कलो जी लूणसरियो || Kalo Ji Lunsariyo || Jhala / Zala ||

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"कलो जी लूणसरियो"

"बैठो बे वीसा तणी, जड़धर वाट्यू जोय,
(पण) कलियो वेधु कोय, पांत्रिसे  पोगाडियू"


गोंडल के गढ़ ऊपर ढोल धबकने लगा। 'अश्व, अश्व, अश्व'की पुकार लगाता चोपदार प्रभात के प्रथम प्रहर में राजपूतो के आवास के पास दौड़ने लगा। एक दरवाजे से युवान दौड़ते हुए आया, चोपदार को पूछा, "क्या हुआ भाई, किस बात का ढोल बज रहा है?"


"कलाजी भाई! कुंडला का हादा खुमाण अपनी गायें ले गया है, पर आप नहीं जा सकते।"


"क्यों?"


"बापुने मना किया है, आप की नौकरी अभी शुरू हुई नहीं है।"


"ऐसा कहीं सुना है क्या? राजपूत का बच्चा तो ईश्वर की बहीमें ही चाकरी लिखवा के आता है।"


इतना कहकर कलाजी नामका राजपूत युवक हथियार बांधते अश्व पर निकल पड़ता है।


*****


लूणसर नामक वांकानेर का एक भायाती गाँव है। वहाँ का गिरासदार झाला कलोजी अपने भाईओ के साथ गोंडल नरेश भा'कुंभा के पास नौकरी करने आया था। तिस साल की उम्र थी उसकी। आज सुबह से ही उसे नौकरी पर अपनी पहली हाजरी लगानी थी, लेकिन उससे पूर्व ही हादा खुमाण नामका कुंडला का काठी अपने डेढ़सौ अश्व-सवारों के साथ गोंडल की सिमा में आकर प्रहर चरते पशु उठा ले गया। 


भा'कुंभा के पगारदार अन्य राजपूत निकले उससे पहले कलोजी अपने दो राजपूत साथीओ के साथ निकल पड़ा था। डेढ़सौ काठीओ को अपने पीछे घोड़ो की टांपे सुनाई दी। पीछे नजर करते बस तीन सवार दिखे। कंडोलिया के पास कलोजी उनके नजदीक पहुँच गए। काठी आपस में एक दूसरे से कहने लगे, "यह तो समाधान करने आ रहा है, समाधान।" सबने मान भी लिया। उतने में तीनो राजपूत नजदीक पहुँच गए। 


"आपा (काठी में बड़े को आदर से 'आपा' कहते है), आपमें से हादा खुमाण कौन है?"


"वो आगे, सबसे आगे चले जाओ, वो बावला घोड़े का असवार : सर पर सोनेरी छोगा बंधा है : वो सोने की कुंडल वाला भाला और सोने की छोर वाली ढाल है ना वही है हादा खुमाण। अरे भाईओ रास्ता दो भाई, राजपूत के बच्चे समाधान करने आ रहे है, रास्ता दो।"


पौने सो -पौने सो घोड़े अलग हो गए, बिच में से तीनो राजपूत आगे बढ़े। 


जिस क्षण यह तीनो असवार हादा खुमाण के नजदीक पहुंचे, तब हादा खुमाण ने इनकी आँखे पहचानी : उन आँखों में समाधान नहीं, वैर था। हादा ने अपना घोडा दौड़ा दिया। कलोजी पीछा पकड़ा, पर वह हाथ न आ रहा था। कलोजीने अपनी घोड़ी के तरिंग में बरछी अड़ाते ही घोड़ी जैसे जाग गई। हादा के बिलकुल पास पहुँचते ही कलोजी ने तलवार खींची। पेगडे में खड़े हो गए, और तलवार चलाई। हादा समय देखते घोड़े के पेट से निचे जुक गया, लेकिन तलवार घोड़े पर बिछी चौफाल, बिछौना, काठ, यह सब काटते हुए घोड़े के भी दो टुकड़े कर दिए - दो अलग अलग टुकड़े। 


हादा कूदकर दूर जा खड़ा हो गया। नजर करते ही घोडा तो मरा पाया, लेकिन कलोजी की दोनों आँखे बहार को आ गई थी। "वाह युवान ! रंग युवान !" कहते हादा ने अपनी कंधे पर रखी तरफ़ाळ (चद्दर) से कलोजी के लिए पंखा चलाने लगे। उतने में तो उनके डेढ़सौ काठी पास पहुँच गए, और कहने लगे "आपा, ख़त्म कर दे इसे। दुश्मन को ऐसे लाड कौन लड़ाता है?"


