गूढ़ार्थ काव्य की मौज..!
मध्यकालीन युगमे हिंदी व्रजभाषी कविओने तथा ड़िंगळी भाषी चारण कविओने थोकबंद काव्यधान भारतभूमि के चरणों में समर्पित किया। ओखाबंदर से लेकर ठेठ दिल्ली के दरबार तक भांति भांति के कवि थे। भक्ति, श्रृंगार, वीररसपूर्ण उनके अनेको ग्रन्थ आज समाज और सरकार को उपयोगी है। 'जहाँ न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि' यह लोकोक्ति यथार्थ ही है।
उन दिनों में आज का रॉकेट-विज्ञान न था। लेकिन कविओने खगोल से लेकर पृथ्वी के प्रत्येक खंड की माहिती उनकी काव्य कृति के माध्यम से हमे दी।
बानी के प्रभाव से, लेखनी के प्राक्रम से,
सदियों के सोये हुए भावों को जगाते है ;
ज़िंदा करते है जान मुर्दादिलो में डाल,
जब हम काव्यधारा सुधा बरसाते है ;
तारे नहीं जाते जहाँ शशि नहीं जाते,
जहाँ रवि नहीं जाते वहां कवि हम जाते है ;
देशकी संस्कृति तथा राष्ट्रभक्ति भाव की भावना ओ की मशाल को आजदीन तक कविलोक जलाते आए है। उसके जीवनका, आर्थिक तथा मानसिक परिस्थिति की, उसकी गरीबी की भले प्रजा या सरकार ने परवाह न की हो, पर समाज की रहमदिली की परवाह किये बिना संसार में कुचला जाता रहकर भी पीड़ित हृदय में से भी कविने धरती की सुगंध फैलाई है।
अतल वितल पाताल मृतलोक ने,
फर्यो सुरलोक आसमान फोड़ी,
मरणमा जीवन अने जीवनमा मरणने,
विधिना लेखमा मेख खोड़ी,
कागल्या वेण काढीश नहीं, कवि
तू सदाय मरदाईने पंथे धाजे,
अलखना कैफ घेघुर आँखे,
कवि कसूंबल रंगना गीत गाजे।
पाताल मृत्युलोक तथा स्वर्गलोक की बाते कविओने कल्पनाओं द्वारा हमे कही। नामर्द को भी वाक्-शक्ति से मर्द बनाया। लोभी, ठग, पांखण्डी लोगो पर उलटे काव्य रच कर समाज में खुल्ले किए।
शूल बावळ तणी शरीर नव सहे,
एटलुं जीवन कायर मरणथी,
अणमूलो देह एम मानवी मानतो,
जतन करतो रह्यो बाळपणथी,
फना थई जाय माँभोमनी हाकले,
वीररस भरेली रसण गाजे,
अलखना कैफ घेघुर आँखे,
कवि कसूंबल रंगना गीत गाजे।
बबुलकी शूल चुभे उतने में ही 'ओह माँ' मुँह से निकल जाए, ऐसा मृत्यु से कायर यह देह, किन्तु कविओने ऐसे कायर जिव में भी वीररस का सिंचन कर वीरता की ज्वाल प्रदीप्त की। देश की सीमा के रक्षण हेतु अनेको कोडभरे (लाडले) युवाओ को कविओने जगाकर भूमि के लिए सर अर्पण करनेवाले तैयार किये।
ऐसे नामी-अनामी कविओ की कविताफाल (काव्यकी उपज) में से 'गूढ़ार्थ काव्य' में नजर करते है। गुजराती में 'वेणु ना बाण तो मारा गुरूजी ए मार्या' ऐसा पद भक्ति काव्यों में आता है। कवियोने भी शब्दों के बाण-काव्य के कोरडे मारे है :
नहीं हमारे पास तलवार छुरी,
शब्द के सवार तुरंग खर त्यारी है,
भले ही उसके पास तलवार न हो, अश्व न हो, लेकिन उसकी जिह्वा ऐसी है की वह किसी को भी मात दे सके। ऐसा ही एक शब्दवेधु था बिहारीदास। उसने जयपुर महाराजा पर उपालंभ करते दोहा लिखा था। जयपुर महाराजा ने जब दूसरा विवाह किया, तब वे छोटी रानी के प्रेम में इतने खो गए की कचहरी तक जाना छोड़ दिया। राज्य-वहीवट में ढील होने लगी, खाता खा ही जाए और भरता बस भरता ही रहे ऐसी स्थिति हो चली थी। प्रजा मुश्किल में पड़ गई, लेकिन शेर को कौन कहे? बिहारीदास ने एक चिट्ठी में दोहा भेजा,
नहीं पराग, नहीं मधु मधुर, नहीं बिकास परीकाल ;
अली कली हीसे बंध्यो, आगे कौन हवाल ! ;
['हे जयसिंह ! अभी तो आप बिना सुगंध की कली जैसी रानी के प्रेम में इतने खो गए हो, पर जब वह कली फूल की तरह खिलेगी, उसमे युवानी आएगी, तब हम प्रजा का क्या हाल होगा?']
