मन के झरने के आगे बाँध तो होता ही है न, लेकिन इस ह्रदय का क्या करे..! जहाँ देखो वहाँ कुछ न ढूंढता फिरता रहता है, हालाँकि अच्छे से जानता है, की वे अब न लौट पाएंगे, शायद कभी नहीं। वो सच ही कहा था उस गाने में "दिल तो बच्चा है जी.." बालहठ के आगे कौन टिक पाया है, हृदय भी तो कभी कभी ऐसी हठ ले बैठता है... ख़याली दुनिया किसे अच्छी नहीं लगती, लेकिन वास्तविकता उससे भिन्न होती है... हैं न?
वैसे सब जानते है इस महोब्बत के लाभालाभ.. लेकिन फिर भी करते है..! मुझे कभी समझ न आये वे भाव जो मेरे मन में उपजते थे.. की क्यों में उनके बारे में सोचता हूँ.. वो शब्द है न "OVERTHINKER" हाँ! वही वाला मैं भी हो चला था..या आज भी हूँ..! स्वगत ही सोचता रहता हूँ, वैसे सुना था जो सोचते ज्यादा है वे लिख भी ज्यादा पाते है, हालाँकि अपने अनुभव से मुझे तो लगता है की ऐसा नहीं है..! ज्यादा सोचने से सिर्फ पीड़ा ही होती है, फिर कागज़ पर यह उतरती है! मेरे जैसे मुर्ख इन्हे लोगो के समक्ष रख देते है, कुछ लोग इस पीड़ा का स्वयं अनुभव करते है, कुछ लोग इसे बस मनगढंत वाकिया पढ़ लेते है, कुछ लोग इसे भावात्मक देख के वाहवाही करते है फिर वे भी अपनी महोब्बत की दुनियामे चले जाते है..! हाँ, सबका अपना जीवन है, अपनी महोब्बत..!
सुनो, ये पेरा आपके लिए है, आपको इतना नहीं जानता मैं लेकिन आपको पढ़ता तो हूँ तो सचमें मैं खोने लगता हूँ उन कॉलेजवाले दिनोंमें। जिन दिनों मैं कुछ कूल डूड्स 'सितार के अंग्रेजी माध्यम में पढ़े सुपुत्र गिटार' को काँधे पर टांग के चलते है, मैं तब लाइब्रेरी मैं बैठा साहित्य का रसपान किया करता था..! था तो मैं भी गरीब बाप का बिगड़ैल बेटा। पढ़ाइमे गुजराती से सीधा अंग्रेजी माध्यम हुआ तो मेरा अविकसित दिमाग़ सेट नहीं हो पाया, और हुआ डीटेइन..! लेकिन हाँ फिर भी इस बिगड़ैल का भी शीड्यूल तो हुआ ही करता था..! दो बातो में सबसे ज्यादा रसिक था.. एक थी साहित्यिक किताब, दूसरी थी सिगरेट.. पढाई और साहित्य का तो पता नहीं पर सिगरेट में इतनी महारथ हांसिल करी थी के माचिस की आखरी तिल्ली से चलती बस की छत पर बैठे सिगरेट सुलगा लेता था.. ये कोई पराक्रम नहीं है... पर पता नहीं क्यों आज बस लिख दिया। लिखने की वजह भी तो आप हो.. आपकी ही लेखनी ने मुझे भूतकाल में भेज दिया है.. जब मैं कलापी को पढ़ कर वैचारिक सृष्टिमें चला जाता था, रात रात भर उस अधूरी महोब्बत के नाम जगता, भौर हॉस्टल की दीवाल फांद कर बहार ही दुकानवाले के पास पहला सिगरेट का ग्राहक मैं ही तो होता था..! फिर उस धूम्र की ओझल हो रहे परदे में उनका चहेरा ढूंढता.. और परिकल्पना करता की क्या वे भी मुझे याद कर रहे होंगे, कोई फरियाद की होगी उन्होंने मुझसे अपनी डायरी के किसी कोने में? कहाँ... आपके पेरा में मैं किन बातो मैं उलझ गया। वैसे तारीफों के पन्ने क्या भरने, क्यों भरने, मैं शायद हमेशा से सोचता था की, कोई कुछ लिखता है, उसे दाद क्यों देनी, उसने अपना सर्जन जिनके लिए किया है उन तक पहुँच ही जाता होगा, हम उन दोनों के बिच में आने वाले कौन होते है? क्यों किसी की पोस्ट मैं कमेंट्स करनी, पर जब मैंने कुछ लिखा, उन तक नहीं पहुँच पाया लेकिन औरो ने जरूर सराहा, तब मुझे मालुम हुआ की, भाई प्रशंशा चीज तो बड़ी अच्छी है..