सर लेली ऑफ़ पोरबंदर प्रिंसली स्टेट - नाजाभाई नथूभाई वाळा (चाडिया) || Sir Leli of Porbunder Princely State || Story of Haji Kasam Taari Vijali || Vaitarna - Titanic of India ||

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काली गाय का दूध काला नहीं होता। अपने यहां एक मानसिकता बंध गई थी, अंग्रेज अत्याचारी ही होगा। देशी रजवाड़ो में राज्य-कार्यभार में सहायता हेतु कई बार अंग्रेजो को नियुक्त किया जाता था। राज्यों के संरक्षण की जिम्मेदारी भी इन अंग्रेजो के पास ही हुआ करती थी। अंग्रेजो में डायर जैसा कोई क्रूर भी था, तो टॉड जैसे भी नियुक्त हुए थे, जिन्होंने इस भूमि की धरोहर को भी संभाला। किसी अंग्रेज ने ही तो खोदकर पुरानी सभ्यताए उजागर की थी। ना ही सारे अंग्रेज भले थे, ना ही सारे बुरे भी।



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1971 में पाकिस्तानने बंगाल पर पूरी एक संहारलीला चलाई थी, उससे भी अनेकगुना विशाल अंग्रेजोने 1857-58 के भारतीय विद्रोह के समय भारतीयों पर की थी। उन ऐतिहासिक तवारीखों को पढ़ने से लगता है की उन्नीसवीं सदी में ब्रिटन के सारे जल्लाद भारत के ही भाग्य में जन्मे थे ऐसा आभास होता है। कर्नल ऑट्रम, हेवलोक, या नील जैसोने अनेको भारतीयों पर तोप, तलवार तथा बंदूके पेटभर चलाई, उपरांत प्लासी के नीम जैसे कई पेड़ो पर गाँवों के गाँव में लटकते हुए हजारो हिन्दीओ के शव बारिश में सड़कर दुर्गन्धदत्त देखने को मिलते थे। उन लाशो को निचे उतारना भी गुन्हा गिना जाता था।


इंग्लैंड से ऐसे दैत्यों के दल और होसवेल जैसा गप्पीदास आते तो कभी कभार कोई सज्जनता और मानवता का गुनभंडार भी आ जाते। ऐसे ही एक अंग्रेज अमलदार मि. लेली साहेब का नाम पोरबंदर के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया। पोरबंदर राज्य की उन्नति में मि. लेली का बड़ा योगदान रहा था। मि. लेली लंबे समय तक पोरबंदर राज्य के सगीर वहीवट के कारण से पोरबंदर के एडमिनिस्ट्रेटर रहे थे। 


पोरबंदर राज्य के स्वतंत्र अधिकार में सामान्य विकसित खुल्ला बन्दर, इसकारण देश-परदेस के जहाज - बोट पोरबंदर के बारे (बन्दर) में आते-जाते। लेली साहब के समयकाल में ऐसी एक आगबोट ने पोरबंदर में लंगर डाले। यह बोट विलायत के डंडीबन्दर से नई-नवेली बनकर करांची आई थी। करांची से पहली ही मुसाफरी मुंबई की शुरू की। करांची और कच्छ के मांडवी से थोकबंद पैसेंजर लिए गए। 13 तो बारात मुंबई के लिए जा रही थी। द्वारिका से भी मुसाफिर लिए, और आखिरकार पोरबंदर के बारा में आकर रुकी।


