"अफल वृक्ष के फल..!" - भावनगर महाराजा वखतसिंह जी || BHA DEVANI || VAKHATSINH OF BHAVNAGAR || BALDEVBHAI NARELA

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अफल वृक्ष के फल..!!



भावनगर में महाराजा वखतसिंह जी का राज था। वह जमाना चाहे उसकी जमीन, और मारे उसकी तलवार का। महाराजने तलवार की धार से छह सो छाछठ गाँव कब्जे किये थे।

उन दिनों राजपूत भूमि को मस्तक तुल्य गिनते। आठ-आठ दिन लगातार घोड़ो के तंग ढीले करने का भी समय न मिलता। पर्वतो की गुफाओ में सिंहो के जूठे पानी पीकर दिन निकालने पड़ते।

महाराजा को एक परमार रानीजी थे। जैसे मुरली पर मणिधर डोलने लगें ठीक ऐसे ही महाराजा परमार रानी के प्रेम के पिंजरे में कैद थे। यूँ परमार रानी के साथ महाराजा के लाख-लाख रुपए के दिन गुजर रहे थे।

उतने में समाचार आया की खंभात के नवाब से सत्तर हजार कोरी रोकड़े गिनकर तलाजा ख़रीदा था वह नूरुद्दीन जैसे दगाबाजके हाथो में पड़ा है। 

महाराजा ने अपने उमराव भा देवाजी को हुक्म किया की तैयार हो जाओ। भा देवाजीने मोती के दाने समान चुन चुन कर राजपूत तैयार किये। एक ही मुक्के से सिक्के के ऊपर बनी मोहर मिटा दे ऐसे मजबूत राजपूतो की टुकड़ी लेकर भा ने तलाजा पर आक्रमण किया। महाराजा वखतसिंहजी के लिए कहा जाता था की,

कसां सांसा केवियां, अंबर अधर अळेश ;
त्रेव ओचिंता त्राटके, वीज, गरज, वखतेश ;

नूरुद्दीन गढ़ में रहकर गोहिलो को परेशां कर रहा था। गढ़ में से दारुगोलो की बौछार बुला रहा था। गढ़ टूट नहीं रहा था, और गोहिल गढ़ को घेर के बैठे थे। नूरुद्दीन का हरा झंडा फरकता देख भा की छाती में मानो गर्मागर्म तेल जला रहा था। ऐसे ही दिन पर दिन बीतने लगे। महाराजा को लगा गढ़ गिराने में समय लगेगा, चाकर से भा देवाजी को कहलवाया की, "भा रजा दे तो तो दिन खुद भावनगर जाकर आ जाए।"

युद्ध के मोर्चे पर भा के मुंह पर मंद स्मित की लकीर उठ आई। भा ने चाकर से कहा, "हां भाई ! युवानी है। भले दो दिन जाकर आ जाए।"

शर्म से नीची नजरो से महाराजा भा की रजा मांगने आए, तब भा ने कहा : "ध्यान से हां ! दो ऊपर तीसरी रात मत रुकना।"

महाराजाने अपने थोड़े आदमीओ के साथ घोडा दौड़ा दिया भावनगर की ओर की जल्दी पहुंचे भावनगर। महाराजा को तो रणसंग्राम में रानीवास की याद आई थी, परमार रानी का इतना आकर्षण की आने के साथ ही रंग-राग में डूब गए। एक ऊपर दूसरा, दूसरे पर तीसरा... दिन बीतने लगे, महाराजा दिन की गिनती भी भूल गए थे।

यहाँ भा देवाजी को खानगी में समाचार मिले की कल नूरुद्दीन गढ़ के दरवाजे खोलकर सीधा हमला करने की तैयारियां कर रहा है। भा देवाजी बीएस भावनगर के रास्ते की और नजरे गड़ाए बैठे है, लेकिन कहीं भी महाराजा के आने का संकेत नहीं दिख रहा। महाराजा का फ़ौज के साथ आकर वापिस चलें जाने से फ़ौज के राजपूतो पर भी गलत असर दिखेगी, ऊपर से नूरुद्दीन को भी खबर मिल गई थी की सेना सेनापति बगैर की है। 

