सबके प्रश्न एक साथ हल हो गए...!
"जामनगर राजयचिन्ह" |
जामनगर नरेश जाम रणजीतसिंह जी आजीवन अविवाहित रहे थे। उनके अवसान के पश्चात जामनगर की गद्दी पर वारिस के तौर पर, जामनगर के नए जामसाहब के तौर पर, सेना में उच्च ओहदे पर सेवा दे रहे श्री दिग्विजयसिंह जी की पसंदगी हुई। जाम दिग्विजयसिंह जी जामनगर की गद्दी पर सत्तारूढ़ हुए।
अपना एक साथी, जामनगर के महाराजा बने उस ख़ुशी को मनाने लश्कर के पुराने साथीदारो का जामनगर में आगमन शुरू हो गया। इन अतिथिओ के लिए शिकार कार्यक्रम तो होगा ही। हिरण और रोज़ जैसे जानवरो का सफाया बोलने लगा।
बड़े चाव से हो रही इस हिंसा देख जामनगर का महाजन (जैन) चीत्कार उठा। कानाफूसी शुरू हुई। आखर एक दिन महाजन सब इकठ्ठा हुए। एक के बाद एक सबने बांध दरवाजे हुई इस बैठक में रोष प्रकट किया। पर कर क्या सकते थे ? नए नए राजा को कहे कैसे ? और कहे तो कहेगा कौन ? यह तो सैनिक वाला मिजाज लेकर गद्दी पर बैठे हुए राजा। लंबी चर्चा के अंत में समस्त महाजनने जामसाहब को रूबरू मिलकर हिंसा रोकने के लिए विनंती करने का नक्की किया। दीवान साहब से मिलकर जामसाहब की मुलाकात मांगी। जामसाहब ने भी तुरंत ही महाजन से मिलने के लिए समय दिया।
जामसाहब के महल में महाजन के स्वागत में गादी-तकिया बिछ गए, चपराशी खड़े-पैर पास ही खड़े हुए।
महाजन पधारे, जामसाहब ने खुद उनका स्वागत किया। गादी-तकिया पर महाजन को बिठाया गया। आगता-स्वागता हुई। महाजन राजी बहुत हुआ। मनोमन सोचने लगे की, 'ऐसे प्रेमालु महाराजा से मिलने में बेवजह ही संकोच कर रहे थे।'
"बताइए ! कैसे आना हुआ ?" जामसाहब ने समग्र महाजन पर नजर फेरते पूछा।
कौन शुरुआत करे ? सब एक-दूसरे के मुंह देखने लगे।
"दिल में जो भी बात हो बेधड़क कहिए, मेरा महाजन मेरे मन बहुत बड़ा है। ऐसा क्या हुआ की आप सभी को यहाँ आना पडा?" जामसाहब ने अपनी मिठास भरी वाणी से सबको पानी पानी कर दिया।
आख़िरकार महाजन में से एक खड़ा हुआ। एक हाथ से पगड़ी ठीक की, दूसरे हाथ से खेस ठीक किया। थी उतनी सारी हिम्मत इकठ्ठी कर संकोचपूर्वक शुरुआत की, "बापु ! आप महाराजा है, आपको हम क्या ही कहे ? पर एक बात पर हमारा मन बहुत कुचलाता है।"
"ऐसा क्या हुआ है जो मेरे महाजन के मन को चोटिल करे ?" जाम साहब हँसते हुए बोले।
"बापु ! आप गद्दी पर विराजमान हुए उस पर हमें अनहद आनंद है लेकिन..." वह रुक गया।
"रुक क्यों गए ? बोलो ! अरे आनंद हुआ है तो फिर समस्या क्या है ?" जामसाहब ने मंद मुस्काते पूछा।
"बापु ! आपके गद्दी पर आने के बाद हिंसा..." वह फिर संकोचपूर्वक रुक गया।
"बोलो ! बोलो ! हिंसा का क्या ?" जामसाहब ने फिर पूछा।
"बापु ! आपके गद्दी पर बैठने के बाद हिंसा बहुत बढ़ गई है। और हिंसा देखकर हमारा दिल दुःखता है।" दोनों हाथ जोड़कर उसने मुश्किल से अपना वाक्य पूरा किया।