यह वही बोट थी जिसके काठियावाड़ में रास गए जाते है, "हाजी कासम तारी वीजळी"... बोट का असली नाम तो वैतरणा था, लेकिन उस ज़माने में बोट में इलेक्ट्रिक बल्ब पहली बार लोगो ने देखे थे किनारे के लोगो ने उसे 'बिजली' नाम से पहचाना। आज भी उसी नाम से जानी जाती है। उस बोट की पानी में गति असाधारण थी। 1300 पैसेंजर और डाक का भार लिए वैतरणा पोरबंदर के बारा में दाखिल हुई। मांडवी बन्दर छोड़ते ही समुद्री तूफ़ान उठा था। समुद्र अपनी पीठ पर चलती बोट्स को डगमगा रहा था। द्वारका पहुँचने तक में सागर ने भयंकर रूप धारण किया था। पर्वत जितनी लहरे उठने लगी, और यह जवाहर श्रीफल की कांचली की माफिक यहां से वहां फिंका जा रहा था। पोरबंदर तक सही सलामत पहुंचकर स्थिरता देखके लंगर डाले। 


अब तो समुद्र ने तांडव करते रूद्र का रूप लिया था। छोटे-मोठे जहाज तो खिले पर बंधे कूदते घोड़े की तरह डोल रहे थे। यह वैतरणा डोलते समुद्र की पीठ पर मदमस्त झूलते हाथी की तरह लग रही थी। मानवशून्य बारा में बन्दर के दो-चार काले-गोरे अफसर बोट को देखते खड़े है, पांच-सात युवको ने आकर अमलदारो से पूछा, :


"साहब ! हमारी मैट्रिक की परीक्षा है, हमें मुंबई जाना है, कृपा करके हमे टिकिट दीजिये।"


"लेली साहब का हुक्म नहीं है भाई ! हम क्या कर सकते है ? आप मुर्ख है, मानवजात को याद न हो ऐसा तूफ़ान दरिया में उठा है, और आप लोग एक मैट्रिक के कारण साल बिगड़ने की बात करते हो। भाई घर जाओ, परीक्षा अगले साल भी आएगी, लेली साहब का किसी को भी न जाने देने का हुक्म है।"


आगे उठने वाली मरण-चीखो को लेली साहब ने शायद पहले ही सुन ली थी। लेली ने एक घुड़सवार को भेजकर बोट के कप्तान को अपने बंगले पर बुलवाया। नास्ते के मेज पर बिठाकर खूब समझाया, विनती की, पर कप्तान ने जवाब दिया, :


"मुझे हुक्म है मुंबई जाने का,  और मैं मुंबई जाऊंगा ही। यह तूफान क्या चीज है, ऐसे कई सारे तूफान मैंने देखे है, सब अंत में समुद्र में समाहित हो जाते है। और मैं सही सलामत मेरे बन्दर तक पहुँचता हूँ। इस तूफान के डर से मैं मेरी बोट को लंगर लगाऊं तो मेरी आबरू क्या ? बोट का इतने दिनों का खर्च कौन भुगते ?"


"अगर खर्च का ही सवाल है तो खर्च मैं आपको दूंगा। आगबोट की असली आबरू तो गंतव्य तक निर्भयतापूर्वक पहुँचाने में है। तेरहसौ आदमी की जान आपके हाथ में है, फिर इतना बड़ा जोखिम क्यों उठा रहे हो ?"


"जोखिम उठाना ही तो मेरा धंधा है, तूफान उठा है वह सच है, लेकिन काठियावाड़ के बहुत से बंदर मेरे मार्ग से नजदीक है, अगर तूफान की कोई बड़ी लहर उठी तो हम किनारे पहुँच ही जाएंगे। साहब ! बोट पर कोई जोखिम है ही नहीं।"


"दरिया में तैरनेवाला पानी में ही डूबता है।"


"हो सकता है साहब ! पर मैं समुद्र में तैरनेवाला अबतक तो डूबा नहीं।"


"फिर पोरबंदर राज्य का एक सजग अमलदार होने के नाते मैंने अपनी फर्ज अदा की है। बोट की मुसाफरी में कोई जोखिम न हो ऐसी आपकी मान्यता सच हो यही मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ। लेकिन मुझे तो जोखिम दिख रहा है।"


