The court of smoke and nightmares || धुंआ तथा दुःस्वप्नोका न्यायालय..!! भाग ३ ||

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समचारपत्रोंको फिर हेडलाइन मिल गई.. जजने वकील धुंआधार को कहा "फीका चितकबरा"…

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फैसला होना था, उस कहानी का, कठघरे में खड़ी कहानी जमीन को ताक रही थी। पीढ़ियों पुराने प्रसंगोको समाये बैठे पन्नो से भरी फाइलों में लिखित पाप की गंध पूरे कमरे मे फैली हुई थी। टाइपराइटर और घड़ी की टकटक के अलावा वहाँ नीरव शांति थी। कभी कभी कोई पत्रकार एक दूसरे को खुसरपुसर कर पूछ रहे थे, "कहानी का क्या दोष, उपरसे उसका वकील खाली नाम का धुंआधार निकला, जरा सी भी ज्वाला उसने जताई नही.. और ये गुस्सेल जज, पता नही क्या होगा अब इस कहानी का.."

हड़बड़ाहट के साथ जज के सम्मानमें पुरा कमरा जैसे खड़ा हो गया, एक दो जगह कोई बेध्यान होकर गिरा ऐसी आवाज भी आयी, लेकिन नाक पर आए चश्मे को आंखों पर चढ़ाते जज पूरणने कमरे में दाखिल होते ही एक तीक्ष्ण दृष्टिपात द्वारा पूरे कमरे की हिलचाल को अनुभव कर लिया हो ऐसे अपनी कुर्सी पर आसन जमाया। उतने में ही पीछेवाला दंडधारी चिल्लाया..."कहानी हाजिर हो.." जजने घुमाके कोनी मारी, "देख तो लिया कर, वो पहले से ही उधर खड़ी है..!!" और खिसियाया दंडधारी उल्टा मुंह करके रोकरके वापस अपनी स्थितिमे खड़ा हो गया।

जज : "तो भई सरकारी पगारवाले, फैसले से पहले कुछ भाषण-वासन देना है तो छूट है, बाद में कोई बोलेगा नही की जजने बोलने को बोला नही था।"

नींद में से जैसे जाग रहे दुःस्वप्नदासने बिल्कुल आराम से मानो पैरोमें लगी मेंहन्दी विगड़ न जाये ऐसे, बहोत नाजुक कदम से आगे बढ़कर अपना वक्तव्य शुरू किया.. "माननीय जज, तथा सभागण, जैसे कि मैंने पहले ही अपने तर्कों द्वारा यह स्पष्ट किया है की कहानी अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन कर नही पाई है, उसमे भाव परिपूर्ण था, उसे लिखी भी सही तरीके से गई है, फिर भी वह अपने निर्धारित लक्ष्यको यदि प्राप्त नही कर पाई तो वह दोषी है।" और सरकारी पगारदार आलस्यका आशिक दुःस्वप्नदास अपनी वाणी को विराम देते हुए, जैसे इतना बोलने में भी उसने अनहद ऊर्जा का व्यय किया हो, वह अपने स्थान पर जा बैठा।

जज पुरनने मुंह झुकाये बैठे धुंआधारकी ओर देखा, "तू भी बोलले कुछ बचा हो तो.. या कर दूँ फैसला?"

हार की कगार पर खड़ा धुंआधार अपनी बात को सही से व्यक्त कर नही पाया था, उसके साक्ष्यसे अपने पक्षमें बात बुलवा भी नही पाया था। उसने हारी हुई आंखों से कहानी की ओर देखा, कहानी की आंखोमें कोई भय के चिन्ह नही थे, बल्कि उमीद की आशा थी, जीत का जज्बा था, धुंआधार के बदले जजके सामने वह ही बोल पड़ी, "आपकी आज्ञा हो तो में कुछ कहना चाहूंगी।"

जज ने मुस्कराते कहा, "तुमहिको तो सुनना था मुजे।"