"हिंसा ? दीवान साहब तो कहते है की पुरे राज्य में शांति और सलामती है।" जामसाहबने हँसते मुख जवाब दिया।
"शहरो में तो शांति है, आपके राज में उस बाबत की कोई चिंता ही नहीं है।" महाजन ने स्पष्टता की।
"फिर कौनसी हिंसाखोरी से मेरे महाजन का दिल दुखता है ?" जामसाहब ने आत्मीयता दिखाते प्रश्न किया।
"इन दिनों शिकार बहुत हो रहा है। हिरण तथा रोज़ आदि का नाश हो रहा है। हमसे यह देखा नहीं जाता।" महाजन को थोड़ी हिम्मत आने लगी।
"शिकार ! होता होगा। लेकिन वह तो जंगलो में होता है, आपको कहाँ देखना पड़ गया यह सब ?" जामसाहब ने प्रश्न किया।
"हमे नजरो से तो नहीं देखना पड़ता लेकिन राज्य में बड़ी तादात पर शिकार हो, बेजुबान प्राणी - पंखी ओ की हिंसा हो, वह सुनकर भी हमारी भावना को ठेस पहुंचती है।" महाजन में से दूसरे एक ने खड़े होकर जवाब दिया।
"अच्छा ! बिना देखे, केवल सुनकर भी आपकी भावनाओ ठेस पहुंचती हो तो मुझे यह रोकना चाहिए। शिकारवृत्ति बंध करने का हुक्म कर देता हूँ। और कुछ ?" जामसाहब ने तत्परता दिखाई।
"घणी खम्मा बापु को ! बड़े जामसाहब ने भी हमारा मान रखते हुए, जामनगर में मोर के शिकार पर पाबंदी फ़रमाई थी।" पहले वाले महाजन ने पुरानी बात याद दिलाई।
"बापु ने मोर के शिकार पर पाबंदी लगाई थी, मैं शिकार मात्र पर पाबंदी लगाता हूँ, अब तो आप राजी ?" जामसाहब ने ठन्डे कलेजे कहा।
जामसाहब की बात सुनकर महाजन लोग आभार व्यक्त करने जा रहे थे की तभी एक चपराशी दौड़ता हुआ आकर जामसाहब को कुर्निश की और खड़ा रहा।
"क्या हुआ ?" जामसाहब ने चपराशी की ओर देखकर कहा।
"बापु ! बाहर गाँवों के पंद्रह-बीस किसान आए है। आपसे मिलने की अनुमति मांग रहे है।" चपराशी ने बताया।
"कहो थोड़ी देर सबुर करे। मैं जामनगर के मेरे महाजन से बात करने में व्यस्त हूँ। महाजन के जाने के बाद उन्हें मिलने के लिए बुलाऊंगा। तब तक आराम से बाहर बैठे।" जामसाहब ने सुचना की।
"लेकिन बापु ! सब किसान 'मर गए, बचाओ' की गुहार लगा रहे है। बापु से तुरंत ही मिलने की विनंती कर रहे है।" चपराशी ने किसानो का आग्रह कह सुनाया।
"अत्यंत आवश्यक का कार्य तो भले अंदर आ जाए। बुलाओ उन्हें।" जामसाहेब ने हुक्म किया।
"आप मेरा महाजन वैसे ही किसान मेरी प्रजा, उन पर अचानक ही कोई दुःख आ पड़ा हो तो उन्हें भी मुझे तुरंत ही सुनना चाहिए। आप को कोई दिक्कत तो नहीं ?" जामसाहब ने महाजन की ओर मुड़कर पूछा।
"आपके लिए तो सब प्रजा समान। आपको उन्हें भी सुनना चाहिए, वे ख़ुशी से पधारे। हमारी समस्या का तो समाधान हो चूका, आपने हमारी बात स्वीकार की, हम सब आपका अंतःकरण से आभार मानते है। आप रजा दे तो अब हम जाए।" महाजन में से एक ने जाने के लिए अनुमति मांगी।