"जोखिम का सामना न करूँ तो मेरी इंसानियत शर्मसार होगी।"


"पोरबंदर का बन्दर जब तक तूफान शांत न हो जाए तब तक मैं बंद करता हूँ। आप यहाँ से पैसेंजर या माल नहीं भर सकते।"


लेली साहब की दरमियांगीरी पर रोष प्रकट करता और आगबोट को मुंबई ले जाने के लिए कृतनिश्चय हुआ कप्तान खड़ा हुआ। उसी समय लेली साहब की मेडम कप्तान के सामने आकर खड़ी हुई।


"प्रिय कप्तान ! उस बोट पर अनेको माताएं है, बहने है, बच्चे है। क्या उनकी खातिर भी आप नहीं रुक सकेंगे ?"


कप्तान लेली साहब की मनमोहक गोरी मेडम को ताक ही रहा। अंग्रेज अबला की आँखों में उसने वेदना बाँची। कुछ देर मूक खड़ा रहा और फिर चला गया।


लेली साहब के दरवाजे पर लगभग दोसो आदमीओ की टोली जमी थी, लोगो ने कप्तान से पूछा, : "साहेब ने रजामंदी दी ? अब तो हमे ले चलोगे न ?" तो कोई कह रहा रहा, : "हमारी परीक्षा है।" कोई कहता था, : "हमारी बहन की शादी है।" कोई कह रहा था, : "मेरे चाचा की बारात जा रही है, उनके साथ जाना है।" उन सभी सवालों का जवाब देते कप्तान ने कहा, : "साहब ने बारा बंद कर दिया।"


कप्तान जब बंदर पहुंचा तब तक वहां पुलिस का पहरा लग चूका था। सारे वाहन पुलिस कब्जे में आ गए थे। बंदर का बड़ा अमलदार टहल रहा था। बन्दर निर्जन उज्जड दिख रहा था। रोष से भरा कप्तान अपनी बोट में बैठकर आगबोट की और चला गया। आगबोट की चिमनी से धुंआ उठा, मानो बोट आकाशगमन करने वाली हो ऐसे धूम्र की सीढिया बन गई। आगबोट की व्हिसल बजी, दूसरी बार बजी, तीसरी सीटी भी बजी। पोरबंदर के सुने बंदर को अंतिम सलाम कर उछलते मोज़े के पीछे बोट अदृश्य हो गई। 


इस बोट को पोरबंदर में देखने वालो ने आखरी बार देखि थी, उसके बाद उसका क्या हुआ, उसके मुसाफिरों का क्या हुआ, कोई नहीं जानता। बिजली के विनाश के अनेको कल्पित आज दिन तक किए जाते है। एक बात तय थी की बिजली तेरहसौ मुसाफिरों को अपने लोखंडी पिंजर में कैद करके घोर पाताल में गर्क हो गई। 


समस्त आलम में एक एक महासागर और उपसागर में जो भी प्रवाह बहते है वे जलप्रवाह के द्वारा सारे सागर में आता कचरा आखिरकार अमरीका के पास आए सारागोसा के समुद्र में इकठ्ठा होता है। आप कच्छ के अखात में या बंगाल के उपसागर में कोई भी कचरा फेंकते है तो अगर वह बीचमे कहीं नष्ट न हो जाए तो साल-दो साल या ज्यादा से ज्यादा तीन साल में सारागोसा के समुद्र में वह पहुंचेगा ही। समुद्र की इस कचरापेटी में एकबार लकड़ी का एक टुकड़ा मिला, उस पर 'VEA' इतने अक्षर लिखे थे। अगर वह अक्षर वैतरणा के प्रथम तीन अंग्रेजी अक्षर हो इस अनुमान के अलावा कोई भी प्रमाण आजतक मिला नहीं है। पोरबंदर से बिजली के जाने के 48 घंटे बाद पोरबंदर एक तार आया की : "वैतरणा वहां से निकल चुकी है ? खबर दीजिए।" पोरबंदर ने जवाब भेजा, : "वैतरणा यहाँ से दो दिन पूर्व ही निकली है। वहां पहुंची या नहीं जवाब भेजिए।" : "बोट पहुंची नहीं है।" पोरबंदर और मांगरोल के बिच में मानो बोट हवा में घुल गई कहीं।