यह दोहा पढ़ते ही जयसिंह की आँखे खुल गई, दूसरे दिन से ही कचहरी जाना नियमित हो गया।
इन बिहारीदास जैसे कविओने गूढ़ार्थ काव्य में उपालंभ किया तो तुलसीदास तथा रहीम जैसे कविओने एकदूसरे को दोहो की पादपूर्ति भेज कर परीक्षा किया करते।
रहीम खानखानाँ को तुलसीदासने एक आधा दोहा पदपूर्ति करने भेजा।
सुरतिय नरतिय नागतिय सबके मन अस होय ;
[देवो की स्त्रियां, मनुष्यों की स्त्रियां तथा नागो की स्त्रियां उन सभी को धन की आवश्यकता होती है।]
खानखानाँ ने दोहा पूरा कर वापस भेजा,
सुरतिय नरतिय नागतिय सबके मन अस होय ;
गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो पूत होय ;
[रहीम जी ने तुलसीदास जी से कहा कि आपने सही नहीं कहा, धन-संपत्ति महिलाओं को प्रिय हो सकती हैं, लेकिन सबसे बड़ी सौभाग्यशाली तो वह मां है, जिसका तुलसीदास जैसा बेटा हो।]
यह दोहा पढ़कर तुलसीदास कृष्णभक्त खानखानाँ पर कितने राजी हुए होंगे?
किसी अनपढ़ कविने काव्यज्ञानमे डूब चुके अभिमानी कविओं का भी पानी उतारा है। ऐसा ही एक कवि नवानगर (जामनगर) के जाम रावल की कचहरी में आया। गाँव का अनपढ़ कवि था, पहनावा भी गाँव वाला ही, मटमैले कपड़े। कचहरी में आकर कविने 'जे माताजी' भी न कहा। सामने से 'जे माताजी' कहकर कचहरी के कविओने इस अनजान आदमी को देखा।
"क्या नाम है देव?" एक जने ने पूछा।
"नाम तो बाळधो"
"हं ! जात ?"
"गोधा"
"अच्छा ! गाँव कौनसा?"
"खड़ सोखडा।"
चारणकवि ने ठन्डे कलेजे जवाब दिए और कचहरी के कविओने उसकी मश्करी की, "हां बापु हां ! नाम अनुसार ही गाँव होगा न।" (कवि का नाम बाळधो का अर्थ बैल होता है, जात अर्थात शाखा गोधा का अर्थ भी बैल होता है, गाँव ख़ड़सोखडा में खड़ का अर्थ घास-चारा। कविओने मजाक उड़ाई की बैल है घास भी है।)
गोधा शाखा का यह चारण उसके खडसोखडा गाँव से द्वारका यात्रा करने निकला था। मार्ग में जामनगर के जाम रावल से मिलने पहुंचा तो वहां कविओने उसे मजाकों से नवाजा। चारण था तो अनपढ़, गाँव का गंवार, लेकिन पढ़े-लिखो को भरमा दे ऐसी माँ शारदा की उसपर कृपा थी। उसने कहा, "जैसा भी हूँ, लेकिन चारण हूँ। आप सब तो बड़े कविराज है। आपकी नजरो में आने जितनी मेरी पहुँच कहाँ ! यह तो में द्वारिका की यात्रा पर जा रहा था तो सोचा की 'पच्छम के पादशाह' (रावळ जाम) के भी दर्शन करता जाऊं। लेकिन भरी कचहरी में आपने मेरा खूब सन्मान किया, रावल जाम की सभा में सुहाय ऐसा।" अत्यंत खिजे चारण ने कहा।
जाम रावल को भी पछतावा हुआ की गलत हुआ। एक चारण का मेरी नजरो के सामने अपमान हुआ।
"बैठो बैठो कविराज ! कसुंबा लो" जाम रावल ने विवेक किया।
"ना बाप ! मै कसुंबा नहीं लेता। रोटी के अलावा मुझे कोई व्यसन नहीं।" अपनी झोली कंधे पर डालकर चारण चलते चलते एक पदपूर्ति सभा में फेंकता गया :
अधर गयण वळंभ रही, कव चढ़िया तोखार ;
कविओ को कहकर गया की, "मैं यात्रा से वापस लौटूंगा तब तक मेरा यह दोहा पूरा कर देना। लो जी राम राम !" कहकर चारण चल पड़ा। जाम रावल समेत पूरी कचहरी की आँखे इस जाते चारण पर ही चिपक रही।
"भाई रे, भयंकर आदमी है।"
"लो कविराजो, उसकी मजाक कर रहे थे न तो अब इसकी पदपूर्ति करो।" रावल जाम ने कहा।