"अरे जल्दी न हो तो बैठिए, किसानो पर क्या दुःख आन पड़ा है, आप भी सुनिए। मैं तो नया नया राजा हूँ। आप लोग तो समझदार कौम कहे जाते हो, समयानुसार आपकी सलाह मुझे काम आ जाए।" जाम साहबने तो मश्करी की थी पर महाजन को लगा की जामसाहब उनकी बड़ाई मानते है। महाजन खुश बहुत हुआ। कुछ ही देर में पंद्रह-बीस किसान महल के इस खंड में आ पहुंचा। मटमैले कपडे, सीधे खेतो में से आए हो ऐसा लग रहा था। चौखट पर से ही 'बापु को घणी खम्मा' कहते झुक झुक कर दोनों हाथो से सलाम करते खड़े रहे।
"आइए ! आइए ! ऐसे अचानक क्यों आना पड़ा ?" जामसाहब ने आगंतुक किसानमंडली को आवकार देते कहा।
"बापु ! हम किसान.. मर गए हम तो... आप बचाओ तो ही बचेंगे।" किसान-मण्डली की अगुवाई लेते एक किसान ने दो हाथ जोड़कर बात शुरू की।
"पहले तो आप सब थोड़ी सांस लो, शांति से बैठो यहाँ, और आराम से बात बताओ अपनी। मेरी प्रजा दुखी होनी ही नहीं चाहिए।" जामसाहेब ने बैठने का इशारा किया। सारे किसान वहां बिछा रखी जाजम पर बैठ गए।
"अरे ? कौन है यहाँ ? यह पटेलों को पानी पिलाओ।" जाम साहब ने पास खड़े चपराशी को हुक्म किया। पानी आया। सबने पानी पिया। "हाँ ! अब बताओ बात।" जामसाहब ने किसानो की ओर मुड़कर कहा।
"बापु ! ऐसा त्रास तो कभी न था। आप रक्षण दो तो बच पाए हम, वरना हम तो मरे पड़े है।" किसान आगेवान ने कड़कड़ाट बात का आरंभ किया।
"शहर में बंदोबस्त तो पक्का है, उस बंदोबस्त में कोई कमी लगती हो तो कुछ अधिक सिपाही तेहनत करु।" जामसाहब ने खातरी देते कहा।
"शहर में बंदोबस्त तो पूरा है, दरवाजे खुले रखकर सोए तब भी आपके राज में कोई परेशानी नहीं। घर तो हमारे सलामत है लेकिन खेत नहीं। खड़ी फसल का नाश हुए जा रहा है, एक दाना भी हाथ नहीं आएगा। राजभाग (उपज में राज का हिस्सा) तो आप छोड़ देने की मेहरबानी करेंगे, लेकिन हमारे बाल-बच्चो को खाने के लिए एक दाना भी नहीं मिलेगा। आप वहां कुछ बंदोबस्त करे तो हमारी फसल बच जाए।" किसान आगेवान निःसंकोच बोले जा रहा था।
"मेरे राज्य की सिमा में उधम मचाए ऐसा कौन दो सर वाला पैदा हो गया ? खेतो में सुरक्षा कड़ी करने का हुक्म करता हूँ। आपकी फसल को कोई हाथ भी न लगाए।" जामसाहेब ने गंभीरता पूर्वक कहा।
"घणी खम्मा अन्नदाता को ! लेकिन बापु ! आपके राज में ऐसा कोई उपद्रवी तो दो घड़ी भी जीवित न रह सके। हमे मानवीय उपद्रव की समस्या नहीं है, जानवरो का उपद्रव बढ़ गया है।" एक अन्य किसान ने खड़े होकर स्पष्टता की।
"जानवरो का क्या उपद्रव ? कुछ समज में आए ऐसा कहो।" जामसाहब ने प्रश्न किया।
"बापु ! अभी कुछ दिनों से हिरन और रोज़ बहुत बढ़ गए है। काली तनतोड़ मेहनत कर के फसल बड़ी करते है, और हिरन या फिर रोज़ का एक झुण्ड खेत में उतरता है, पूरा सफाचट कर जाता है। हमारी सारी मेहनत व्यर्थ हो जाती है। कागभगोडा खड़ा करते है, पोटाश के धमाके करते है, फिर भी इन जानवरो के आगे कुछ भी कारगर नहीं होता है। बस खड़े खड़े हमारे खेत का नाश होते देख आँखों से रक्त बहता है। अन्नदाता ! इस त्रास से हमे बचाने के लिए आप से विनती करने आए है। अब तारना या मारना दोनों आपके हाथ में है।" किसान आगेवान ने पूरा मुद्दा स्पष्ट किया।