(LOL) बहोत सी ऐसी अवधारणाएँ होती है जो कभी न कभी तो भंग होती ही है, मुझे लगता था पंक्तियाँ रची जाती है, फिर ऐसा वक्त आया की पंक्तिया स्फुरित ही होने लगी, लेकिन आज अकाल पड़ा है..! शायद आपके साथ भी होता है, सबके ही साथ होता है, मेने एक वाकिया सुना था, कोई कवि थे, बहुत अच्छा लिखते थे, फिर अचानक से उन्हें लगा की वे अब लिख नहीं पा रहे, लेकिन कुछ आठ-नौ साल बाद फिर से उन्हें काव्य-स्फुरणा हुई और वे बहोत प्रसिद्द भी हुए..! मैं सोचता था, छंद लिखना कोई बड़ी बात नहीं, लिखे है मैंने, एक डायरी तो आधी से ज्यादा भर भी दी, लेकिन यह सब स्फुरणा का खेल है अब ऐसा लगता है, क्योंकि, अब जब लिखना चाह रहा हुँ, तो कोई संवेदनाए प्रकट नहीं हो रही..! लेकिन कभी तो होगी, कुछ प्रसंग ही ऐसे बन जाते होंगे जब ये कवित्व स्वयं ही साक्षात होने लगे..! आप सोच रहे होंगे मैं भी कहाँ मास्टरगीरी करने लगा? मैं अवश्य चाहता हुँ, आपको पढता रहूं, मैं चाहता हूँ आपको पढ़कर फिर से उन यादोंकी पहाड़ों वाली वादियों में फिरता रहुँ, मैं चाहता हूँ आप लिखते रहे, लेकिन हां, मैं थोड़ा जड हूँ, जिसे आपकी कुछ पंक्तियाँ अंतर तक जगा जाती है.. तो लिखते रहे.. रुके नहीं..!!
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मेरी यादशक्ति इतनी क्षीर्ण हो चली है की, मुझे अपना ही लिखा भी याद नहीं रहता, पर चमड़े के आवरणमे सजी यह डायरी मेरे पुराने भाव को आज भी उसी स्थिति में लिए बैठी है, उस उपवनमे कभी सुगन्धित कुसुम खिले है, कभी लताओंके परदेने द्रस्टिबंध किया है, कभी शुष्क समीरने पतझड़ लाइ है, कभी अकाल ने निःशब्द किया है तो कभी रस की अमीबूंदोने इसे पुनःजीवित भी किया है..! लेकिन कब तक मैं इसी ख़याली दुनियामे विचरता रहूं, कब तक मैं बस आशाओं के आशरे बुद्धिहीन की भाँती पड़ा रहूं, कब तक इंतजार करुँ? बताओ..
और प्रत्युत्तर मैं कहीं तो बज उठता है..
बेरंग सी है बड़ी ज़िन्दगी कुछ रंग तो भरूँ
मैं अपनी तनहाई के वास्ते अब कुछ तो करूँ
जब मिले थोड़ी फुर्सत, मुझसे कर ले मुहब्बत
है तुझे भी इजाज़त, कर ले तू भी मुहब्बत....
बेहद ख़ूब! Meenakshi Shukla
ReplyDeleteबहोत बहोत शुक्रिया...!!
Deleteयूँ ही विचार श्रृंखला से जूझते हुए हम उलझ जाया करते हैं और 'ओवरथिंकिंग' ले डूबती है। लेकिन इन पंक्तियों में जैसे आपने एक-एक विचार बाँध लिया है,वो भी इतनी सहजता से! साधुवाद!
ReplyDeleteबहोत बहोत शुक्रिया...!!
Deleteकितना खूबसूरत लिखा आपने👏👏👏👏
ReplyDeleteबहोत बहोत शुक्रिया...!!
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