मुंबई शहर में तो वैतरणा में आ रही तेरह बारातो के लग्न मंडप रोपे गए थे। ढोल-तासो के आवाजों से विलासी और नवेली मुंबई नगरी गुंजायमान हो रही थी। खारेक, साकर खोबा भर भर बांटे जा रहे थे। बनिये और भाटियो की कोडभरी कन्याए ऊँचे बंगलो की छत पर खड़ी खड़ी केसरभीने कंथ की राह देखती सागरराणा की पीठ पर नजर ठहराती। उतने में पोरबंदर से समाचार आए की : "स्टीमर यहाँ से तो रवाना हो चुकी है, पर मांगरोल पहुंची नहीं है, बोट की कोई खबर नहीं है, क्या किया जाए सलाह सूचन करे।" लग्न के साज बिखर गए, घर घर से रोने की आवाजे उठी। पोरबंदर में भी बिजली के गुम होने की खबरे पहुंची। परीक्षा से वंचित और बारात में न जाने पानेवाले लेलिसाहब की तानाशाही को गाली देने वाले अपने सर पर से गई आफत से अचंभे में रह गए। लेली साहब की तानाशाही में अब उन्हें अद्भुत बुद्धि दिखाई दी। 


पोरबंदर के मंदिरो में अनेको मन्नते की गई। श्रीफलों का प्रसाद बाँटा गया। लेकिन इस बिजली की दुर्घटना के समाचार से एक विधवा पर बिजली गिरी। लेली साहब के बंगले की ओर दौड़ी। "साहब ! साहब !" करती औरत लेली साहब के पैरो में गिर गई। 


"साहब ! मेरा कन्हैया कुंवर जैसा एक बेटा बोट में है। आपने अनेको की जान बचाई है, मेरा एक बेटा बचा लीजिए, भगवन आपका भला करेगा..."


"बहन ! आज तो मैं क्या कर सकता हूँ ? आप देख ही रहे है काल समान तूफान सागर में गरज रहा है, उस दिन आपने कहा होता तो आपके बेटे को बोट से उतार लेते।"


औरत बावरी होती बोली, : "साहब ! आपको बेटा-बेटी होंगे, भगवन उन्हें सो साल के करे। आप मेरे बेटे का कुछ कीजिए, आगबोट तो डूब गई है, पर कोई तो कहीं बचकर निकला होगा, मेरा बेटा उनमे जरूर होगा, साहब आप मेरे बेटे को बचा लीजिए।"


वृद्ध और गरीब औरत की आरजू सुनकर लेली साहब की आत्मा द्रवित हो उठी। विचार किया, 'सही में तेरहसो मानवो में कोई तो बचा होगा, डूबती बोट से जान बचाने के लिए क्या कोई भी नाव में नहीं उतरा होगा ? कोई तो सागर की लहरों से लड़ता जीवित होगा ही। इतना महंगा गहना (बोट) पूरा ही पाताल में चला गया होगा ?' लेली साहब विचार कर स्वस्थ होकर बोले :


"जाओ माँ ! आपके बेटे की मैं तपास करवाऊंगा। बोट का कोई भी मुसाफ़र जिन्दा होगा तो मैं जरूर पता लगाऊंगा। आप घर जाओ, आपके खुदा से प्रार्थना करो, की होनारत से बचे मुसाफिरों को प्रभु सलामत रखे।"


हुक्म छूटे, ऑर्डर लिए दौड़े, मुख्य मुख्य खारवा (समुद्र में नाव ले जाती जाति) ओ साहब के बंगले के चौक में ले आए।


