दांता के देवसमान राजसाहेब महोबतसिंहजी || Rajsaheb Mahobatsingh Ji of Danta Princely State ||

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दांता राज्यचिन्ह


उज्जैननाथ परमार विक्रमादित्य के वंशजो में से एक शाखा ने दांता में राजगद्दी की। दांता के राजयचिन्ह में दोनों शेर सामर्थ्य का प्रतीक है, तथा माता अंबे का वाहन भी है। केंद्र स्थित त्रिशूल सूचित करता है दांता के महाराणाओं की माता अंबाजी के प्रति आस्था को तथा उनके अधिकार क्षेत्र में आता तीर्थधाम शक्तिपीठ आरासुरी अंबाजी। उगता सूर्य सदा प्रगति और निरंतर वहन करने का प्रतिक है। राजसूत्र में लिखा गया 'शरणागत साधार' : जब जहाँगीरने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया तब दांता के आसकरणजी ने उसे आश्रय दिया था। तब से दांतानरेश को शरणागतों के आधार की उपाधि मिली। 

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अरावली और आरासुर पर अधिपत्य रखने वाला पराक्रमी तथा पटाधर परमार वंश का शासन दांता पर प्रसिद्द था। राजकुमार किशोरवस्थामे होने के कारण समस्त राज्यकार्यभार राजसाहेब महोबतसिंहजी को सौंपा गया था। लिखापढ़ी के नाम पर बस हस्ताक्षर ही कर सके उतना ही अक्षरज्ञान होने के बावजूद उन्होंने जो प्रशासन कर दिखाया उससे अंग्रेज अमलदार भी ताज्जुब थे। 

राज्यके किसी अमलदार से नाराज़ होकर कोई गाँव छोड़ने की बात करे तो उसे पिता सामान वात्सल्य से मनाना, तथा न्याय प्रक्रिया परंपरागत प्रणाली के अनुसार ही चलाने वाले महोबतसिंहजी पर प्रजाका प्रेम भी अनहद था। प्रजा के छोटे-मोटे मसले तो वे दरवाजे पर पाट पर बैठकर बिना खर्चे ही सरलता से निपटा दिया करते। वहाँ वकील-बैरिस्टरों या चपरासी की जरूरत ही न थी। दोनों पक्षों को स्वयं ही सुनकर योग्य फेंसला सुनाने के कारण वे प्रजा में 'पोताबापजी' के लाडले नाम से प्रख्यात हुए।

किसी दिन राज्य में नए आए अमलदार ने सलाह देते कहा था की, "क्रिमिनल प्रोसेस अनुसार वादी-प्रतिवादी पर क़ायदेसर केस चलाए जाए वह अच्छा है।" तब राजसाहेब ने कहा, "दांता की गरीब प्रजा को मैं इन कायदो वाली बेकार और महंगी जाल में फँसाना नहीं चाहता। किसान और भील जैसे वादी-प्रतिवादी को अर्जी, स्टाम्प इत्यादि खर्चो में उतरना पड़े, तथा तारीख पर तारीख दी जाए, फरियादी तथा साक्षीओ को बार बार धक्के खाने पड़े, उससे उनका खेती का काम ख़राब होता है, आप सोचिए तो सही।" अमलदार के पास इसका कोई उत्तर नहीं था।

अपने राज्य के धार्मिक स्थल आरासुरी अंबे माता के थाल वहीवटमें उनकी दृष्टि हमेश बनी रहती। माता के पवित्र धाम की पवित्रता बनी रहे उसका वे सख्त बंदोबस्त रखते थे। धर्मस्थल में स्त्री या पुरुष का संबंध भाई-बहन जैसा बना रहे वैसी सख्ताई वे बरतते। चोरी या छेड़-छाड़ की घटना वहां बनती ही नहीं, अपवाद कभी कुछ हो जाए तब उस हरामखोर के मुंह पर कालित पोतकर जूतों का हार पहना कर गधे पर बिठाके यात्रिको के बिच घुमाकर बेइज्जत किया जाता। गुन्हा के इरादे कोई भी इस यात्राधाम में प्रवेश करने की हिम्मत ही नहीं करता यह राजसाहेब की राजनीती का प्रताप था। अंग्रेज अफसर कर्नल वुडहॉउस, मेजर मिक और मि. गॉर्डन राजसाहेब के कुशल प्रशासन के कारण अच्छे मित्र बन गए थे।

