'हाकम एक हमीर' || Hamir Ji Gohil of Dihor ||

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'हाकम एक हमीर'

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        ईस्वीसन 1250में मारवाड़ के खैरगढ़ से गोहिल सेजकजी सौराष्ट्र में आए, जूनागढ़ के रा'महिपाल से मिली चौबीसी में उन्होंने सेजकपुर बसाया।

"भुजक बली सेजक भूप,
राजान सरवस रूप,
एही धर खैरगढ़ ते आई,
मरधर मेल्य सोरठ मांई,
ते पंचाल करी प्रस्थान,
मुरलीधरन साचो मान,
ते कुलदेव को परताप,
अनभे भ्रात कुंवरा आप,
लायक बांध्य लीला ले'र,
सेजकपुर नाम शे'र "

        सेजक की के कुंवर राणजी, जिन्होंने राणपुर बसाया। उनके पुत्र मोखडाजी हुए। जिनका सर कटने के बाद धड़ लड़ा। 'मोखडा हनुमान' के नाम से पूजे गए।

        यह मोखडाजी की तेरहवी पीढ़ी में हरभमजी हुए। उनकी राजगद्दी शिहोर में थी। उनके भाई गोविंदजी थे, जिन्हे भंडारिया के गाँव गिरास में मिले थे, उनके वंशज 'गोविंदाणी' के नाम से पहचाने जाते है। उनके दो पुत्र थे, बड़े छत्रसाल जी, छोटे हमीर जी। हमीर जी अति तेजस्वी तथा शूरवीर थे। बचपन से ही उनके नाम का डंका बजता। उनके पिता गोविंदजी की उम्र हो चली थी। बीमार हुए, बिछाने में पड़े पड़े एक बात उनके मन में पीड़ उत्पन्न किया करती। इस लिए एक दिन हमीर जी को अपने पलंग के पास अकेले को बुलाया और कहा, "बेटा, बैठ !" हमीरजी बापू के पैर के पास बैठे।

        बापु ने कहा, "बेटा, एक बात मेरे मनमे बारबार उठ रही है, तू बहुत सामर्थ्यवान है, लोकप्रिय भी है, मुझे लगता है तू अपने बड़े भाई को गिरास खाने नहीं देगा।" इतना बोलते तो उनकी आंखोमे आंसू की लकीर आ गई और वहीं रुक गई।

        हमीरजी ने पास में ही पड़ी रूपेरी झारी (जलपात्र) से पानी की अंजलि भरी, और कहा, "बापु ! मैं आज से प्रतिज्ञा लेता हूँ, की आप के गिरास में से एक छत जितनी भी मिट्टी लूँ तो मुझे गोहत्या का पाप चढ़े। आपके आशीर्वाद से और मेरी भुजाओ के जोर से में अपनी अन्न का उपार्जन कर लूंगा। बड़े भाई को मुरलीधर सो वर्ष की आयु प्रदान करे, और उनके वंश-वारिस आपके गिरास का उपभोग करे।" इतना सुनकर गोविंदजी का हृदय भर आया। कुछ बोल न पाए, लेकिन छोटे की हिम्मत तथा त्याग का आनंद और अपने मन की समस्या के समाधान का संतोष अनुभव कर रहे। दूसरे दिन गोविंदजी ने देह त्याग दिया।

        हमीरजीने बड़े भाई की दाहिनी भुजा बन कर गोविंदजी का गोहिलो को सुहाय ऐसा कारज (मृत्यु पश्चात की देनक्रिया) किया।

        गोविंदजी के कारज के पश्चात तुरंत ही हमीरजीने गिने-चुने राजपूत इकठ्ठे किये।

"अड़ाभीड मरद मैदान जई आटके,
कड़ाबीन हाथ लइ, कोपवंत काटके,
झरे तणखा भुजा तेगने झाटके,
तोपने नाळचे मरद जई त्राटके :"