"हां हां बापु ! उसमे क्या ? अभी कर देते है।" आडंबरधारी कविओने कहा। लेकिन मन में डर बैठ गया था कि यह पदपूर्ति और वह चारण दोनों जल्दी से समझ आए वैसे थे नहीं। एक दूसरे को आँखे फाड़ फाड़ देखने लगे, लेकिन दोहे का अर्थ ही जहाँ समझ नहीं आ रहा वहाँ पदपूर्ति कैसे हो ? जाम रावल ने दया दिखाते सभी को सुबह तक का समय देकर कचहरी बर्खास्त की।
घर पहुंचकर सभी कविओने खूब मेहनत की, लेकिन दोहा पूरा हुआ नहीं। तभी किसी अनुभवी कवि ने कहा, "अब चने चबाना छोडो, और जल्दी पहुंचो द्वारका। वहां वह चारण दोहा पूरा कर देगा।" तुरंत ही दो लड़को को भागते घोड़ो पर द्वारका भेजा गया।
यहाँ चारण गोमतीजी में स्नान कर रहा है, तभी भूदेव (ब्राह्मण) ने कहा, "आपका कोई अधूरा संकल्प हो तो यहाँ पूरा करे, जाहिर न कर सको तो मनमे करना।" कहकर हाथ (अंजुली) में पानी दिया।
चारण ने कहा, "जीवनमे कोई भी अधूरा संकल्प नहीं है, एक दोहा है उसे पूरा कर देता हूँ।" उसने ऊँची आवाज में दोहा ललकारा :
अधर गयण वळंभ रही, कव चढ़िया तोखार ;
तें उतार्यो लखधीररा, भोरिंग सर थी भार ;
[हे लाखा जी के पुत्र रावल जाम ! आपने इतने अश्व दान में दिए है की उन घोड़ो की टाँपो से उड़ती धूल से आकाश में बादल बनते है, इस तरह आपने शेषनाग के सर पर से उतना भार कम किया।]
लड़को ने जल्दी से दोहा याद कर लिया, और जामनगर लौट आए।
चारण घूमता-फिरता देवदर्शन करता सात-आठ दिनों बाद जामनगर आया। आकर तुरंत ही कहा, "लाओ बाप ! मेरा दोहा लाओ।"
एक जनने खड़े होकर याद कर रखा हुआ उसी चारण का दोहा सुनाया। सुनते ही खड़सोखड़ा के चारण ने सर हिलाया। "नहीं, नहीं, यह तो मेरा ही कहा हुआ दोहा है, एक भी शब्द उसमे आपका नहीं।"
"तो हम लोग यहाँ क्या जख मारने बैठे है ?" कचहरी के कविओने चारण का मुँह तोड़ लिया। चारण बेचारा झेंप गया। 'सो मुंह के आगे एक मुंह क्या?' अकेले पड़ गए चारण की बात किसीने स्वीकारी नहीं। लेकिन जाम रावल के मनमे आश्चर्य रह गया की यह चारण सच्चा है या कचहरी के कवि ? उन्होंने चारण को इस समस्या का हल न हो तब तक रुकने को कहा।
एक दिन रावल जाम सवेरे सवेरे अपनी रानिवास में गए, तब वहां उन्होंने एक सुन्दर दृश्य देखा। रानीजी सवेरे नहाकर अपने बाल सूखाने के लिए झरोखें के पास धूपमे अपने बाल खोलकर सो रही है, झरोखे में एक पंखी भी बैठा है, वह रानीजी के बालो में से गिर रहे जल बूंदो को मोती समझ कर चोंच मारता है, लेकिन जलबूँद बिखरते ही वह झिझक जाता है। रावल जाम के मुख से कुछ शब्द निकल पड़े :
'झझक झझक झझकाय'
कचहरी में आकर यह 'झझक झझक झझकाय' दो-तीन बार बोल गए, फिर कहा : "इस का क्या अर्थ होता है वह समजाओ।" कचहरी के कविगण तो पहले से जूठे थे, उनकी चोंच इस 'झझक झझक झझकाय' में डूबी नहीं। इस लिए रावल जाम ने उस बाळधा कवि से पूछा, "कविराज आप कहो।"
तुरंत ही चारण ने दोहा कहा,
तरुनी सेज तांदुल जरन, खंजन पंखी खाय ;
अल्प पदारथ जानकै, झझक झझक झझकाय ;
[कोई सोइ हुई स्त्री के बालो में से जलबूँदे गीर रही है, उन जलबिंदुओ को मोती समझ कर खंजन पक्षी चुगने जाता है, पर वह चुग नहीं पाता, इस लिए झिझक रहा है।]
सुनकर रावल जाम बहुत खुश हुए। चारण का धन्यवाद किया। दूसरे दिन अपना अन्न बिगाड़ रहे कविओ को रजा दे दी।
