तुम्हे पता है प्रिय?
सर्द में पुराने घाव फिर से जिन्दा हो उठते है, लगभग सालभर पहले जहाँ एक शूल चुभा था, वह स्थान आज फिर पीड़ा अनुभव कर रहा है। उस शूल की कुर्च अभी भी माँसपेशीमे धंसी है, और शायद शस्त्रक्रिया भी उसे न निकाल पाए..! धीरे धीरे वह मांस की ऊपरी परत चमड़ी चीरेगी, पस लगेगा, सड़ेगा, दुर्गन्ध देगा, जिसे देखना भी दुःखकर हो पड़ेगा। उसका अंत नहीं है जब तक प्राण न जाए। सुना है गिद्ध भी पास नहीं फरकते, उन्हें भी तो वीभत्स्ना होती होगी न..!!!
वीभत्स अकेला कहाँ होता है? वीभत्स के पीछे पीछे ही तो भय भी चला आता है। कांपते हाथ उस घाव भरे स्थान को और कुरेदते है.. क्या पता नाभि का अमृतकुंभ यही फूट जाए और प्राणो को मुक्त कर दे..! किन्तु ऐसा भी तो नहीं होता, यह प्राण भी उन भजनो के पिंजरे में पड़े शुक के समान ही हो, जिनका समय आते अपने आप उड़ जाते हो, कौन जानता है, या कौन जान पाया है? दार्शनिक बातोमें उलझ के भी तो यह घाव की पीड़ा नहीं भूल सकता..! यह रस से याद आता है, ये जो लोग प्रेम प्रेम प्रेम की माला रटते रहते है, वे शायद ये नव रस को पूर्णतः जानते होंगे, मेरी तो कल्पना यही कहती है, की श्रृंगार से शुरू होता यह प्रेम मृत्यु से परम शांत रस का आह्वाहन करता है..! सुनो डायरी, तुम भी अच्छे से जानती हो, यह नव रसो को, मेरी प्रेम की कल्पना को.. और इस मिथ्या प्रेम के चरणबद्ध नव रस के समागम को.. तुम्हे विस्तार से क्यों बताऊ?
उस दिन खिड़की के पास बैठा था मैं, जब कागज़ में लिपटा एक पथ्थर आया। चिट्ठी खोली, तो लिखा था, "तुम तो DEEP LOVE का शिकार लगते हो।" शायद मेरी कल्पनामें कोई फिसला था। उस चिठ्ठी को पढ़ते एक विचार उभरा, की प्रेम के भी स्तर होते है, हालाँकि मुझे इस बला के कोई अनुभव नहीं है, और न शायद हो पायेगा, क्योंकि मुझे लगता है मैं शायद कठोर काला पथ्थर हूँ, जिस पर से झरने बहते है, लेकिन वह पथ्थर वैसे का वैसा ऊबड़खाबड़ सा बना रहता है..! आज इस सर्दमे जब मैं तुम्हारी श्वेत काया पर काली श्याह उड़ेल ही रहा हूँ तो फिर से उस परिकल्पनाके प्रांगणमे चलें?
मैं न तो कवि हूँ न लेखक हूँ, न प्रेमी हूँ, न वियोगी.. जानता हूँ तो केवल कल्पना..! सोचता रहता हु, डॉक्टर स्ट्रेंज की भाँति ही स्वयं ही प्रसंगो का निर्माण करता हूँ, स्वयं ही उसके निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ, और स्वयं ही उस परिणाम से आनंद की कामना करता हूँ, और शायद पीड़ा का पीछा। ऐसा भी मत समझो मैं काले अँधेरे कमरे बंध कोई पीड़ा का प्रचारक हूँ, या, मैं नीरस सा कोई कायर भीरु हूँ.. मैं शायद स्वांग भी ओढ़ता हूँ, या मेरी स्वांगभरी सृष्टिमें किसी और की खलल न इच्छता कोई मूढ़ हूँ। कभी मैं अबुध हूँ, कभी प्रबुद्ध। कदाचित मुझमे प्रसंगानुसार ढलने की क्षमता तो है। इस लिए मैं प्रेम को लिख सकता हूँ, विरह को भी, पर हाँ मैं लेखक नहीं हूँ, यह तो बस मेरे और तुम्हारे बिच की बात है, जो शायद कुछ और लोग भी पढ़ेंगे, जब उनका यहाँ आना होगा, द्रष्टिपात होगा।
वैसे प्रेम के स्तर हो कैसे सकते है? मैं तो कहता ही रहता हूँ, कल्पना सत्य, प्रेम मिथ्या.. हाँ, आकर्षण होता है, अपेक्षा होती है, उत्तरदायित्व होता है..! कोई भी, किसी भी प्रकार का सम्बन्ध हो, यही तीन आपको भिन्न स्वरूपमें दिखेंगे.. द्रष्टिकोण प्रभाव करता है, किन्तु, यदि आप भी मेरी ही तरह हठी है, अंध है, तो अवश्य ही यही त्रिपुट देख पाएंगे...! संभव है, आप भी मेरी तरह पूर्वाग्रही हो, प्रेम के पक्ष से, तो आपका अवश्यही मानना होगा की वह त्रिपुट ही प्रेम है। हाँ बहोत से लोग कहते है, की आकर्षण, अपेक्षा, और उत्तरदायित्व ही प्रेम है.. यदि ऐसा है, तो खीरा, तुरई, और करेले को लौकी कहलो..! वैसे भी हम लोगो को लॉजिक से ज्यादा मैजिक पसंद आता है, ऐसे ही तथ्य से ज्यादा रसपूर्ण-कहानी पसंद आती है..! इसी लिए शायद प्रेम शब्द का अस्तित्व है, वर्ना ये प्रेम भी तो किसी सड़े संदूकमें सागरतलमे पड़ा होता।
अभी कुछ दिन पहले ही पढ़ा था, की तुम इतना भी काला न लिखो की पढ़ने वाला भी तुम्हारे अँधेरे में चला जाए, कभी कभी मुझे भी लगता है की शायद मैं भी तो कलूटा ही लिखता हूँ..!! वैसे अँधेरा अच्छा तो है, काला भी अच्छा तो है, सारे रंग उसमे समा जाते है। श्वेत तो छोड़ कर, श्वेत जब भी श्याम से मिलता है तब वह ग्रे बना लेता है, फिर न काला काला रहता है, न श्वेत पूर्ण श्वेत। वह तीसरा पक्ष शायद मुझे पसंद है, लेकिन यह काळा-धौळा सबको थोड़े पसंद आता है, एक पक्ष के समर्थक इस ग्रे को गिनते ही नहीं। पता नहीं, यह घाव की पीड़ा भी शायद ग्रे है, मैं कामना भी नहीं कर रहा हु लेकिन इसे त्यागना भी शायद मेरे लिए तो संभव नहीं है।
वैर भी अच्छा है, शायद यह आपके दिशाहीन जीवन को एक निश्चय देता है। हाँ संपूर्ण सुख शायद वैर की प्रज्वलित अग्नि लेने नहीं देती लेकिन जो वह शूल है वह मन को तो एकाग्र कर ही रहा है। शायद मुझे यह बल भी दे रहा है, मेरे निश्चय के प्रति अडिग रहने का, गत बाते भूलने नहीं देता वह शूल, जो बार बार पीड़ा का पादुर्भाव कर याद दिलाता है, उस प्रसंग को जो शायद आप की अनिच्छा के भी आपके साथ घटित हुआ है...!
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
निदा फ़ाज़ली