        लोह की जंजीर तृण समान तोड़ दे, और फूटती तोपों के कान में कील जड़ दे, ऐसे मृत्यु के प्रेमी राजपूतो के साथ कुकड़ पर हमला किया, जित लिया। बाद में दिहोर बसाया। लेकिन दिहोर का तो मानो दसक आया। उन्नति के शिखर को पहुंचता दिहोर को लोग 'दिहोर दल्ली सारखु' (दिहोर दिल्ली समान) कहने लगे। हमीर जी के यहां मर्दो की महफिले जमने लगी। कवि, वार्ताकार जहाँ रसो की रेल लगने लगी। कसुंबा का घूंट एक-दूसरे को गले की कसमें देकर देने लगे। चारोओर आनंद मंगल हो चला। कभी किसी दुराचार या अनीति की बात हमीर जी सुनते तो उनके रोम रोम से क्रोध की ज्वालाए उठ जाती। वे क्षात्रधर्म के पालक थे।

"धरा शिस सो धरे, मरे पण खेध न मुके,
भागे सो नहीं लरे, शूर ब्रद कदी न चुके,
निराधार को देख, दिए आधार आपबल,
अडग वचन उच्चार, स्नेह में करे नहीं छल,
पर त्रिया संग भेटे नहीं, धरत ध्यान अबधूत को,
कवि समझ भेद पिंगल कहे, यही धर्म राजपूत को..."

        हमीरजी के बहन का विवाह ईडर हुआ था। सौराष्ट्र के भवाई (गुजराती लोकनाट्य, वेश तथा स्वांग भी कहा जाता है।) कलाकारो की एक मंडली उस तरफ गई। ईडर महाराजा के सामने हमीर जी की अधिकतम तारीफें की। हमीरजी की उदारता, और उनकी दातारी के अत्यंत बखान किए। इस लिए ईडर महाराजने कहा, "आप जो अभिनय करने वाले हो, उसमे हमीरजी का कोई प्रसंग दिखा सकोगे? भवाइयों ने कहा : "बापु जरूर दिखाएंगे, आप ग्राहक है, हमारे लिए उससे अच्छा क्या होगा?"

        गढ़ में हमीर जी के बहनबा को पता चला, उन्होंने कहलवाया की, "नायक को कहना, भाई का नाम बड़ा है, भोजन बड़ा है, (भोजन बड़ा है अर्थात भूखो को अन्न खिलाने में, दान करने में जो पीछे नहीं हटते।) तो उनका प्रसंग दिखाने में कुछ पैसो की जरुरत हो तो में पैसे दूँ?" नायक ने प्रत्युत्तर भेजा, "की आज यह प्रसंग चित्रित करने का मौका मिला वही हमारे लिए लाखो रुपए समान है, हमारे पास दिहोर के प्रताप से बहुत कुछ है।"

        रात्रि में भवाई शुरू हुई, प्रसंग ऐसा दिखाया की, हमीर जी को प्रतिज्ञा थी की दरबारसभा में से भोजन ले लिए खड़े हो तब जितने साथ बैठे हो वे सभी एक ही पंगत (पंक्ति) में भोजन ले, तथा जब भोजन करने के पश्चात खड़े होने लगे तब दस-पंद्रह अतिथि अश्व के पेगडे छोड़े तो उन आगंतुको को उसी घड़ी उसी पंगत में साथ में ही भोजन कराए। यह देखकर ईडर महाराजा को विचार आया की इसकी परीक्षा लेनी चाहिए। ऐसे असमय जाना चाहिए की राजसभा भोजन लेने के लिए उठे तब पचीस आदमीओ के साथ वहां उनसे मिलने के लिए पहुँच जाना। फिर तो उनकी रसोई कम पड़ेगी ही। इस तरह परीक्षा का मंसूबा तैयार हुआ।

        कुछ दिनों बाद ईडर महाराजा स्वयं तथा अपने कामदार और साथ में पचीस घुड़सवारों के साथ रवाना हुए। विचार किया की दिहोर से थोड़े ही दूर पड़ाव करना, ठीक भोजन के समय ही दिहोर में दाखिल होना।

        यहाँ दिहोर में हमीरजी की सभा दही में तर जमती है ऐसी जमी थी। दो-दो बार कसुंबा ले लिए गए थे, बस भोजन के उठ ही रहे थे की पचीस घोड़ो के कसे हुए जीन और खुद ईडर नरेश आ पहुंचे। हमीर जी को तो मेहमान देखकर छाती फूलने लगी, "अरे आज तो स्वर्णिंम सूर्य उदय हुआ है। आज आप पधारे.." कहकर गले मिले।