हादा खुमाण : "खबरदार किसी ने इसे हाथ भी लगाय तो। डेढ़सौ काठीओ के बिच में से आकर इसने एक ही झटके में मेरा हाथी जैसा घोडा घास की तरफ काट दिया। नमकहलाली देखो इसकी, आँखों के दोनों रत्न बहार आ गए है।"


काठी सारे देखकर दंग रह गए।


उतने में ही गोंडल की सेना आती दिखी, ऊँचे ऊँचे भाले रविकिरण को प्रतिबिंबित कर रहे थे। कलाजी को वही छोड़ काठी भाग निकले। परन्तु उस दिन से खुमाणो की सभा में कुछ सूझ-बुझ वाले काठी "रंग है कला लूणसरिया को" कहकर ही अमल दस्तूर को आरंभ करते। 


गोंडल बापू ने किसी जानकार हकीम से कलाजी की आँखे ठीक करवाई और उन्हें बड़ी जागीर देते हुए उनकी नौकरी की कदर की।


*****


उन दिनों धंधुका में मीरा और दादो नाम के दो बलशाली मुस्लमान रहते थे। दोनों प्रख्यात थे काठियावाड़ में जो पैसे दे उनकी और से लड़ने के लिए। एक दिन मीरा को पता चला की कलोजी लूणसरियो धंधुका की सीमा से होकर गुजर रहा है। मीरा ने आवाज लगाई, "अरे कलोजी धंधुका के बहार बहार से ही चले जाएंगे? कोई दौड़ो, उन्हें यहां ले आओ।"


उसका छोटा भाई दादो अपने बल पर अत्यधिक घमंड लिए घूमता था। वह बोला, "भाई कलोजी ऐसा कौन है जो तू उसे बुलाने को आदमी दौड़ाने लगा है।"


"दादा, वह एक शूरवीर है। उससे "राम राम" करने से पाप मिटते है।" 


कलोजी न्योते को मान देते हुए आया। मीराजी अपना भाई मानकर गले लगा कर मिला। लेकिन दादो ने कोई स्वागतवचन न कहे। कलोजी की खूब अच्छी आवभगत होती देख दादो ईर्ष्या से कलोजी का अपमान हो ऐसे शब्द बोलने लगा। तब मीरा ने उससे कहा, "दादा, आज यह अपना मेहमान है, अन्यथा यही तुझे इनके बल का परिचय हो जाता। लेकिन फिर भी तुजे कुछ पेट-पीड़ा हो रही हो तो एकबार लूणसर जरूर से जाना।"


कलोजी हँसते हुए बोलै, "अरे अरे मीराजी भाई ! दादो तो बालक है। मेरे मन में उसके प्रति कोई भी रंज नहीं है। और हां दादा, तेरी जब भी इच्छा करे लूणसर आना, मैं स्वंय तेरे स्वागत में खड़ा मिलूंगा।"


कलोजी लूणसर लौट गया, लेकिन दादो से रहा न गया, उसे लूणसर देखना था। एक दिन अपने आदमीओ के साथ दोनों भाई निकल पड़े। लूणसर की सीमा पर पहुँच कर कलोजी को सन्देश भेजा गया, की दादा युद्ध के ले सीमा पर आपकी राह देख रहा है। कलोजी की आँखे दर्द कर रही थी तो वे आँखों पर लेप लगाकर सोए हुए थे। आँखे धोकर वे एक जंग लगी तलवार के साथ बिना किसी अन्य सामान के अश्वारूढ़ हुए। सीमा तक पहुंचते ही दूर से उसने कहा, "ऐ मीरा-दादा राम राम, भले पधारे।"


मीरा ने दादा से कहा, "भाई, कलाजी का जोर तुज अकेले को ही आजमाना है, मुझे उससे कोई बैर नहीं है, और यह साथी तो बेचारे पेट के लिए आए है। इस लिए हम लोग यहां खड़े होकर बस देखेंगे। आप दोनों लड़ो। या तो हम तुजे दफन करके जाएंगे, या उसे जलाकर।"


दोनों के बिच द्वंद्व हुआ।


कलोजी ने कहा, "दादा, पहला हमला तू कर।"