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
एक चिड़े-चिड़ी को पारधी ने पकड़ लिए। संयोगतः रातभर उनको जाल में ही पड़ा रहने दिया। उस दृश्य पर किसी कवि ने दोहा रचा :
अरि मिलन्ता दुःख गयो, सुख की बीती रेन ;
जो सुख काने न सुणियो, वो सुख दिठ्यों नेन ;
[दुश्मन मिलते ही दुःख गया, सुखमय रात बीती, क्योंकि चिड़े-चिड़ीया का रात्रि में मिलन नहीं हो सकता। वे तो बेचारे रेन वियोगी होते है, लेकिन इस दुश्मन पारधी के कारण वे उस रात्रि को मिल सके। जो सुख कभी कानो से सुना न था वः सुख नजरों ने देखा।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
कर चूड़ी अळगी करी, द्रग अंजन धो डार ;
आयो हे मनभावतो, सब सणगार उतार ;
यह दोहा सामान्यतः शयनगृह के श्रृंगार जैसा लगता है, लेकिन ऐसा हे नहीं। उसमे महाभारत की एक कथा समाहित है।
पांडवो का विराटनगर में एक वर्ष अज्ञातवास था। तब कौरवोने एक विशाल सेना के साथ विराटनगर पर चढ़ाई की। विराटनगर के राजा का पुत्र सामने लड़ने जाता है। उसका सारथि तब अर्जुन होता है, लेकिन वह बृहन्नला के वेश में था। सामने विशाल सैन्य देखकर राजा का पुत्र वापस भागना चाहता है, तब उस क्षण को अर्जुन को संबोधित है यह दोहा,
['हे अर्जुन ! तेरे हाथ की चूड़ी आज दूर कर दे। आँखों में लगा काजल धो दे। क्योंकि तुझे जो सवाल है 'आयो है मनभावतो' वह युद्ध तेरे सामने आकर खड़ा है। इसलिए हे अर्जुन स्त्रिओं वाले श्रृंगार उतारकर अब युद्ध में कूद पड।']
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
ऐसी ही एक रामायण की कथा एक दोहे की पदपूर्ति में छिपी है,
सुहागन चीता लिखे, बिजोगन कर बीन ;
इस पदपूर्ति का आजका कोई अधकचरा लोकसाहित्यकार हो तो अर्थ करेगा की सुहागन चित्ते का चित्र बना रही है और बिजोगन बिना बजा रही है, कैसा अद्भुत है। पर ऐसा हे नहीं। उसमे बहुत गहरा गूढ़ार्थ छिपा है, रामायण की एक बात समाहित है उसमे।
लक्ष्मण को जब मेघनाद का बाण लगा और मुर्छावंत हुए वह अँधेरी सप्तम की रात थी। रावण के राजमहल के झरोखे से मंदोदरी एक बाघ-चित्ते का चित्र बनाकर चन्द्रमा को दिखाती है। लेकिन चंद्र पर उसका कोई प्रभाव होता नहीं दिखता। वह चित्र में सुधार कर फिर से चंद्र की ओर रखती है लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ता। ऐसा दो-तीन बार हुआ।
रावण पलंग पर सोता सोता यह सब देख रहा था। वह उठकर मंदोदरी के पास आया और पूछा, "कर क्या रही हो तुम !"
मंदोदरी कहती है : "मैं बाघ का चित्र बनाकर चंद्र को दिखा रही हु। चंद्र का वाहन मृग है, तो मृग यह बाघ के चित्र को देखकर भड़क कर भागे तो चंद्र जल्दी से अस्त हो जाए। चंद्र जल्दी से अस्त हुआ तो सूर्य जल्दी उगेगा। और यदि सूर्य जल्दी उगता है तो लक्ष्मण के लिए हनुमान जो संजीवनी लेने गया वह समय रहते नहीं आ पाएगा। तब लक्ष्मण की मृत्यु होगी और मेरा पुत्र मेघनाद विजयी होगा।"
यह सुनते ही रावण ने हंसकर कहा : "प्रिये ! तेरे जैसा ही कुछ कोई अन्य स्त्री भी कर रही है वह सुन।"
मंदोदरी ने ध्यान से सुना तो अशोक वाटिका में से मीठे वीणा के सुर सुनाई दे रहे थे। मंदोदरी ने आश्चर्यचकित होते रावण की ओर देखा और कहा : "अरे ! यह सीता किस ख़ुशी में अभी वीणा बजा रहे है ?"