एक दिन उन्होंने पोलिटिकल एजेंट को कहा था,
"सरकार के आभारी है हम, राजकुमारों के प्रशिक्षण पर खर्च कर रही है। पर छोटे रजवाड़े के राजकुमारों को यह प्रथा अति-महंगी पड़ती है। पढाई के बाद वे राजकुमार दो रुपए के जूतों के बदले पचीस रुपए के विलायती बूट्स पहनने लगते है। आठ आने की देशी शराब के बदले बिस रुपए की अंग्रेजी विलायती शराब पिने वाले बन जाते है। इससे राज्य की प्रजा पर बोज बढ़ता है। 'यस सर' और 'नो सर' के अलावा कुछ आता नहीं इनको, कामदार, फौजदार या तहसीलदारो के दफ्तर की तपतिस कर पाए इतना ज्ञान भी सिख कर नहीं आते।"

पोलिटिकल कर्नल स्कॉट को उन्होंने कहा था, "राजाओंकी विलायत मुलाकात - लाभ से अधिक क्षतिग्रस्त होती दिख रही है, कोई विदेशी फर्नीचर का शोख पालता है, तो कोई वहाँ के ऊँची कीमत के कुत्ते या घोड़े उठा लाते है। कोई गोरी चमड़ी में मोहान्ध होकर कलंक ले आते है तो कोई हमेश का सरदर्द। कोई इन सब से अगर बच भी जाए तो कोई गोरा अमलदार गोरी नर्स ले आता है। आप ही बताओ इस में राजा क्या कमाई करेगा?"

महीकांठा में पोलिटिकल एजेंट के तौर पर आए कर्नल कार्टर के साथ उनका संवाद हुआ था। बाल-विवाह और अयोग्य जोड़े की हुई शादी मुख्य मुद्दा था। उनका स्पष्ट मानना था की, बाल-विवाह और अयोग्य जोड़े समाज के लिए हानिकारक है, किन्तु सगीर उम्र के कुंवरो को इक्कीस वर्ष की आयु तक कुंवारा रखा जाए वह भी हानिकारक है। विदेश के हवा-पानी तथा यहां देशी वातावरण में अत्यंत तफावत है। इस लिए अठारह से अधिक कुंवारे रहने से उनके शरीर में विकार उत्पन्न होते है। उससे हंमेश की व्याधि रह जाती है, तो कोई तो बलहीन ही हो जाता है।

स्वदेशी की बात जिनके रोम रोम में थी, और उस पर अमल कर आचरणमे लिया करते, वे विदेशी माल के आयत पर व्यथित रहा करते थे। और कहते थे, "यहां के कारीगर बेहाल होते जा रहे है। अगर उनका कोई रक्षण कर सकता है तो वह देशी राज्य ही है। अपने 18 वर्ष के प्रशासन कालमे उन्होंने देशी कसब, कापड, सोने-चांदीके कलात्मक आभूषण, हिरा-माणिक जड़े अलंकार, तलवारे, बंदूके, भाले, काष्ट तथा पाषाण की कलात्मक कृतियाँ खरीद कर देशी कला को अत्यधिक प्रमाण में उत्तेजन दिया था।

किसी दिन नए आये कामदार ने कहा, "दरबारमें बहुत ज्यादा वस्तुए इकट्ठी हो चुकी है, उसके निकाल के बारे  सोचना चाहिए। अब तो विदेशी बंदूके और अन्य नमूनेदार वस्तुए आती है उनकी खरीदारी पर विचार करना चाहिए।

राजसाहबने क्रोधित होते हुए कहा, "यह चीजवस्तुए पड़ी पड़ी बिगड़ भले जाए। आपको उसकी चिंता करनी नहीं है। देशी कारीगरों की कृतियाँ उनके राजा नहीं खरीदेंगे तो कौन खरीदेगा? आप विलायती बंदूकों की बात करते हो, पर जानते उन बंदूकों के कारतूस तथा गोला-बारूद के लिए कितनी लिखापढ़ी करनी पड़ती है? सोचिये किसी दिन गोला-बारूद का लाइसेंस रद होगा तब क्या हाल होगा? फिर तो आपकी यह पांच हजार की बन्दुक बांस की लाठी जितना भी काम नहीं देगी।" राजसाहेब का जवाब सुनकर कामदार बस चुप ही हो गया। प्रजापरस्त इस वहीवटदार की जीवनशैली अत्यंत साडी और सरल हुआ करती थी। जैसा बोला करते थे, वैसा ही जीते थे। कई बार राज्य की तरफ से उन्हें कार तथा घोड़ागाड़ी के उपयोग हेतु कहा गया था, पर उन्होंने तो बस घुड़सवारी करके ही पूरा प्रशासन-सञ्चालन कर दिखाया।

लेखक 'दौलत भट्ट' के 'धरतीनो धबकार' में से हिंदी अनुवाद।

दांता राजध्वज
दांता राजध्वज

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