आखिरकार भा देवाजी ने मर्यादा तोड़ते हुए एक उंटसवार को लिफाफा देकर भावनगर भेजा, : "दो दिन का कहकर गए थे वे अभी तक न लौटे ! कल सुबह हमला होने के आसार है। अब अफल वृक्ष की छांया तले कब तक बैठा रहना है ?" परमार रानी के पेट संतान न था। 

उंटसवार हवा में मानो घुल गया इतनी रफ़्तार से गया, पंद्रह हाथ एक बार में कूदती सांढ़ रवाना हो गई। प्रभात बस होने को है, उतने में तो वह भावनगर के दरबारगढ़ में पहुँच गया। 

महाराजा जाजम पर बैठे रूपा की झारी से दातुन कर रहे थे। परमार रानी पास ही खड़े थे, तभी आदमी ने समाचार का बीड़ा दिया। महाराजा का पत्र पढ़ते हुए कमल जैसे प्रफुल्लित मुख पर क्रोध की रेखाए खिंच आयी। पत्र पढ़ कर पेरो के निचे दबा दिया। 

चतुर रानी समझ गए, बोले : "क्या है वह ?"

"कुछ नहीं ! वो तो भा बुला रहे है।"

"दिखाइए, क्या लिखा है ?"

"मुझे वहां बुला रहे है, और कुछ नहीं है उसमे।"

रानीजी ने पैर के निचे रखा पत्र लेकर पढ़ा, पढ़ते ही रानी जी समझ गए की भा ने अफल वृक्ष की टकोर उनपर ही की है, पर उन्होंने कड़वी घूंट गले उतारते कहा : "उठिए, आपको इसी समय युद्धभूमि में जाना चाहिए। सेनापति बिना की सेना नहीं हो सकती।"

"पर भा ऐसा कैसे लिख सकते है ?"

"उसमे गलत क्या है ? मेरे गर्भ से राज्य को वारिस नहीं मिले तब मुझे अफल वृक्ष न कहे तो और क्या कहे ? उठिए, तैयार हो जाइए, सेना आपकी राह देख रही है।"

परमार रानी ने महाराजा हो हथियार बँधाए, फिर तो महाराजा के अश्व को पंख फूटे।

नूरुद्दीन की तैयारी के सामने प्रभात का प्रहर फूटते ही भा देवाजी ने महाराजा के आने की आशा छोड़कर गढ़ के दरवाजे पर अंतिम जोर आजमाया। नूरुद्दीन को लगा की फ़ौज कमजोर है, वह भी गढ़ के दरवाजे खोल गोहिलो पर टूट पड़ा। 

तलाजा में युद्ध की रणभेरियाँ गूंजने लगी, रक्त की नालिया बहने लगी, भयंकर युद्ध होने लगा। हरावल में रहकर भा देवाजी नूरुद्दीन के खुरासानी और मुग़लई योद्धाओ पर तलवार की मार चलाने लगे। उनपर भी असंख्य तलवारो की मार पड़ रही थे पर वे अपनी जगह नहीं छोड़ रहे थे।

तभी कालभैरव जैसा नूरुद्दीन अपने अरबी घोड़े पर  सांग (भाले जैसा शस्त्र) लेकर आ चढ़ा। भा देवाजी को नूरुद्दीन के योद्धाओ ने गोलाकार घेर लिया। ठीक उसी समय नूरुद्दीन अपने घोड़े पर खड़ा होकर भा के ऊपर सांग का प्रहार किया, लेकिन सांग भा पर पड़े उससे पहले बिजली की गति से आ पहुंचे घुड़सवार के खांडा का प्रहार नूरुद्दीन के सर पर पड़ा। विशाल बरगद धराशायी हो उस तरह नूरुद्दीन का पहाड़ी देह धरती पर गिरा।

मौके पर अपने को उगारने वाले की ओर भा मुड़े तो देखा महाराजा वखतसिंह स्वयं थे।

"मेरा बाप आया, आ पहुंचे भाई ? अब दुश्मन का कोई जोर नहीं की तलाजा कब्जेमें रख सके। आ पहुंचा बापु..!" भा के मुख से आनंद के अतिरेक निकल पड़े। 

"हां भा ! आ पहुंचा हूँ। घर से तो दरवाजे बंद हो गए है...!"

"दरवाजे बंद कर दिए ? किसने ?"

"राजपूतानी ने.."