रावण ने जवाब देते कहा : "सीता इस लिए वीणा बजा रही है की वीणा के स्वर मृगो को अत्यंत पसंद होते है। वीणा पर सीता अभी मल्हार राग बजा रहे है। इन सुरो से रीझ कर यदि मृग कुछ देर रुक जाए तो चंद्र देर से अस्त होगा। चंद्र के देरी से अस्त होने के कारण सूर्य भी देरी से उगेगा। और आज सूर्य जितना देरी से उगे उतना अच्छा है की हनुमान समय रहते संजीवनी लेकर आ जाए और लक्ष्मण की मूर्छा ठीक हो।"
इस तरह रावण-मंदोदरी के ऐसे रहस्यमयी युद्ध प्रसंग की बात यह दोहा करता है।
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
एकबार दिल्ली में औरंगज़ेब को कचहरी में किसीने पदपूर्ति दी,
राहु गोद मंगलकी, मंगल गुरु की गोद ;
गुरु गोद चंद्रकी, अरु चंद्र रवि गोद में ;
मतलब राहु मंगल की गोदमे, मंगल गुरु की गोदमे, गुरु चंद्र की गोदमे, और चंद्र सूर्य की गोदमे समाहित हो गए, ऐसा कभी हुआ था ?
एक कवि ने युक्ति लड़ाकर कहा : "जब भगवन रामचंद्र ने रावण के सामने धनुषधारण किया, और प्रत्यंचा खींचकर टंकार किया तब पृथ्वी हलबला गई। समस्त अवकाश मंडल कंपायमान हो उठा, और तब एक-दूसरे ग्रह एक-दुसरो में समाहित हो गए।"
सभा में से किसी का भी मन इस तर्क से नहीं माना। एक और कवि ने कहा : "महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामहने जब अर्जुन के सामने धनुष उठाया और तीर पर तीर बरसाए तब अर्जुन जैसा महान धनुर्धर भी भयभीत हो गया। उसके भाथे से तीर ही नहीं निकल रहा था, जैसे ही तीर मारे तो भीष्म का तीर बिच में से अर्जुन के तीर को तोड़ देता। भगवान कृष्ण अर्जुन के सारथि थे वे भी अचंबित रह गए, तब ग्रहो की ऐसी स्थिति हुई थी।" इस कवि की विद्वता पर भी किसी ने हां की मोहर न मारी। तब गणेशपुरी नामके कवि ने खड़े होकर कहा :
बाढ़ी वीर हाक हर डाक भुव चाक चढ़ी,
ताक-ताक रही हूर छाक चहुं कोद में ;
बोलिकै कुबोल हय तोल बहलोल खाँ पै,
बागो आन कत्ता रान पत्ता को विनोद में ;
टोप कटि टोटी लाल टोपा कटि पीत पट,
सीस कटि अंग मिली उपमा सु मोद में ;
राहू गोद मंगल की मंगल गुरु की गोद,
गुरु गोद चंद की चंद रवि गोद में ;
[चारों ओर शूरवीरों की हाक बढ़ी। महादेव की डाक (वाद्य विशेष) वीरों का उत्साह बढ़ाने लगी, भूमि चक्र पर चढ़ी और अप्सराएँ तृप्त होकर चारों ओर देखने लगीं। ऐसे समय में अश्व को सम्हाल कर कटु वचन बोलते हुए महाराणा प्रतापसिंह ने विनोद में मुग़ल बहलोल खाँ पर अपना कत्ता (खड्ग) चलाया जिससे उसकी कमर कट कर, सिर का लाल मुकुट, कमर का पीला कपड़ा, और सिर तक कट गया। उस समय आनंद में क्रम से ऐसी उपमा प्रतीत हुई कि, मानो श्याम वर्ण राहु रक्तवर्ण मंगल की गोद में, मंगल पीत वर्ण बृहस्पति की गोद में, बृहस्पति स्वच्छ चंद्रमा की गोद में और चंद्रमा ओजस्वी सूर्य की गोद में हों।]
▪──── ⚔ ────▪ ⚔ ▪──── ⚔ ────▪
पोरबंदर राणा सुरसिंहके समयकाल में एक ज्योतिष ने पूर्णिमा पर चंद्रग्रहण का योग कहा। लेकिन उस दिन चंद्रग्रहण हुआ ही नहीं। ज्योतिष को सुरसिंह ने दरबार में बुलाकर कहा : "क्या महाराज ! गपगोले चलाते हो ? ग्रहण तो हुआ नहीं।"
भूदेव ने कहा : "प्रभु ! ग्रहण का योग तो था ही। कोई अन्य कारण होगा।"
सुरसिंह ने कहा : "तो कारण बताओ।" लेकिन ज्योतिष के पास कारण बताने की कोई विद्या न थी। तब गुणदेव नाम के कवि ने कहा :
एक समे पूरन ज्योत शशि भयो,
सुनिके ग्रहन देखे लोक सब धायके ;
ज्योतिषीसी ज्वाल बाल इंदु सो मुखारविंद,
कहे गुणदेव महल काढी भई आय के ;
चंद्र और चंद्रमुखी यारी गुसु,
ऐसे ही बिचार निशा सारी ही बिताय के ;
चंद्र भयो अस्त चंद्रमुखी ना ज ग्रह आई,
राहु गयो ग्रह निज रियो पछताई के ;
[हे राजा ! पूर्ण चंद्र खिला तब ग्रहण का योग तो था, लेकिन सब लोक के साथ एक अति स्वरुपवान चंद्रमुखी स्त्री यह ग्रहण देखने महल के झरोखे खड़ी थी। राहु जब चंद्र को ग्रहने आया तब यह चंद्रमुखी का चंद्र समान मुख देखकर विचार में पड़ गया की किसे ग्रहा जाए ? इस सोच-विचार में ही पूरी रात ख़त्म हो गई और सुबह हो गई।"]
गुणदेव कवि की उपरोक्त उक्ति सुनकर राणा सुरसिंह खुश-खुशाल हो गए। कविने ब्राह्मण को भी बचा लिया।
सुरसिंहजी के पास एक आधा सफ़ेद और आधा लाल मोती था। तो एक ही मोती के दो-दो रंग देखकर उन्होंने कवि गुणदेव से पूछा : "इसका कारण क्या होगा ?"
