आज तो डायरी ही बोल पड़ी...! || Logomachy between me and my diary.. ||

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आज उत्तरायण थी, थी इस लिए लिखा क्योंकि यह रात को लिख रहा हूँ, खगोलविद तो हूँ नही की, शतप्रतिशत कह सकू की उत्तरायण हो चुका, या हो रहा है, मकरसंक्राति हो गई या सूर्य अभी मकर में प्रवेश कर रहा। तो सवेरे तो प्रतिदिनकी भांति ही मेरे कार्यालय गया, वही प्रति रविवार वाला हाल, मजदूरों से अग्रिमभुगतान के संदर्भ वाद-विवाद करना, और अन्तमे उनके दयनीय स्थिति के तर्क को आधारभूत मान स्वयं के धनसंचय को ही क्षति पहुंचा दी। मकरसंक्रांति के दान को सर्वोच्च माना गया है इस लिए संस्थान पर रखे गए भोजन समारम्भ से चटोरी जिह्वा को रसपान कराया और लगभग दोपहर घर पहुंचा तब घड़ी में छोटी सुई दो और तीन के मध्य में थी, और बड़ी सुई छह अंक पर स्थिर थी।



पक्षीप्रेमिओंके भाव को सम्मान देने हेतु, भरी दोपहरी में बिना वायु-संचार के ही दुर्बल कर को कष्ट देते हुए पतंग उड़ाने के भरचक प्रयास किये, और उत्तरोत्तर विफलताओं को प्राप्त कर अंतमें सायंकाल जगन्नाथ के द्वार उनके शरण चला गया। संध्या आरती के समय आज तो अवकाश के कारण आये लोगो की अतृप्त आकांक्षा बांचने से श्री जगन्नाथ को भी विराम नही था, सुभद्रा जी, और बलराम जी बस बड़ी बड़ी आंखे कर आज आयी भीड़ को देख रहे होंगे, और मेरी उस भीड़ में अभिवृद्धि ओर हो गई, तब लगा जैसे जगन्नाथ कह रहे हो कि, "बेटा आये तो तुम भी आज ही हो।" लेकिन मेरे प्रतिदिन प्रातः उनके दर्शन के नित्यक्रम को संज्ञान में लेकर वे बस क्रुद्ध न हुए वही मेरे लिए निरान्त थी।


यौवनावस्था की पुष्ट स्थिति का आनंद ले रहे विशाल पीपल के तले बैठकी लेते हुए जिस कर से अंजलिभर श्री का चरणामृत चखा था उसी से सिगरेट सुलगा कर ओष्ठके अंतिम सिरे में दबाते हुए  इस फोन के ज्वालामुखी से एप्प इंस्टाग्राम को खोला, सामने ही रील लपक के आयी.. साहित्यिक-भाव था, पूर्ण हिंदी में, कदाचित हिंदी के शब्दकोश के लुप्त हो रहे शब्दो का प्रचुरता से प्रयोग किया था उन्होंने। आश्चर्य तो यह है मैं पढ़ भी रहा था, जो हिंदी शब्द के आरंभ में आ रही ह्रस्व इ से भी अंशतः अपरिचित है। उस भाव मे एक शब्द था, जो रसपान में विघ्नकर हो पड़ा, तो उनसे पूछ लिया.. प्रत्युत्तर देते हुए उन्होंने कहा, "आप तो कवि है.. स्वयं ही ज्ञात कर लीजिए, और मैं उस भाव को पुनः पुनः पड़ता रहा और अतंतः एक निष्कर्ष पर पहुंचा, जो कदाचित सत्य था।


"चल जूठे" कहीं से आवाज आई, मैंने चारो और देखा, जड़ दीवारों के अतिरिक्त कोई न था, भ्रम हुआ होगा सोच कर फिर से डायरी लिखना शुरू किया।


फिर उनका अन्य साहित्य पढ़ रहा था, कुछ समझ रहा था, कुछ सिख था, कुछ भाव ह्रदय बिंध के पार हो रहे थे..


"बस कर भाई" फिर से भ्रम नही हो सकता यह सोच कर मैंने लिखना रोकते हुए, अपने कक्ष के सर्व स्थान देख लिए..