"इन जानवरो को रोकने के लिए आप खुद कुछ मेहनत नहीं करते ?" जाम साहब ने किसानो की बात का निराकरण लाने प्रयास शुरू किया।
"बापु ! मेहनत तो खूब करते है, लेकिन हमसे यह जानवर भगाया भागता नहीं। आप शिकारी का बंदोबस्त करो तभी इस त्रास से मुक्ति मिले।" किसान ने इलाज कहा।
"मतलब मैं हिरण-रोज़ का शिकार करवाऊं ? ऐसा मत कहिए। मेरे किसी मेहमान ने दो-चार हिरन या रोज़ का शिकार किया होगा की अपना महाजन बिलख पड़ा। आप मेरी प्रजा है, महाजन भी मेरी ही प्रजा है। एक को खुश रखने के लिए मैं दूसरे की भावना को ठेस नहीं पहुंचा सकता। कोई अन्य उपाय बताओ।" जामसाहब ने मुंह फेर कर कहा। महाजन बेचारे खुश-खुश हो गए।
"बापु ! मारे बिना यह राक्षसी माया नहीं टलेगी। हमे तो हथियार उठाना आता नहीं। गोली चलाना हम किसानो के खून में ही नहीं है। आप कोई बंदोबस्त न करे फिर तो करम हमारे...!" किसान आगेवान ने अपना सर पिटा।
"यूँ सर कूटने की जरुरत नहीं है। आप भी यहीं हो, महाजन भी यहीं बैठा है। कोई उपाय सोचो। आपके विस्तार में कितने हिरन और रोज़ होंगे ?" जामसाहब ने आश्चर्यभरा प्रश्न किया। सभी को इस प्रश्न से अचंभा हुआ। किसान तो सर खुजाने लगे।
"बापु ! हिरण और रोज़ गिने तो नहीं है। बड़े बड़े झुण्ड है। हम यहाँ आए है उतने किसानो के खेत में हजारेक हिरन-रोज़ आते होंगे।" एक किसान ने अंदाज़ लगाया।
"ऐसे जूठे आंकड़े नहीं बताने चाहिए। हजार-दोहजार हिरण-रोज़ नहीं हो सकते। होंगे पांचसौ जितने। ठीक है, एक रोज़-हिरन हरदिन कर करके कितना नुकसान करेगा ?" जाम साहब ने गणित शुरू किया।
"बापु ! उसका तो कोई अंदाज़ ही नहीं। खाए उससे ज्यादा तो बिगाड़ता है वह।" किसान ने जवाब दिया।
"पर कुछ अंदाज़ तो होता होगा की नहीं ? एक जानवर प्रतिदिन खाकर या बिगाड़ कर एक मन नुकसान करे ? दो मन नुकसान करे ?" जाम साहब एक के बाद एक कदम मांडते गए।
"बापु ! हम तो अनपढ़ कौम। हमें यह हिसाब-किताब नहीं आता। जुवार या बाजरे का खड़ा मोल बर्बाद कर दे तो सिर्फ पशु के चारे का नुकसान नहीं होता, उसमे से पैदा होने वाला बाजरा और जुवार भी नष्ट होती है।" किसान ने हुशियारी से जवाब दिया।
"आप अनपढ़ हो लेकिन आपकी बात पर से लगता है आप अबुध तो नहीं है। ठीक से बात करो तो कुछ हल निकले।" जामसाहब थोड़े कड़क हुए।
"अन्नदाता हम तो हमारा दुखड़ा रोने आए थे, पर आपको ठीक लगे ऐसा आंकड़ा आप ही कहो।" किसान नरम हो गया।
"आपकी बात पर से में समझता हूँ की प्रतिदिन 500 जानवर आपके खेत में आए, तो रोज के हिसाब से 500 मन चारे की बर्बादी। एक मन चारे की कीमत क्या होगी ?" जाम साहब ने पूछा।
"बापु ! चारा तो हम बेचते ही नहीं। उसमे तो हमारे पशु का निभाव ही मुश्किल से हो पाता है। लेकिन अगर बाजार से खरीदते है तो एक मन का कम से कम दो-तीन आना देना पड़ता है।" किसान आगेवान ने बहुत सोच-विचार कर जवाब दिया।