गुणदेव ने कहा :
नखेतर स्वांत रीतु शरद सभट भट लरत महाबल,
उदधि दूर अवी दूर सूर भरपूर उभे दल ;
ग्रीध लाल अंतराल आल ग्रही चढ़ अंबर,
ते ही काल तत्काल हाल हुई ब्रखा धधंबर ;
शोणित ब्रखा बाहु मीली छिप मुखमे गयो,
यही जान राजान पति मोती को दो रंग भयो ;
[एक बार समुद्र किनारे दो शूरवीरो के दल युद्ध लड़ रहे थे, तब शरद ऋतु तथा स्वाति नक्षत्र था। समरांगण से एक गिद्ध मांस का एक टुकड़ा ले ऊपर उड़ा, ठीक उसी समय वर्षा हुई। स्वाति की वर्षा के साथ शोणित मिला, और छिप(सिप) में गया। तब जो मोती का निर्माण हुआ वह द्विरंगी लाल तथा सफ़ेद हुआ।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
अकबर ने एक बार कवी गंग से पूछा :
"सब नदी में नीर है, उज्वल रूप निधान ;
अकबर पूछे गंग को, जमना क्यों भई श्याम ?"
[हे कवि गंग, सभी नदी के नीर श्वेत होते है, तो फिर यमुना को कविओने श्याम क्यों कहा ?]
तब कवि गंग उन्हें 'सवैया' में उत्तर देते है :
जा दिन तें जदुनाथ चले ब्रज गोकुल से मथुरा गिरिधारी,
ता दिन तें ब्रजनायिका सुंदर रंपति झंपति कंपति प्यारी,
वाहि के नैनन की सरिता भई शंकर सीस चले जल भारी,
गंग कहै सुन शाह अकब्बर ता दिन ते जमुना भई कारी ;
[जब कृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा गए तब व्रज की वनिताए व्याकुल हो उठी, उनके नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लगी। वह मानो शंकर के मस्तक पर जलधारा समान थी। उन रोती आंखोके काजल से आंसू बहने के कारण यमुना काली हो गई।]
ऐसा ही एक और सवैया है कवि गंग का, जब अकबर ने पूछा : "आँखों के आंसू से भाल का तिलक कैसे गिला हो ?"
कवि गंग ने उत्तर में कहा :
जा दिन कंथ बिदेश चले सखि ता दिन से बहु लागत जीको।
अंग शृंगार अंगार से लागत मानुनि के मन लागत फीको।
सेज समै कमला भई व्याकुल सीस रह्यो लटकी तरुनी को।
गंग कहै सुन शाह अकब्बर नैन के नीर में भीजत टीको॥
[हे अकबर ! किसी स्त्री का पति विदेश गया है तब से वह व्याकुल हुई है। जी कहीं लगता नहीं उसका। अंग पर सजे श्रृंगार उसे अंगारे लगते है। सेज-(पलंग) पर सोते समय सर लटकाती रोती है, तब आँखों से बहे आँसुओने कपाल का टिका भिगो दिया।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
सिद्धराज जयसिंह ने अपनी कचहरी में एक चित्र बनवाया था। चित्र में एक बालक पालने में सो रहा है, तथा एक स्त्री दिया लेकर बालकका मुख देख रही है। सिद्धराज अपने प्रत्येक कवि को इस चित्र के विषय में पूछता, पर चित्र का भाव-वर्णन कोई कवि कर नहीं पाता।
एक बार मारवाड़ से आणंद-करमाणंद नाम के तो मीशण शाखा के चारण पाटण आए। उन्होंने इस चित्र को देखकर तुरंत ही दोहा कहा :
दिवो लइने दिकरा, जननी कांउ जोय ;
हुंवा नकर होय, सधरा जेसंग सारखा ;
यह दोहा सुनकर सिद्धराज खुश हुआ, और आणंद-करमाणंद को अपने राजकवि पद पर नियुक्त किया।
यह आणंद-करमाणंद के अनेको युक्तिसभर दोहे तथा कवित्त है। कंकालण भाटण वाले उनके कथानक में अनेक कवित्त है। उनका एक श्रुंगार रस का दोहा पुरानी भाषा में देखने मिलता है :
बींब हरी तणुं रमवणुं, कीठ ठियुं सीरी आणंद ;
नीरूपम पावे पीपविजणु, रोष हो दाणो मुद ;
[हे आणंद ! बिंब फल जैसे होंठो पर दांत द्वारा किया गया प्रहार कैसा हो ?]