"किसे ढूंढ रहा है?" मैं पुनः आसपास देखता रहा, थोड़ा सा भय भी उपजा, रात्रि के द्वितीय प्रहर में इस कक्ष में मेरे सिवा तो कोई है नही, फिर कौन मुझे टोक रहा है? 


"ओ कल्पनाके स्कंधसवार इधर देख इधर, तेरी डायरी बोल रही हूँ।"


क्षणभर तो मैं मूढ़ ही हो चला था, इस निर्जीव को वाचा कैसे फूटी? पर मेरी ही आत्मा को कसके पकड़कर पूछ लिया, "क्या है?"


"क्या है ये जब देखो तब कुछ न कुछ उटपटांग लिखता रहता है?"


"ओ ओ ओ, मर्यादा में रह, जीव है नही और जिह्वा चला रही है?"


"देख तेरे सारे गुप्त रहस्य जानती हूं मैं, तो पहले तो मुझसे पूर्ण शिष्टाचार से युक्त होकर बात करियो, और दूसरा ये क्या जब देखो तब बस कल्पना के घोड़े पर बैठकर दौड़ाता रहता है तू?"


"मुझसे तू-तड़ाक? तेरा स्वामी हु मैं! सभ्यता से बोल वरना कल ही नई लाकर तुझे उस सडीसी अलमारी में बंध कर दूंगा..!"


"अच्छा जी, अभी तेरा दोगलापन उतारती हूँ, तू रुकियो.."


"रुकियो मतलब.. कर क्या लेगी चल बता!"


"ओ आडम्बर के अष्टादशवे अवतार! नही मतलब मैं कुछ कहती नही तो तू क्या मेरी इस अमलिन श्वेत काया पर अपनी उस क्रूर-निर्दयी तेग-समी लेखनी से कुछ भी लिखेगा?"


"ऐसा क्या लिख दिया मैंने जो आज तू बोल पड़ी?"


"जूठे, तूने वो रील का शब्द समझ नही आया तो गूगल सर्च नही किया था?"


"हाँ किया था, तो?


"तो फिर तूने ऐसा क्यों लिखा कि, तूने उस सर्जक से सीधा पूछ लिया?"


"वो तो बस ऐसे ही.."


"देखा, अभी से निरुत्तर होने लगा ना, जब देखो तब बस कल्पना की काछ बांधके कुश्ती करता है, अकेले लड़ता है, अकेले जीतता है.."


"वो तो बस बात को रसप्रद बनाने के लिए.."


"तो सीधा तथ्य लिखा कर ना, किसी के मुखसे तेरी ही प्रशस्ति का उच्चारण करवाता है, तू पहले तो ये बता तुजे कौनसा विषाक्त कीटक काटा है जो तू हर बात को घुमा फिरा कर विरहगाथा पर ले जाता है?"


"अरे रुक तो जा, थोड़ी सांस ले.. बोले जा रही बस.."


"देखा, मुझ निर्जिव से सांस लेने को कह रहा मूर्ख।"


"अरे मेरी दुलारी डायरी.."


"मस्का मत मार, सीधे सीधे जवाब दे.."


"है प्रभु ये कैसा अनर्थ हो रहा आज डायरी धमका रही मुझे? प्यारी, मैं जो भी लिखता हूं, उसमे कल्पना हो, तो क्या अनुचित हो गया? वास्तविकता से कल्पना कई गुना उपयुक्त है.. जो सुख कदाचित जीवन मे न मिले तो कल्पना के माध्यम से उस का आस्वाद तो ले ही सकते हो..! उचित है ना?"


"एक तो तेरी बाते मेरी तो समझ से परे है, दूसरा मुझे तेरी इन बुद्धिहीन बातो में कोई रस नही, मेरा कहना इतना ही है, अगर तू मेरी इस कोमल काया को बिगाड़ ही रहा है तो अब विरह मत लिखा कर, रोतलू कहीं का।"


"किसने कहा विरही रोते ही रहते है, वे रटते भी है उनके प्रिय का नाम, उनके प्रिय की स्मृतियाँ, उनके प्रिय की.."