        गढ़मे पता चला। हमीरजी के ठकराणां (राणी)ने सोचा की आज तो खूब कसौटी है, लेकिन गांव के घर घर में घी के तावड़े चूल्हे पर चढ़ गए। भांति-भांति के भोजन तैयार होने लगे। बा (हमीरजी के राणी) ने नाइ को बुलाकर कहा, "जा भाई, सभा में खबर दे, की भोजन के लिए पधारे।" नाइ ने कहा, "लेकिन बा, पचीस तो मेहमान है, अभी ही घोड़ो से उतरे है। कुछ देर बाद बुलाते है तो यहाँ सब तैयारियां हो जाए।" बा ने कहा, "अरे भाई तू जल्दी से कह दे वहां, ठाकुर साहब की प्रतिज्ञा है। मुरलीधर लाज रख लेंगे।"

        नाइ ने सभा में आकर दोनों हाथ जोड़कर कहा, "बापु ! भोजन पे पधारिए, भोजन तैयार है।" सुनते ही ईडर महाराजा दंग रह गए। हमीरजी ने मनोमन सोचा, की राजपूतानी ने आज मेरी प्रतिज्ञा के लिए हिम्मत की है। लेकिन इतनी जल्दी इतने सारे लोगो का भोजन कैसे तैयार हो सकता है? लेकिन अब मुरलीधर सहाय रहे। उन्होंने कहा, "पधारो भोजन के लिए !" सब उठे, बैठक की सीढ़ी के प्रथम पगथि पर हमीरजी ने पैर रखा, एक चारण ने हाकल की, ललकारा :

रतना उत पाक्यो रियण, तू परचाळो पीर ;
दिहोर ते दिपावियुं, हाक्यम एक हमीर...१ 

खाड़ा ने खाबोचिया, तू नदियुं नां नीर ;
पिवा कज आवे पृथी, तरस्या तारे तीर...२

        हमीरजी वही प्रथम पगथी पर खड़े खड़े कहते है, "कविराज ! आज शुभ दिवस है, मैं आपको आलापर गाँव दे रहा हूँ।"

        कविराज बिरदाने लगे। एक ऐसा रिवाज है की जब तक कविराज बिरदा रहे हो तब तक चल नहीं सकते, इस लिए वे वहीँ खड़े रहे। दूसरी पगथी पर पैर रखते ही एक और कवि ने दोहा कहा :

खांडा धारे खेलीयो, घोड़ाथी घमसाण ;
दीपक एक दिहोर मां, रंग छे गोहिल राण...१

मागेल महिपत मोखडे, दरिया ऊपर दाण ;
शीर पड़्यु ने धड़ लड्यु, ई तारा ऐंधाण...२

        इस तरह कविगण बिरदाते रहे, सीढ़ी उतरते रहे, चार पगथी उतरते चार गाँव दे चुके थे। और गढ़ में भोजन ले पहुंचे तब तक दोपहर समय बीत चूका था। भोजन के तैयार थाल ढंककर रखने पड़े थे। सभी ने साथ में बैठकर बत्तीस प्रकार के भोजन का रसास्वाद लिया, लेकिन ईडर महाराजा लगा की यहां तो धक्का ही हुआ। चलते चलते कामदार ने कहा : "बापु ! यह तो बिलकुल फोकट का फेरा हुआ, आपको जरा जल्दी करनी थी न।" ईडर महाराजा बोले, : कामदार ! कहीं एक एक कदम पर पैसा फेंका जा रहा हो तब तो कह सकते है की ज्यादा कर्ण का अवतार मत ले, चल अब भोजन को देरी हो रही है, लेकिन जब धणी एक एक कदम पर पूरा गाँव दे रहा हो उस कुछ कैसे कह सकते है ? उसे तो रंग ही देना चाहिए।" ईडर महाराजा अपने सगे की दिलावरी देख खुश हुए और वापस ईडर पधार गए, लेकिन हमीर जी कीर्ति चोतरफ रह गई।

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नाम रहन्दा ठक्करां, नाणां नहीं रहँत ;
कीर्ति केरा कोटड़ा, पाड्या नहीं पडंत ;
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|| अस्तु ||




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