साहब ने खारवो को संबोधते कहा, "आपको आज यहां बुलाने का ख़ास कारण यह है की, आगबोट वैतरणा गुम गई है। समुद्रकिनारे किसी खांचे में कहीं बैठी हो या डूब गई हो, फिर भी कुछ मुसाफिर बच गए हो या बिच समंदर में हिचकोले खा रहे हो तो हमे छानबीन करने के लिए जाना चाहिए।"


खारवे बोल पड़े : "अरे साहब ! समंदर ने तो इस बार मर्यादा छोड़ दी है, हमने जिंदगी में कभी ऐसा तूफ़ान नहीं देखा। पवन और समंदर इतने बेफाम हुए है की कोई जहाज या तरापा चल सके ऐसा हमे तो लगता नहीं। बिजली जैसी बोट जहाँ गुम गई वहां जहाज या नाव की क्या बिसात ? दो दिन रुक जाइए, तूफान कुछ नरम हो तब कुछ कर सकते है।"


खारवो का उत्तर सुनकर विधवा चीख पड़ी। सो बिच्छू से दंस जितनी वेदना उसके ह्रदय में भर गई। भवोभव के बंधन टूटे हो ऐसा कंपन उसे अनुभव हुआ, "हाय मेरा बेटा ! हाय मेरा बेटा !" करती वह निचे गिर पड़ी। उस विधवा के चेहरे पर एक एक पल में एक एक वर्ष का अंतर दिख रहा था। उसके रुदन में मातृत्व को पुत्रत्व के लिए तड़फता दिखा तो एक युवान खारवा खड़ा हुआ :

"साहब मुझे दरबारी लॉन्च दी जाए तो मैं जाऊंगा।"


लेली बोले : "आप जाएंगे ? आपका नाम क्या है ?"


"मेरा नाम नाथा, सब मुझे टंडेल कहकर बुलाते है।"


"कैसे जाएंगे आप ?"


"मैं जाऊंगा यहाँ से किनारे किनारे मांगरोल तक। आगबोट(स्टीमर) के गुम होने को असल भयस्थान दो है, एक नए बंदर की खाड़ी, और दूसरी मांगरोली खाड़। दोनों में से एक किसी एक जगह से तो कुछ जानने को जरूर मिलेगा।"


"इसमें जोखिम कितना है ?"


"जितना पानी उतना जोखम।"


"ठीक है, जाओ ! आपको लॉन्च दी जाएगी। आपको कुछ हुआ तो पीछे की चिंता मत करना, आपके परिवार को राज्य संभालेगा। आप लॉन्च तैयार कीजिए, मैं भी आऊंगा।"


टंडेल वहां से गया। बन्दर पर जाकर दरबारी लॉन्च में आग प्रकटाई। पुरे शहर में समाचार फैल गया की लेली साहब और नाथो टंडेल वैतरणा की खोज में जा रहे है। कईं लोगो ने यह साहस न करने लिए साहब को समजाया। साहब डिगे नहीं। नाथे को समझाया, वह भी टस से मस न हुआ। तीन घंटे बाद उछलते गरजते दरियाई मोजो के बिच जिस रास्ते से बिजली गई थी उसी मार्ग पर दरबारी लॉन्च रवाना हुई। मदोन्मत हाथी की भांति सागर पुर मस्ती में था। फणीधर नाग के समान दरिया की लहरे फुफकारती थी। सागर की सपाटी पर लॉन्च कभी आकाश को तो कभी पाताल में जाती हो ऐसे आगे बढ़ रही थी। लॉन्च के सुकान पर नाथो टंडेल खड़ा था। पानी एक लहर लॉन्च पर एक तरफ से आता और दूसरी ओर से निकल जाता। लहरे टकराकर एक भयजनक वातावरण का निर्माण कर रहे थे। एक तरफ से टकराती लहर लॉन्च कभी दाए तो कभी बायीं ओर झुका देती। दोनों ओर से पानी न भर जाए उसका सुकानी को ध्यान रखना पड़ता।