"ले फिर, पहला घाव सवा लाख का..." कहकर दादाने भाला फेंका। कलोजी की घोड़ी निचे बैठ गई, और भाला उपरसे निष्फल चला गया। 


"दादा, ऐसे नहीं, देख ऐसे घाव किया जाता है" कहते ही कलोजी ने अपनी जंग लगी तलवार से दादो पर जनेउवढ (गर्दन पर जहां जनेऊ होती है वहाँ किए गए वार को 'जनेउवढ़' कहा जाता है।) तलवार चलाई। दादो वही गीर पड़ा। 


मीरा ने अपने साथीदारों से कहा, "साथियो, कलोजी जी का युद्ध कौशल्य देखा? अब उसका ह्रदय, उसके नैतिक मूल्य देखने हो तो चलो भागो यहां से।" अपने साथीदारों के साथ मीरा वहाँ से भाग निकला। 


कलोजी ने सोचा, "ओह, उसका सगा भाई उसे छोड़कर भाग गया। पर फ़िक्र नहीं, दादा में भी तेरा भाई ही हूँ।" कलोजी ने उसे घोड़ी पर लादकर अपने घर ले गया। अपना सगा भाई मानकर उसका इलाज करवाया।"


दो महीने बाद दादो ठीक हुआ, तब कलो जी उसे धंधुका छोड़ आया। मीरा ने तब उससे कहा, "क्यों दादा, अब पहचान गया कलोजी को?"


लेकिन फिर भी दादो दांत भींचकर बोला, "पहचाना, लेकिन एक बार तो मैं उसके लूणसर पर गधो को हल जोत कर नमक बोऊ तो ही में दादो।"


*****


अमावस्या की अँधेरी रात बस खत्म होने को थी, प्रभाकर अपने रथ पर सवार होकर निकले उससे कुछ क्षण पूर्व ही, गोंडल गढ़ के दरवाजे पर एक ब्राह्मण ने आवाज लगाई, "दरवान, जल्द दरवाजा खोल भाई।"


"दरवाजा अभी नहीं खुल सकता, चाबियां कलाजी के घर पर रहती है।" दरवान ने अंदर से जवाब दिया।


"मुझे कलाजी का ही काम है, उसके सर पर आज आपदा आई खड़ी है। भाई दरवान, जल्दी जा, मेरे नाथ को खबर कर।"


कलाजी के घर से चाबियां आई, ब्राह्मण को कलाजी के पास ले जाया गया। कलाजीने उसे पहचान कर कहा, "अरे भूदेव, असमय आप यहां क्या कर रहे? लूणसर में सब राजीखुशी?"


"बापू, कल सुबह तो लूणसर रहेगा या नहीं पता नहीं। आज दोपहर को यहां से तिस मिल पर मुझे एक सैन्य दिखा। आंबरडी से हादा खुमाण, धंधुका से मीरा-दादो, साथ में साढ़े तिनसों घुड़सवार : "कहा की कल सुबह लूणसर पर नमक बोएंगे।" सुनते ही मेने गोंडल का मार्ग पकड़ा, आपके पुण्य से ही मेरे पैरोमे जोर आया। इससे जल्द तो में नहीं पहुँच सकता था, बस मरते मरते यहाँ पहुँच ही गया।


आसमान की ओर नजर गाड़कर कलोजी समय की अवधि गिन चुका। सुबह होने में ज्यादा समय रहा नहीं था। लूणसर यहां से तिस मिल दूर था। सुबह होते ही अपनी जन्मभूमि पर क्या क्या संकट गाज बनकर गिरेंगे। दो राजपूतानियाँ और एक नन्ही राजकुमारी का क्या हाल होगा? सोचते ही अंतर से कंपित हो उठा। 


अपने भांजे को बुलाकर उससे कहा, "भाई, आज सुबह भा'कुंभाजी को कसुंबा का न्योता दिया है, पर मैं सुबह तक रुकता हूँ तो मुझे अमल की जगह जहर का घोल पीना पड़े। तू बापु को कसुंबा पीला कर सीधा लूणसर चले आना। भा'कुंभाजी को मेरी हकीकत बता देना, और कहना फिर मिले तो हरी कृपा होगी वरना यह अंतिम 'राम-राम' है।"