करमाणंद को जवाब देते आणंद कहता है, :
"निरुपम, जिसे उपमा न दे सके ऐसा अधररस पियु ने पी सके उतना पीया, और बाकी रस कोई अन्य न पी सके इसलिए जूठा किया। अर्थात अपनी महोर लगा दी।
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
प्रेम में एक पागल प्रियतमा सवेरे कुक्कुट (मुर्गा) बोला तो उस पर चीख पड़ी :
भोम डसण रिपु बोलियो, छांड चल्यो पिया मोय ;
हरसुत वाहन ता रिपु, आन मिलाऊं तोय ;
[भूमि को डसकर चलने वाले जन्तुओ का रिपु (शत्रु) कुक्कुट (मुर्गा) बोला, मतलब सवेरा हुआ मुर्गे ने बांग दी। तब प्रियतम सेज (बिस्तर) छोड़कर चल दिया। इससे क्रोधित हुई प्रियतमा ने कुक्कुट से कहा, हरसुत वाहन - शंकर पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर, ता रिपु - उसका दुश्मन श्वान। तो श्वान को बुलाकर हे कुक्कुट तेरे पंख निकलवा दूँ !]
ऐसा ही एक और दोहा है, जिसमे राधाजी कान्हा की मश्करी करती है, :
भोम डसण रिपु बोलियो, आयो रेन को अंत ;
राधाजी ए बतावियो, चार नार को कंत ;
[भूमि को डसते चलते जंतु ओ का रिपु-शत्रु मुर्गा बोला। रात्रि का अंत हुआ, सवेरा हुआ। तब राधाजी ने कान्हा जी को 'चार नार का कंत' अर्थात चार अंगुली का अंगूठा दिखाया।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
किसी भक्तकवि ने तो ईश्वर भजन न करते मनुष्य को डांटते कहा है :
नर मुख से लियो नहीं, नाग रिपु पति नाम ;
शंकर सुत की भारज्या, गई कौनसे गाम ;
[हे मनुष्य ! तूने तेरे मुख से सर्प के रिपु - गरुड़ के स्वामी - कृष्ण को भजा नहीं इस लिए शंकर के पुत्र गणेश की पत्निया रिद्धि तथा सिद्धि तेरे घर से जा चुकी।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
भक्तकवि सूरदास ने भी उक्ति काव्य द्वारा सखीभाव व्यक्त किया है,
उधो ए तो मोह सतावे..
हेम सुता पति रिपु हमारे,
दधि सुत रिपु न चलावे... उधो..
अंबज खंडन शब्द सुनावे,
मन चातक हुई धावे,
कनकपुरी ताके पति भाता,
खीला भर मोहे न आवे... उधो..
नाइ नइसन बसन आभूषन,
नागन हुई मोहे डसावे,
सूरदास व्याकुल त्रणीसो,
खगपति चढ़ क्यों न आवे... उधो..
[गोपी कहती है : "हे उद्धव जी, हिमालय की पुत्री पार्वती के पति शंकर का शत्रु कामदेव हमे जलाता है। अर्थात वह हमारा बैरी हुआ है। आकाश में मेघ गरजता है, मन चातक पंखी की भांति पुकार कर रहा है। एक पलभर निंद्रा नहीं आती। अंग पर धारण किए आभूषण सर्पिणी की तरह डसते है। सूरदास कहते है ऐसी व्याकुल गोपियों की पुकार सुनकर गरुड़पति (कृष्ण) क्यों नहीं आ रहे ?]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
भगवान रामचंद्र जी ने जब रावण के सामने सरसंधान किया, तब बाएं तथा दाएं हाथ का संवाद किसी कवि ने लिखा :
कोपे रघुनाथ जब धनुष चढाव लीनो,
दाहन से बांह बोली महा कोप करके,
दाननमें माननमें भोजनमें आगे होत,
ऐसे गाढ़े रहनेमें पीठ देत लरके,
तो बोले दछन ऐसो, लछन न मेरी पास,
मैं तो पुछु बात जाय गछन पेहरके,
शिव की आशीष और रावन को दसो शीष,
एक बेर तोडू के ना एक एक करके ;
[भगवन राम ने जब बाए हाथ से धनुष उठाकर दाए हाथ से कान तक प्रत्यंचा खींची, बांया हाथ आगे हुआ, दांया पीछे। तो बाएँ हाथ ने दाएं हाथ को कहा : "अरे बेशर्म ! मान लेने में, दान लेने में, भोजन करने में तू आगे रहता है, और आज युद्ध के समय पीछे हट गया ?"