"ओ चुप हो जा, तुझे क्या लगता है जो तू लिखता है वो एकमात्र तेरे साथ ही होता है, सब जीते है, सब सहते है, तू एक उसको पकड़ के बैठा है जो तुझे कभी मिल नही सकता।"


"तो क्या हुआ? जो मिला नही, उसकी कामना भी न करूं?"


"कर ना भाई, किसने मना किया है, पर एक ही बात को घुमा-फिरा कर मुझे मत बताया कर.. समझ ले। जब देखो तब चल पड़ेंगे उस चंडिका को लेकर मेरे श्वेतपत्रो पर नीली रेखाएं खींचने..!"


"देख एक तो ये तेरी बकवास बहोत हो गई, ठीक है, अगर अब कुछ बोली तो उस लकड़ी के पींजरेमे बंध कर दूंगा!"


"तो करना.. किसने रोका है? अच्छा ही होगा, तेरे विरहपूर्ण वक्तव्यों से मोक्ष ही मिलेगा।"


"देख अभी रात्रि का तृतीय प्रहर बैठने वाला है, मुझे लिख लेने दे, थोड़ी ही बात बाकी है।"


"सीधा सीधा बोलना, अभी हाट-अटारी बंध हो गई होगी, दूसरी डायरी मिलेगी नही तुजे!"


"हे दैनिकी.. तू तो मेरा प्रथम प्रेम है, और तू ही मुझसे नाराज हो जाएगी, ऐसा कैसे चलेगा?"


"पहले ही बोला था, मस्का मत मार.. और तू तो प्रेम का प्रखर विरोधी है ना। जब जहाँ जिधर उधर कहता रहता है, प्रेम है ही नही, केवल आकर्षण, आकांक्षा और वो तीसरा क्या था? हाँ वो उत्तरदायित्व है.. सर्वज्ञ के स्वांगी! तू तो तेरी ही रची सीमा लांघ रहा।"


"अरे मेरी प्यारी प्रतिदिनी, तू तो इतना क्रुद्ध कभी नही होती, आज क्यो?"


"क्योंकि तू असत्यभाषी है, सदा से.. जहाँ जिसके सामने कहना होता है, उसके सामने मौन रहकर, या अपनी झिझक के रहकर, या स्वयं पर ही विश्वास न करते हुए पुतला बना रहता है, और रात्रि में मेरी और अपनी निंद्रा को भंग करते हुए डींगे हांकता है।"


"अब बहोत हुआ तेरा, मैं कहता हूं चुप हो जा तू!"


"क्यों सत्य कहा तो सहन नही हुआ?"


"एक और शब्द नही सुनना मुझे तेरा…" मैने अपने कानों पर हाथ रख लिए।


"मान ले तू लोगो की भावना को अपनी कल्पना से सत्य मानकर उनके मुंह पर प्रत्युत्तर नही दे पाता..!"


"यहीं रुक जा, आगे कुछ मत बोल"


"अरे भीरु है तू, तू सोचता है, तेरी बात का लोग अलग अर्थ निकालेंगे और इसी कारण से तू किसी से बात भी नही करता.. बस यहां आकर मेरे श्वेतपत्रो.."


"बस कर बड़बोली, डायरी है या डायन तू? जिसका जैसा स्वभाव उसका वैसा वर्तन।"


"हाँ, वो भी अपनी निष्क्रियताओ को छुपाने का उत्तम तर्क है।"


"मतलब?"


"क्या स्वभाव कभी नही बदलता?"


"देख इतनी रात को मैं एक डायरी से वाद-विवाद करूँ उसमे न तेरा महात्म्य है न मेरा सौभाग्य…! इससे अच्छा है मैं यही लिखना रोककर सो जाऊं।"


और मैंने एक लंबी रेखा डायरी के अगले खाली पन्ने पर खिंच दी..! डायरी को बंध कर छत पर गया, एक सिगरेट सुलगाई, सर्व व्यथा तथा कथा को धूम्र में उड़ाकर कमरे में आकर सो गया..!!!


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2Comments
  1. बहुत खूबसूरत शब्दों में दिखा आपने , मेरी शुभकामनाएं आपको 🙏

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    1. बहोत बहोत शुक्रिया..!!

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