इतना कहकर कलोजी अकेला ही अश्व पर चल दिया। घोड़ी की गर्दन पर बड़े प्यार से हाथ फिरौते कहा, "बेटा ताजण, आज तक तूने मेरी लाज-आबरू रखी है, बस आज मेरा मौत मत बिगाड़ना। अपना लूणसर लुँटा जा रहा है बेटा।"


लूणसर की सीमा पर महाराज सूर्यनारायण का चमकता मुकुट दिखाई पड़ रहा था उस समय श्याम मुंह लेकर बस्ती के कुछ लोग खड़े दिखे। बीस-बीस साल के कुछ युवक घायल होकर पड़े थे, बाजू से रक्त की धारा प्रवाहित हो बह रही थी।


कोई चिल्ला उठा, "वो देखो, कलोजी बापु आ रहे..."


तो किसी ने  कहा, "पागल है क्या, कहाँ गोंडल, कहाँ लूणसर ! इस समय कलोजी कहाँ?"


"अरे कहाँ क्या? वो चमकता भाला उनका ही है, और वो ताजण उनके अलावा किसी की हो नहीं सकती। अवश्य ही बापु के हृदयमे रामके किसी दूत ने समाचार दिया है।"


"आह, कलोजी बापु को क्या मुंह दिखाएंगे?" बोलकर एक घायल युवक दूसरी और मुंह कर पलट गया, और सदा के लिए आँखे बांध कर दी। कलोजी आ पहुंचा : जैसे क्षितिज से स्वयं सूर्य आया : पूरी रात प्रवास कर जागने आँखे लालघुम हुई थी : मुंह के देवांगी नूर पर हालार की मिट्टी के थर जम गए थे : घोड़ी के मुंह से झाग निकल रहे थे। 


"बापु ! जरा सी देर हो गई है।" भीड़ में से किसीने दबे स्वर में कहा।


कलाजी के मुंह से निसासा निकल गया, मानो जैसे जीव ही निकला।


"पर बापु, कोई भी कुछ लूट नहीं पाया।" किसीने दिलासा देते कहा।


"हां बापु, कुछ नहीं लूटा गया, बस आबरू।" किसी औरने भी कहा।


"दरबारगढ़ में कोई जीवित है?"


"एक परिंदा भी नहीं फरका वहां तो।"


"कैसे?"


"दादो तो दरबारगढ़ को गिराने पहुंचा ही था, पर उससे बड़े भाई मीरा ने कहा, 'खबरदार ! कलाजी की स्त्री मेरी बहने है, आज कलोजी गाँव में नहीं है और अगर उसकी गैरहाजरी में कोई उसके घर पर हाथ डाले उससे पहले मीरा के धड़ पर सर न होगा।' ऐसा कहकर उसने अपने डेढ़सौ घोड़े अलग किये और नंगी तलवारो के साथ पुरे दरबारगढ़ की चारोओर पहरा दिया था बापु।"


"एक ही माँ के दो बेटे। वाह मीरा जी, भले ही लूणसर टूटा, पर आपको पहचान पाया।" कलोजी बोल उठा।


कलाजी दरबारगढ़ गया। लोगोने सोचा बापु के मन की वेदना बैठ गई। आँगनमे में घर की कोर पर राजपूत बैठा। बारह साल की बालिका आई, बापु के चेहरेके भावो को निरखती खड़ी रही। अपनी घोड़ी के जिन के पास रखे डिब्बे से कांसे की थाल निकाली, बिटिया को कहा, "बेटा ! इसमें सक्कर ले आ।"


दही आया : अंदर मुट्ठी भर सक्कर डाली : सक्कर और दही घोलकर कलोजी पी गया। दूसरी थाल ली : उसमे अफीम लिया : कुमारी के पास बाजरे का रोटा मंगवाया : उस रोटे में अफीम भर भर कर ताजण (अश्व) को खिलाया। दो भार अफीम का अमल ताजण के पेट में जाते ही लम्बी मुसाफरी से थकी ताजण पूर्णतया स्वस्थ हो गई। उसने अपनी राजकुमारी से कहा,


"ले बेटा, अब मुझे विदा कर।"


उस नन्ही कुमारिका के आँखों से आंसू बहने लगे। 


"राजपूतानी, घर में क्या कर रही दोनों? हमारा बालक इस तरह रोए तो सात पीढ़ी को खोट लगे। चुप कराओ गुड़िया को, अच्छा जमाता ढूंढ कर शादी करना। दहेज़ में कोई कसर रहनी नहीं चाहिए। किरतार रक्षा करेंगे। हाँ बेटा अब शगुन दे, की एक राजपूत को सुहावे ऐसे मृत्यु का में वरन करूँ।"


