क्या कर रहा हूं में? कुछ नही बस गुनगुना रहा हूँ.. || DIARY THOUGHTS, HINDI SHER-O-SHAYRI AUR BAS BAATEIN...||

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क्या कर रहा हूं में? कुछ नही बस गुनगुना रहा हूँ..


ज़िंदा हूँ लेकिन, कहाँ जिंदगी है..?

मेरी जिंदगी लेकिन कहाँ खो गई है..!


वो होता है ना एक ऐसा पीरियड जब, तुम्हे लगता है, आज मुजे जो करना है, उसकी कैपेबिलिटी मुजमे है, लेकिन अब कर नही सकते, क्योंकि वक्त नही है, और जब वक्त था तब कैपेबिलिटी नही थी। जैसे मानो की घूमने जाना है कही, पहले पैसे नही थे अब वक्त नही है..! होता है ना ऐसा..?


दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आता है, की,


“तुम्हारे पैर के नीचे कोई जमीन नही है,

कमाल ये है की फिर भी तुम्हे यकीन नही है..”


वो नया क्रश वाला आशिक कहां जमीने नापता है, उसे तो बस आसमान से भी ऊंचा उड़ना होता है..! वो चोर नज़रसे उसे देखना, अगर आंखे चार हो जाये तो थोड़ा झिझकना.. होता है ना.. उसे याद कर कर गुनगुनाना.. कौनसा गाना पता है.. "अभी न जाओ छोड़कर.. के दिल अभी भरा नही.." लेकिन फिर कमबख्त आये बिछड़न..


ग़ालिब ने कहा है ना कि,


“दिले-नादां तुझे हुआ क्या है 

आखिर इस दर्द की दवा क्या है..”


सबके साथ होता है, की उस वक्त उसे वो बात कह देता तो आज बात कुछ और होती.. है ना..! हाँ! फर्क वहीं है, जिस वक्त तुम्हे कुछ कहना होता है, लेकिन तुम कहते नही, या फिर कह नही पाते, या फिर ऐसा भी तो होता होगा न कि अपने ही मन मे परिणाम सोच कर बैठे हो, और उस ख्याली परिणामके भय के मारे कह न पाए हो..! लेकिन सोचो, कह दिया होता तो, आज की स्थितियां कुछ भिन्न न होती? लेकिन अब, महफ़िल में हाथमे ग्लास है, और लड़खड़ाती जुबाँ कहती है, "याररर.. काश उस दिन कह दिया होता.." 


लेकिन उसे भी क्या कहे जो सिर्फ कल्पना ही कर रहा है, या फिर यूँ कहूँ की उसे छोड़ भी नही पा रहा और उसके बिना जी भी.. या कोई ऐसी स्थिति की कल्पना करूँ की, वो आपके साथ है, लेकिन उसकी आपके प्रति अपेक्षाए उतनी बढ़ गई हो, जो आपकी क्षमता से ऊपर हो.. जो भी हो, लेकिन जख्म कुतरना अच्छा तो नही.. है ना..! वो कहते है ना कि पुराने जख्म सर्दियोमें दुखते बहुत है.. वैसे इसे सर्दभरी रात कहा जाए या दर्दभरी रात..!


निदा फाजली ने कहा है ना कि,


“बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नही जाता,

जो बीत गया है वो गुजर क्यों नही जाता..”


नही गुजरता ये दर्द दोस्त.. शायद उम्रभर.. पता नही।


वो शब्द है न एक "इंट्रोवर्ट".. वैसे कौन होते है ये इंट्रोवर्ट? तुम्हे भी लगता है, मानो आजकल कुछ नए नए शब्दो ने हमारे जीवनमे एक अलग ही हलचल ला के रखी हो.. जैसे ये क्रश हो गया, ये इंट्रोवर्ट.. लोग कुछ ज्यादा ही महत्व देते है इन शब्दों को। अरे अगले का स्वभाव ही ऐसा है, की उसे नही पसंद किसी का साथ.. और दुनिया मे भी आजकल यही ट्रेंड चल रहा है.. बिना पथिक बिना पथ के दौड़ लगाने का जमाना है.. खैर, एक वो बात भी तो है, की जो अपने को जान रहा है, उसे दुसरो को जानने की क्या जरूरत..! जब तुम अपने आप की कंपनी पसंद कर रहे हो, फिर क्या परवाह लोग आपको इंट्रोवर्ट कहे या.. कुछ और। मुजे लगता है कि इंट्रोवर्ट होना भी अच्छा ही होता होगा, कम से कम लोग आपसे अत्यधिक expectations तो नही रखेंगे..! पता है, मनमौजी है, खुदमे खोया रहता है..! ना ना ना.. मेरी बात नही कर रहा मैं। मुजे लगता है मैं दिशाहीन हूँ.. कभी कुछ करता हूँ कभी कुछ..!


कवि प्रदीपने कहा है ना,

“कभी कभी खुद से बात से करो, कभी खुद से बोलो,

अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो..”


वो तुम्हारे साथ भी होता होगा कि, तुम किसी की बाते बड़ी शिद्दत से सुनते हो, उसे जो भी कहना है उसने कहा, तुमने बड़े गौर से सुना भी, लेकिन जब तुम कहने लगे और वह अपनी अन्य लक्ष्यों में व्यस्त हो गया हो..! या फिर तुम्हारी कही बात तो सुन रहा हो, पर बस सुनने खातर, बस दिखावे के सुनना, बस बेध्यानीसे, या बस खाली "hmmm" कह के आपकी बात को उतनी importance न दे रहा हो.. होता है ऐसा? हुआ होगा। 


लेकिन फिर भी ह्रदय क्या कहता है? 

“रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ..!”

अहमद फ़राज़


पता है, किसी के छोड़ जाने के बाद, या फिर किसी से दूर रहने के बाद, या फिर कोई पुराना रिश्ता याद आने के बाद अच्छा क्यो नही लगता? आदत हो जाती है शायद.. क्या तुम्हें भी कोई वर्षो पश्चात याद आता है? जैसे हम उन्हें याद कर लेते है, कभी कभी उनका चेहरा आंखों पर्दे पर चमक उठता हो, कभी कभी लगता हो कि वही थे जो अभी सामने से गुजरे.. या जैसे कोई रेडियो पर बज रहे गानों के बीच कोई पंक्ति आ जाए जो तुम्हे उनकी याद दिला दे.. क्या उन्हें भी ऐसा होता होगा? क्या उन्हें हमारी याद कभी नही आती होगी? क्या उन्हें हमे देखने की भी इच्छा नही होती होगी.. अब तो सब सोशियल मीडिया पर Active रहते है, वो अंग्रेजी का शब्द है ना "स्टॉक" करना, क्या वो भी ऐसा करते होंगे? या नही.. ये सब तो बस खयाली पुलाव है..! वो तो हमे भूल चुके होंगे अब तक.. हम ही है जो मन का एक कौना आज भी उनके लिए सजाये बैठे है..! बस तकलीफ वहीं है, की कभी कभी उस कौने में दस्तक दे आते है, फिर बस खुद ही खुद के घाव कुरेदते है..!!! निकलो बाहर उस चीज से.. जब तक तुम उस चोट को भूल नही जाओगे, उस चोटिल निशान को देख देख कर खुद ही तड़पोगे तब तक आगे कैसे बढ़ोगे? Move on करना भी तो जरूरी है.. सही वक्त, सही समय पर बस तुम आगे बढ़ जाओ तो जिंदगी काफी है.. बाकी सब माफी है..! है ना..!!!


आखिर में..

“ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले 

ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है…॥”

अल्लामा इक़बाल

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