तब दाएं हाथने कहा : मुझमें ऐसी कायरता के कोई लक्षण नहीं है, मैं तो प्रभु राम से पूछ रहा हूँ की, रावण को शिव का वरदान प्राप्त है, तथा उसके दस सर है। तो एक ही बार में काट दूँ या फिर एक एक करके ?" यह सुनकर वामभुजा चुप ही हो गई।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
घर के कलेश कितने हानिकारक होते है, तथा उससे घर के मुख्य मनुष्य की स्थिति कैसी होती है, उसे अनुलक्ष एक कविने शंकर का उदाहरण देते कवित्त लिखा, भगवन शंकर विष्णु से कह रहे है, :
गणपति वाहन को भ्रखन भुजंग चाहे,
कार्तिक को केकी जात नागोसे निभायो ना ;
पार्वती को पंचानन आनन गनेश पे त्यों,
जानवी जटा में सो भवा के मन भायो ना ;
जहाँ चंद चारु तहाँ तीसरो है तीव्र द्रग,
युगन को जगरो से जात से जतायो ना ;
कहत महेश के हे रमेश पालिये तो मैंने,
हलाहल पियो तव मेहे अंत आयो ना ;
[हे विष्णु ! मेरे घर में अपार कलेश है। मैं और मेरा पुत्र मिल नहीं सकते, क्योंकि गणपति का वाहन मूषक है, और मेरे आभूषण सर्प को देखते ही मूषक दूर से ही भाग जाता है। ऊपर से कार्तिकेय का वाहन मोर है, उस मोर को देखकर मेरे सर्प भाग जाते है। अरे पार्वती और गणेश - माँ-बेटा भी नहीं मिल पाते, क्योंकि गणपति का मस्तक हाथी का है और पार्वती का वाहन सिंह। इन दोनों प्राणी को बैर है। मेरे मस्तक से गंगाजी बहती है वह देखकर पार्वती को सौतन समझकर ईर्ष्या होती है। मेरे सर पर चंद्र है, उसके ही पास में काम को भस्म करनेवाला तीसरा नेत्र है। उन दोनों के बिच भी मेल नहीं है क्योंकि चंद्र शीतल है, और तृतीय लोचन उष्ण। युगो से यह झगड़ा चला आ रहा है। इसी लिए मैंने संसार से रुष्ट होकर हलाहल पिया फिर भी अंत न आया।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
काव्य में एक नाम के अनेको अर्थ होते है। किसी भी नाम का अर्थ लेकर कवि कविता रचते। अनेकार्थी नामवाले पिंगल के ग्रंथ कविओ को पढ़ाए जाते। एक उदाहरण देखते है।
हरि के कईं अर्थ होते है। हरि मतलब विष्णु, हरि अर्थात सर्प, सिंह, बन्दर, चंद्र, मेंढ़क, मेघ, बिल वगैरह। हरि शब्द का उपयोग कर कुबेर कवि ने दोहा लिखा :
हरि गरज्यो हरि उपज्यो, हरि आयो हरि पास,
जब हरि ता हरिमें गयो, तब हरि भयो उदास ;
[मेघ के बरसने से मेंढ़क उत्पन्न हुए। उन्हें देख वहां सर्प आया, लेकिन सर्प को देखकर मेंढ़क अपने बिल में चला गया तो सर्प निराश हुआ।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
किसी भक्त कवि ने लिखा की :
अजी साहेली ता रिपु, ता जननी भरथार,
ताके पुत्रका मित्रको भजिये वारंवार ;
[अजी अर्थात बकरी की साहेली मतलब भेड़। और भेड़ का शत्रु यानी भंठीयु-घास (एक प्रकार का घास जो भेड़ के उन में फंस कर भेड़ को नुकसान पहुंचाता है।) उस घास की जननी यानी पृथ्वी, पृथ्वी का पति मेघ यानी इंद्र। इंद्र के पुत्र अर्जुन के मित्र कृष्ण। उस कृष्ण को बार बार भजने की बात कितनी युक्ति पूर्वक कही गई है।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪
सारंगे सारंग ग्रह्यो, ऊपर सारंग धाय,
ऋत को सारंग साचवे, (तो) मुख को सारंग जाय ;
[मोर का एक नाम सारंग है। तो मोरने एक सर्प पकड़ा, उतने में मेघ गर्जन हुआ, अगर मोर बोले तो मुंह से सर्प गिर जाए।]
▪──── ⚔ ────▪▪──── ⚔ ────▪