कुमारिका ने अपने दोनों नन्हे हाथो से बापु के सर से दुखणे लिए। बापु के सर पर आंसुओ का अभिषेक किया। ताजण का असवार तुरंत बहार निकल गया। दुश्मन किस दिशा में गए जानकार चुप-चाप अकेला ही निकल पड़ा।


*****


प्रभात में ही लूणसर का गढ़ गिराकर हादो खुमाण, तथा मीरा-दादो बेफिक्र हो चले जा रहे थे। पूरी पूरी रात जगने से सारे असवार निंद्रा के झोले खा रहे थे, और मंद गति से अश्व चलाए जा रहे थे। किसी की लहलहाती फसल वाले खेत में से चल रहे घोड़े भी बाजरे की ज्याफत उड़ाते जा रहे थे, किसी का भी भय न था। "अरे ! कलोजी.." एक काठी अचानक ही चिल्ला उठा।



"कलोजी? कहाँ? अरे वो कलोजी नहीं, अपना काल है.." कहकर काठी भागे। मीरा-दादो भी खड़े रहने न पाए। पीछे से कलोजी की गर्जना गुंजी.. "माटी थाजो !"


राजपूत की हाकल से ही शत्रु ओ का आधा कूवत हना गया। भेटा हुआ, भयंकर युद्ध हुआ, जिसपर कलोजी की तलवार गिरी, वह दुबारा खड़ा न हुआ। बहुतो को सदा के लिए सुला दिया, स्वयं के शरीर पर भी अस्सी घाव लिए। घोड़ी के शरीर पर भी कई दरारे आई थी। कलोजी गिरा, ताजण अपने चारो पैर फैला कर उसके ऊपर खड़ी हो गई। अपने घावों से प्रवाहित हो रहे रक्त से उसने अपने स्वामी को नहला दिया। उतने में ही "मारो मारो" करती गोंडल की सेना धरणी को कंपायमान करती आ पहुंची।


"भागो भाई..." कहते काठी भागे, लेकिन जाते जाते गोंडल की सेना का नेतृत्व करने वाले को गिराते गए। कलोजी और उनका भांजा दोनों ही वही थम गए, आंधी की तरह दो सैन्य गए, आगे शत्रु, पीछे गोंडल की फ़ौज।


अपनी पचीस वर्ष की उम्र में कलोजी ने एक संकल्प लिया था की, चालिश की उम्र होने पर शिवलिंग पर कमलपूजा करनी है। आज मौत की घड़ी आते ही वह प्रतिज्ञा याद आई। आज उसकी उम्र पेंतीस हुई थी। अभी पांच साल का समय बाकी था। पर वह सोच रहा था, कमलपूजा की इच्छा की अधूरी रह जाएगी तो जिव असङ्गति को प्राप्त होगा। 


खड़े होने की ताकत तो बची नहीं थी, घोड़ी पर बंधे जिन का सहारा लिया, जैसे तैसे खड़ा हुआ। जिन के पास ही बंधी पानी की मशक से पानी जमीन पर गिराया : खुद भी गिरा : हाथो से धूल-मिट्टी तथा पानी मिलाकर शिवलिंग बनाया। हाथ में तलवार उठाई : तलवार की छोर को जमीनमे खुपाई : मुठ पकड़कर धार पर गर्दन जोर से फिरा दी : पूरा मस्तक उतर गया तब तक का जोर लगाया : मिट्टी के शिवलिंग पर अपना गला रखा, और रक्त की जलाधारी शिवलिंग पर बहने लगी। पूजा महादेव को पहुंची, हाँ पांच वर्ष पहले ही पहुंची।


"बैठो बे वीसा तणी, जड़धर वाट्यू जोय,
(पण) कलियो वेधु कोय, पांत्रिसे  पोगाडियू"

भगवान शंकर तो चालीस वर्ष पुरे होने की राह देख रहे थे, लेकिन कलोजी आग्रही था, उसने पेंतीसवे वर्ष में ही पहुंचा दिया।


लेखक 'जवेरचंद मेघाणी' की पुस्तक 'सौराष्ट्रनी रसधार' में से हिंदी अनुवाद।

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