"मतलब आप पंद्रह-बीस किसानो को प्रतिदिन अंदाजित साठ रूपये का नुकसान होता है। इतनी छोटी रकम के लिए मर गए मर गए करके चिल्ला रहे हो ? देखो मेरे राज्य में शिकार होता है तो मेरा महाजन दुःखी होता है। इस लिए शिकार पर पाबंदी की मैंने महाजन को जुबान दी है। अब रही बात आपके नुकसान की तो सरल बात के है की आपको भी तो यह नुकसान पोसाएगा नहीं। फिर भी आपके खेत-बाग़ में कभी कोई हिरन या रोज़ आ जाए तो उसे छोटा कंकर भी आपको मारना नहीं है। अरे अपने महाजन की भावना को कैसे ठेस पहुंचा सकते है ? आप 15-20 किसानो में से एक जन हर दिन महाजन के पास जाना, महाजन आपको नुकसानी के 60 तो नहीं लेकिन रुपए 50 चूका देंगे। दोनों की समस्या हल हो गई।"
जामसाहब ने महाजन की ओर तिरछी आँखों से देखते इन्साफ किया । महाजन के सभ्य चौंक उठे।
"बापु ! बापु ! हम मर जाएंगे। प्रतिदिन के 50 मतलब महीने 1500 और साल के अठारह हजार होंगे, और राज्य में सिर्फ यह 15-20 ही किसान थोड़े है ? यह बात आगे बढ़ेगी तो सारे किसान आ जाएंगे ! हमे तो घर के छपरे तक उतारने पड़ेंगे। महाजन की इतनी क्षमता नहीं।" महाजन में से एक आगेवान ने खड़े होकर हाथ जोड़े।
"आप लोगो को हिरन-रोज़ मरने देना नहीं है, किसानो को हो रहे नुकसान का ख्याल करना नहीं है। दोनों बात नहीं चलेगी। या तो हररोज किसानो की नुकसानी चुकाने की बात स्वीकारो, और अगर सहमति न हो तो इन किसानो को उनका मार्ग लेने दो।" जाम साहब का प्रेमालु और आत्मीय लगता आवाज बदल गया।
आगंतुक किसानो को सिखाया हुआ नाटक सफलतापूर्वक उन्होंने दिखा दिया। महाजन विचार में पड़ गया। थोड़ी देर के लिए शांति का माहौल बना रहा।
"बापु ! लोगो की भावना को ठेस पहुँच रही थी, इस लिए आपसे अनुरोध करना हम महाजन का फर्ज था। नुकसानी चूका पाना हमारी क्षमता से बहार है। हमे जो आपसे कहना था वह कह दिया। हमने अपना फर्ज निभाया। आप महाराजा है, आपको ठीक लगे वह हमे मान्य है। दुबारा यह बात लेकर हम नहीं आएँगे।" महाजन आगेवान ने खड़े होकर स्पष्टता दी।
इशारा मिलते ही किसान मण्डली सलाम करके विदा हुई। कुछ देर बाद महाजन के सभ्य भी जामसाहब को प्रणाम कर विदा हुए।
समझदार कही जाती कौम भी गम खा गई, उसका दुखड़ा लेकर घर पहुंचे।
अभी तक मौन प्रेक्षक बनकर बैठे हुशियार दीवान साहब अपने नए महाराजा की करामात पर आफरीन हो गए।
जाम साहब भी एक सफल राजनैतिक दाव खेलने के संतोष के साथ खड़े हुए। कुछ मर्यादा में शिकार चालु रहा, किसानो के लिए सच में उपद्रवी पशु हिरन-रोज़ की संख्या नियंत्रण में आ गई। सारे प्रश्न एक साथ हल हो गए।
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Sir Digvijaysinhji Ranjitsinhji Jadeja Maharaja Jam Sahib of Nawanagar from 1933 to 1966