"रंग राजपूतानी ! मेरे राजा को सिंह बनाकर भेजा। अब तो तलाजा लिए ही छुटका। जे मुरलीधर"

और महाराजा को मैदान में देखकर राजपूतो को और पानी चढ़ गया। सूर्यनारायण घर को लौटे उससे पहले तलाजा के गढ़ के कांगरे पर खोडियार की धजा फरुकने लगी।

इस बात को कईं बरस बीत गए। भा देवाजी को वृद्धावस्था ने घेर लिया था। उनके देहरूपी गढ़ को इसबार वृद्धावस्था ने घेरा है। कोई गंभीर बीमारी के चलते कोई भी इलाज कारगर नहीं हो रहा। महाराजा वखतसिंह जी सुबह-शाम भा से मिलने आते। भा सभी को भलामण कर रहे है।

खबर आई की भा की खबर पूछने परमार रानी पधार रहे है। काल के साथ बात कर रहे भा के कानो में बात पहुँचते ही पलंग पर तकियो के सहारे पलंग में भा बैठे। पास खड़े आदमी से कहा, "सर पर पगड़ी रख। बा पधारे और में यूँ खुले माथे नहीं मिल सकता।"

परमार रानी पधारे, भा को बैठा देख बोले : "अरे भा ! आप आराम करो, में तो आपके समाचार पूछने आई हूँ आपको परेशां करने नहीं।"

भा ने था उतना दम लगा कर बिलकुल स्वस्थता से राजीखुशी व्यक्त की, और कहा : "बा ! आप तो मेरे माँ है। जाने से पहले एक रंज मनमे रह गया था, आपसे क्षमा मांगने का।" भा की आँखे बोलते बोलते भीग गई।

"अरे भा ! मेरी माफ़ी ?"

"हां, माँ ! तलाजा तोड़ते वक्त मुझसे दो कड़वे बोल लिखे गए थे। आपको दोष दिया था।"

"भा ! आपने तो मुझे और महाराजा दोनों को बचा लिया था। मैं जैसी थी वैसी कही तो उसमे गलत क्या ?" कहते परमार रानी की आँखों से भी अश्रुधारा बही। गला ठीक कर फिर से बोले : "स्वामी के हित की खातिर ऐसी हिम्मत करने वाले धरती पर है तब तक ही राजपूती टिक सकेगी।"

"माँ मेरी !" भा की आवाज भारी हो गई, "पृथ्वीराज को कहनेवाले तो उस दिन भी बहुत रहे होंगे, लेकिन संयुक्ता को आप जैसी मति नहीं सूझी होगी, वरना दिल्लीपति की ऐसी दशा न होती।"

श्वास लेकर भा आगे बोले : "मैंने जो भी किया उसमे भावनगर का भला ही चाहा, मनमे कोई पाप हो तो मेरा अंतकाल बिगड़े।"

"अरे भा ! वह क्या बोल गए ? आपने तो एक वाक्य में ही मुझे और महाराज को नया अवतार दिया है। राज की आबरू रखते हुए भावनगर को टूटता बचाया है। आप समान स्वामिभक्त का तो स्वर्ग में वास होता है। आप अपने जिव को जरा भी क्षति न पहुचाएं। आपके वंश-वारिसो के सदा महाराज की थाली में हाथ रहेंगे।"

यूँ दिलासा देकर महारानी जी महल सिधाए। भा देवाजी ने सब को अंतिम राम राम कर शांति से देह छोड़ा।

काल के चक्रव्यूह में आकर किसी कारणवश भा देवाजी के वारिसों पर महाराजा वखतसिंहजी की आँखे रुष्ट हुई। भा देवाजी का कुटुंब-कबीला रूठकर जाने लगा।

महारानी जी के कानो में खबर पहुंची, उन्होंने भी भावनगर का त्याग किया। रूठकर जा रहे भा देवाजी के परिवार के साथ जाने लगे। दरबारगढ़ में दौड़धाम मच गई, महारानी जी ने सन्देश भिजवाया की " पुत्र अगर रूठकर जा रहा हो तब माँ-पुत्र साथ में ही सुहाते है।"

महाराजा वखतसिंहजी उन सब के मन मनाकर पुनः भावनगर ले आए।

|| अस्तु ||


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