर पंक्तिया पढ़ने मिली वहां.. वैसे यह पुस्तक लगभग ९-१० साल पहले पढ़ी थी.. किसी बिजोगन का हृदय दर्शाता खंडित त्रोटक पद,
रणमें लरनो,
गिरिसे गिरनो,
असिधार पे सेन सदा करनो,
नभमे फरनो,
अगनि झरनो,
एम पाय पनंग सिरे धरनो,
वखसे मरनो,
दधिको तरनो,
अरु काश करत्त सिरे धरनो,
सब सेल घणो,
अरु एक बूरो,
पतिसे पल एक जुदो परनो।
अर्थात, " रणमे लड़ना, गिरिसे गिरना, तलवार की धार पर सोना, आकाश में घूमना, अग्निवर्षा होती है ऐसे झरने में जाना, सांप के सिर पर पैर रखना, विषसे मरना, समुद्र को तैरकर पार करना, और काशीकी करवत शिर पर लेनी, (हमारे यहां ऐसा कहा जाता है / माना भी जाता है की काशीका मरण मोक्ष देता है, तो पहले लोग काशी में मृत्यु ना भी आये तो बडी सी करवत द्वारा स्वयं ही मृत्यु के शरण चले जाते थे), यह सब आसान है, पर मुश्किल फक्त एक अपने पति से एक पल का भी वियोग..
सही बात है, स्नेही से वियोग भी मृत्युदायक तो है ही..
और वहां एक समस्यागीत भी था, शायद झुलणा है,
चडी नार पुरुष पर अभेरूप धरवा सरस,
बराबर समाधि करी बैठी,
मानवी कारीगर लोक एने मल्या,
हुकमथी उतारी मांड हेठी,
उतारी हेठ त्यां सत चड्यु अति,
अगनमा बळवा करी आशा,
बळीने अगनथी निकळी बारणे,
रूप जोई जोगेसर तरत राच्या,
स्वरूपे ठीक ने वळी नगन छे सदा,
भजे सर उपरे छत्र भारी,
रातदन हुताशण आ'र करती रहे,
नाम को काळुभा कवण नारी?
कोई कवि! काळुभा को समस्या पूछ रहा है, पुरुष पर चढ़ कर अभय रूप धारण करने बैठी हुई, या फिर किसी कारीगरने मुश्किल से उतारी हुई, या फिर सति होने को अग्नि में जा बैठी, या फिर जलकर बाहर निकली हुई, सदा नग्न, शीर्ष पर छत्र को धारण करने वाली, और रातदिन हुताशन(अग्नि) का ही आहार करने वाली वह नारी कौन है?
वह नारी है चिलम.. कुम्भार के चाक रूपी पुरुष पर चढ़ कर, भठ्ठे के अग्निमें बैठी, सुंदर गौरांगी बनी, तथा जोगीओने उसे पी, और अग्नि ही तो उसका आहार है..!!
और यह चिलम पढ़कर मुजे फिर से हिरणके किनारे वह विविध हस्तमुद्रा द्वारा आराधन करता अघोरी याद आ गया..! जो अपनी ही साधनामें मस्त, व्यस्त रहनेवाला..! उसकी तीक्ष्ण दृष्टिने मेरे वहां होने का अनुभव तो किया था, पर जैसे बेध्यान होकर अपनी सर्व क्रियाओ का निर्वहन कर गीर की कंदराओंमें गुम हो गया था। और याद आ रहा था, तुलसीश्यामकी उस शीतल रात्रि में मिले उस बाबा का आग्रह पूर्वक चिलम के एक कस का निमंत्रण.. और फिर भौर चार बजे खुली आंखे..!! हाँ, नही हजम होता। ऐसा कस बीड़ी, सिगरेट में कहाँ? मुख द्वारा फेफड़े के अंतिम छौर तक फुलाई छाती में भरा यह धूम्र पता नही किस मार्ग से मस्तिष्कमे जाकर वहां सर्व तंतुओको छेड जाता है, और फिर आता है याद.. "શું પૂછો છો મુજને કે હું શું કરું છું, મને જ્યાં ગમે ત્યાં હરુ છું ફરું છું..!!"