लॉन्च को तैरती रखने की एक ख़ास करामात थी। कई बार दोनों ओर से आ रहे पानी को रोकने के लिए लॉन्च को एक ही जगह पर गोलाकार चक्कर लगवाना पड़ता। और उस समय नाथे को सुकान के चक्कर पर चिपक जाना पड़ता। शरीर पर अनेको जगह छिलने से हुए जख्म तथा पीठ पर पड़े घावों में समुद्र अपना नमकीन पानी मिलाकर जैसे रोष भरा नाथा को प्रताड़ित करने पर तुला था। ऊपर आसमान और निचे पानी दोनों ही क्रूरता पर उतरे थे। कुदरत के प्रकोप के सामने चुल्लूभर लॉन्च और दुबला-पतला आदमी जीवन-मरण का खेल खेल रहे थे। यह कोई गर्म खून का खेल या, बिना सोचे बस जोर आजमाने की बात न थी, लेकिन ठन्डी ताकत और धीरज सभर मन कार्य कर सकता था। एक मात्र भूल मृत्यु के मुख में ले जाने को पर्याप्त थी। मगज को समतोल रखकर, अमोघ बल आजमाना था। जो कार्य बिजली जैसी आगबोट, हजारो साधनो के उपरांत न कर सकी, वह मांगरोल तक पहुंचने का अशक्य कार्य नाथे की दुबली काया को करना था। तूफान में भी बिजली का ही मार्ग पकड़ना था। लहरों की थपाटो से लॉन्च दूर न चली जाए, उसका ख्याल रखते हुए पुराना जलमार्ग नाथे ने पकड़ लिया।


ऐसे ही साहसवीर नवीबंदर पहुंचे। भादर नदी का भरपूर पानी जहाँ समुद्र से मिलता है। तूफानी समंदर में उस नदी-मिलन की जगह वमल बनने लगता है। लॉन्च वहां वमल में फंस गई, एक ही जगह पर गोलाकार चक्कर घूमने लगी, महामेहनत से नाथे ने लॉन्च को वहां से बाहर निकाला। 


"एक भयस्थान गया साहब ! यहाँ बिजली का कोई भी निशान दिख नहीं रहा।"


"अच्छा ! आगे बढ़िए।"


फिर से निर्जन और तूफानी जल मार्ग पर सागर का भयंकर सामना करती लॉन्च मांगरोल की ओर आगे बढ़ी। अनेक मुसीबतें, अनेको आफतों के बिच मौत से घमासान युद्ध करती लॉन्च मांगरोल की खाड़ी में आ पहुंची : "यह दूसरा भयस्थान है साहब !"


"अच्छा ! देखो..." वैतरणा की अंतिम याद-स्वरुप प्राप्त हुआ एकमात्र सबूत उन्हें वहां मिला।


मांगरोल की खाड़ी उस समय के जलमार्ग में पड़ता एक महाभयंकर स्थान था। तूफान में तो वह साक्षात मृत्यु के मुख समान ही था। दरिया की गहराईओं में जहाँ अनेको जहाज के अस्थिपिंजर समाहित हुए है ऐसी लंबी-चौड़ी गुफा - वह  गुफा नहीं पर अनंतकाल से खुदी हुई जिन्दा कब्र है। जब भी पवन तथा सागर तूफानी घोड़े पर सवार होते है, तब पानी की प्रचंड लहरे गुफा के अंदर धक्का दे देते है, उस कारण दबी हुई हवा ऊपर आने के लिए जोर करती है तब समुद्र में गुफा के मुंह तक खुला गढ्ढा बन जाता है। उस गढ्ढे में कोई कमनसीब नौका या जहाज एकबार फंस गई तो तुरंत ही बंध होता पानी उसे सीधा ही गुफा के अंतिम कोने में धकेल देते। एक बार इसतरह धकेला गया जहाज कभी बाहर नहीं आ पाता। गुफा का मुंह ऊपर नहीं, बाजू में है इस कारण इस जगह सतत पानी वमल में गोल ही घूमता रहता है। और इस वमल से बाहर कोई भी नहीं आ पाता।


