पता नही, क्या लिखूं..! सब कुछ तो तुम्हे पता है। मेरी चा (चाय) से लेकर बियर तक..! उंगलियों की दरारे बता दे उतने दिन बचे है इस अंग्रेजी कैलेंडर को खत्म होनेमें.. कड़ाके वाली सर्दी अभी शुरू कहां हुई है? फिर भी यह जिंदा चमड़ी सूखने लगी है। शक्य भी कहाँ था कि तुम आकर इसे अपने मृदु स्पर्शसे पुनःजीवित कर दो। तुम अपने आप में व्यस्त हो, मैं मेरे विचारों में मस्त हूँ। इस बियर के ठंडे कैन पर झीनी झीनी बूंदे आकर रिस रही, उस दिन पहली बार मेरा हाथ तुम्हारी कौनी से ऊपर छू गया तब ऐसे ही मेरे कपाल पर स्वेदबून्दों ने साम्राज्य स्थापित किया था। यह कैन तो लोहे का है, उसमे कहाँ कोई भाव है, भावविहीन यह डिब्बा भी मन के कोई पुराने संदूक खोल जाता है.. हद है।
साइकिल के पहिये घिस गए थे मेरे, तुम्हारे आगे-पीछे चक्कर काटनेमें। तुम्हे भी तो पसंद था मेरा यूं तुम्हे चिढाना की, मैं बस तुम्हे देखु, लेकिन बुलाऊ ना..! हाँ उन दिनों, मैं तुम्हारे चेहरे को बस मन भर भर कर देखता था, तुम्हारे कानो में झूल रहे वे कुण्डल मुझे आज भी अच्छे से याद है.. वो मुझे आज तक पता नही चल पाया कि उस दिन मैंने तुम्हें तुम्हारा खोया हुआ कुण्डल लौटाया वो वाकई खोया था? सचमें मैं आज भी मूर्ख ही हूँ, जो तुमसे कुछ भी न कह सका, शायद मैं कायर हूँ, भीरु हूँ, मैंने अपने ही मनमें अपनी इच्छा के लाखों परिणाम गढ़े, तुम मानोगे नही, उन लाखों परिणामो में मेरी पराजय ही मुझे दिखी थी, शायद मैं निराशावादी भी था या हूँ..!
ठंडक का त्याग कर रहा यह बियर-कैन टेबल पर वर्तुलाकारमें अपने पदचिन्ह छौड़ रहा है मानो.. लेकिन तुम्हारे पदचिन्ह मुझे कहीं न मिले, पता नही किस दुनियामें चले गए हो? इस पृथ्वी पर मुझ अकेले जड़ को छौड़कर किसे चेतनवंत कर रहे हो?मैं इस भाग्य के कटु अध्याय को अब घोलकर पी चुका हूं, मैं स्वीकार भी कर चुका हूं कि अब वह समय लौटकर नही आता.. पर आज भी वह टीस तो उठती ही है, की बस एक बार तुमसे रूबरू हो पाऊँ, ऐसे भी कहाँ अदृश्य हुए हो कि आजका महाकाय सोशियल मीडिया भी मुझे तुम्हारे दर्शन नही करा रहा? मैं जब भी मेरी तुम्हारे प्रति की संवेदनाये व्यक्त करता हूं तो शायद मेरी सर्व कल्पना शक्ति छूमंतर हो जाती है, जो तुम्हे लिखता हूं, जो तुम्हे कहता हूं, उसमे बस रसहीन वाक्य होते है, जो शायद मेरे मन से.. ह्रदय से निकलते हो, जिनका उद्देश्य सिर्फ तुम्हे पुकारना होता है, हाँ लगता है थोड़े भावहीन है, किन्तु ऐसा है नही.. भला तुम तो जानते ही हो..!
साकी क्रूर हो तुम, गिलास भरो! नेत्रसे कुछ नही टपकता अब मेरे। हाँ, भरी महफिलमें तो कतई नही। आबरू का साफा सजा है सर पर। आबरू ही तो है शायद जो कईओ को रोक लेती है, कुछ करने से। फिर बस घूंट पर घूंट पी..साकी..!!!
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अभी अभी तो आई हो,
बहार बन के छाई हो
हवा ज़रा महक तो ले
नजर ज़रा बहक तो ले
ये शाम ढल तो ले ज़रा
अगर मैं रुक गयी अभी तो जा ना पाऊँगी कभी..यही कहोगे तुम सदा कि दिल अभी नहीं भरा !!
ReplyDeleteबहोत बहोत शुक्रिया..
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