कहानीने अपनी बात रखते कहा, "वैसे तो जीवित प्राणी या मनुष्यो में ही द्विज होते है, पर में कहानी भी द्विज हूँ। हाँ! मेरा भी दो बार जन्म हुआ है, एक बार तब जब मैं लेखकके हृदयसे विस्थापित होकर उसके मस्तिष्कमे जन्मी, तथा उसके पश्चात तब जब उसने मुजे कागज पर उतारा। अब मेरा दोष क्या और कितना है यह तो मुजे ज्ञात नही है, किन्तु में अपने तात - मेरे लेखक - को भी दोषी नही कह सकती जिसने मुजे ऐसा बनाया। उन्होंने तो उनके हृदयमे विश्लेषित बहोत से भावो के मध्यसे मुझे चुना था। उस कागज का भी कोई दोष कैसे हो सकता है, जिसने अपनी सीमाओं के भीतर मुजे स्थान तथा संरक्षण दिया। उस वाचकका भी क्या दोष कहुँ जिसने अपना समय देकर मुझे पढा, तथा यथोचित ज्ञान/विनोद मुझसे प्राप्त किया। हाँ, किसी का दोष निकाल नही सकते। किन्तु, आपका सिद्धांत है, यदि सर्जन में कोई क्षति है तो उसका दोष सर्जक के हिस्से होता है, जैसे सर्जनसे प्राप्त अर्थ पर उसके सर्जकका अधिकार होता है। यदि मुजमे कोई क्षति है तो वह मेरे साथ साथ मेरे लेखककी भी मानी जायेगी। तथा इस उपभोग के उपभोक्ता का भी उतना ही दोष है, जिन्होंने कहा, कहानी का दोष है, मेरे तो न हाथ है न पैर, मेरे पास बस मुंह है, जिसके द्वारा में अपने लेखक की लेखनी को दर्शाती हूँ, उसकी कल्पनाओमे वाचकको अनहद हिचकोले खिलाती हूं, उस ही के लिखे भावो से वाचक को रुलाती हुँ, हँसाती भी हूँ, कभी क्रुद्ध भी करती हूँ, कभी शांत भी, कभी प्रेम के मध्यसागर में उसे डुबाती हूँ, तो कभी विरह के किनारे उसे सहायता का आशातुर भी करती हूं। मेने ही रामका सीता से वियोग सुनाया है, मेने ही महाभारत के मैदान में कृष्ण के कहे गितासार को जनमानस तक पहुंचाया है, मैं ही हूँ जो भाषा के बंधनों से मुक्त हूँ, में वाचकको व्यक्त हूँ..। मेरा कार्य है, लेखकके भाव को अभिव्यक्त करना.. वह उसने मेरा सर्जन करते समय मुजमे बुना है, यदि मर्म समझ नही पाया तो वह वाचक भी दोषी है। हर कोई दोषी है, वह समाचारपत्र वाला भी दोषी है, जो अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरुपयोग करता है, वह जज भी दोषी है, जो तर्को तथा साक्ष्यो के आधार पर किसी निर्दोष को भी सजा सुनाने को बाध्य है। और कहानी.. यानी मैं भी उतनी ही दोषी हुँ.. हम सब दोषी है..! हम सब सजा के अधिकारी है..!"

और जैसे किसी की मृत्यु पश्चात की शांति, या मानो तूफान के पहले की शांति, या मानो की एक महासंग्राम की अंतिम संध्या को यमदूतों के परिभ्रमण के पश्चात बचने वाली नीरव शांति, आज इस कमरे में थी.. किसी के मुंह से एक शब्द नही निकल रहा था। समाचार पत्र वाले भी चकित थे, कोई हेडलाइन न मिलनेके कारण और तभी वह मेदनी से एक व्यक्ति उठा.. दोनो हाथो द्वारा जोरो से ताली बजाई, और फिर तो पूरा कमरा ही तालियों के गुंजारव से गर्जित हो उठा..!! जज के पीछे खड़ा दंडवाला भी दंड को बगलमें दबाकर दो तालिया बजाकर पुनः दंड को हाथमे लिए खड़ा हो गया..!! "हाँ! सही बात है, में हूँ दोषी, में तुम्हारा सर्जक हूँ, क्षति तुममे नही, मुझमे ही होनी चाहिए, यदि में अपनी बात को सही से तुम्हारे रूपमे व्यक्त नही कर पाया तो..! लेकिन मेने तो तुम्हारा सर्जन केवल मेरे ही मनोरंजन हेतु किया था, लेकिन तुम्हारे सर्जनके बाद मेरी ही तुमसे अपेक्षाए बढ़ गई उसका परिणाम यह हुआ कि आज तुम्हारे अस्तित्व पर ही पक्ष और दलीले दी जा रही है..!!"

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समचारमे आई हेडलाइन अनुसार, "जज पुरनने लेखक मनमोजीको कुछ ढंगका लिखने की  चेतावनी देकर कहानी को निर्दोष मुक्त किया।"

"अस्तु"

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