इस दरियाई गुफा में उसके जैसे ही भयंकर जलचर भी है, समुद्री गिद्ध जैसे रक्तपिपासु मछलिया उस जगह में फंसे जिव को जिन्दा वापिस जाने नहीं देते। नित्य ही शिकार की शोध में घूम रही उन विशाल मत्स्यो के भ्रमर के मध्य एक कांच की बोतल गोलाकार चक्कर लेती लेलिसाहब ने देखी।


"टंडेल ! इस बोतल में बिजली का कोई सन्देश हो ऐसा मुझे लग रहा है, लेकिन वह बोतल ले कैसे?" लेली ने कहा।


"इस सुकान को जो संभलपुर्वक पकड़ रखो तो मैं ले आऊं।" लेली ने सुकान संभाला, नाथू ने समंदर में डुबकी लगाई, वमलाकार पानी में लंबी-छोटी तैर लगाता नाथा कांच की बोतल तक पहुँच गया, बोतल पकड़ली उसने। अब उस भंवर से बाहर निकलने के लिए जोर आजमाने लगा। समंदर का तैराक वह महामुसिबत से भंवर से तो बाहर निकल आया, उसकी और लॉन्च के बिच अब ज्यादा दुरी न थी। कांच की बोतल को वह लॉन्च में फेंककर एक ही बार में तैरकर लॉन्च में वह आ सकता था, उतने में ही किसी जलचर के दांतो ने उसका पैर पकड़ा। रक्तपिपासु वह जोरावर जिव उसे पाताल में ले जाने को जोर लगाने लगा। कील जैसे उसके दांतो ने अपना जोर दिखाया और समंदर का पानी लाल हो गया।


"साहब मुझे किसी ने पकड़ लिया.."


लेली ने नाथा की ओर रस्सी फेंकी, नाथू ने रस्सी पकड़ ली, थका आदमी जीवन का अंतिम जोर आजमाए ऐसे नाथा लॉन्च पर आ पहुंचा। टंडेल के पैर से रक्त बहे जा रहा था, वह बेसुध होता जा रहा था। लेली ने अपने से बनती मरहम-पट्टी की। नाथा के कुछ होश में आने के बाद उस कांच की बोतल को तोड़कर अंदर से निकला बिजली का आखरी पैगाम लेली ने पढ़ा। "हमे अब कोई आशा नहीं। वैतरणा डूब जाएगी।"


निराश वदन से नाथा ने लॉन्च पोरबंदर की ओर दौड़ा दी। वैतरणा गूम हो चुकी थी। खाड़ी में ही गूम हुई हो ऐसा लग रहा था। एक आदमी या एक लकड़ी का टुकड़ा भी हाथ न आया। तेरहसौ मनुष्य मानो समुद्रने निगल लिए। रक्त झरते आधे पैर पर समंदर का लूण भर भर कर अंग में उठती ज्वाला के साथ नाथा टंडेल और लेली साहब पोरबंदर के बारा में पुनः प्रवेश किए तब तीन रात और तीन दिन बीत चुके थे। लेली साहब और नाथा का यह पुनः जन्म था, फिर भी उस बुढ़िया का दुःख न मिटा सकने का रंज तो लेली को रह ही गया। तूफान गया, नाथा गया, लेली गया, फिर भी एक भारतीय बुढ़िया के दुःख की खातिर अपनी जान दाव पर लगाने वाला लेली तो अमर रह गया। 


|| अस्तु ||


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