हाँ ! तुम्हे ही कह रहा हूँ...! || Open Letter.. ||

2

हाँ ! तुम्हे ही कह रहा हूँ...!!!


सुनो ! हो सकता है तुम्हे मेरा कोई ख्याल न हो लेकिन... मैं... पागल हुए जा रहा हूँ...! पता नहीं.. क्यों ? यह वर्षा की ऋतु ही ऐसी है.. भूले-बिछडो को फिर से आँखों के आगे लाकर खड़ा कर देती है। मैं तुलना करने लगता हु, वर्षा की सुगंध को तुम्हारे बालो से आ रही महक से..! मैं कभी इतना मतिभ्रम हो चला हूँ की काले घने बादलो से घिरे आसमान में अपनी जगह को उजागर करते चंद्र को तुम्हारी श्वेत सुराही गर्दन पर काले तिल से तुलना कर लेता। संभव है, मैं अपनी ही प्रेम की व्याख्या को धोखा दे रहा हूँ ? पता नहीं...!

मैंने कई बार कोशिशे की, अपने मन को मारने की.. पर यह निष्ठुर विश्वामित्र के नियंत्रण में न रहा था तो मैं कौन होता हूँ ? फिर लगा की जब भाव प्रकट होने ही लगे है तो लगे हाथो तुम पर दो पंक्तिया ही लिख दूँ.. लेकिन उस समय भी यह चंचल मन नियंत्रण में न रहा..! मेरे सारे शब्दों ने साथ छोड़ दिया, तुम्हारा प्रभाव था या मेरी शक्तिहीनता ? मैं व्याख्यायित करने को भी समर्थ नहीं। मुझे लगता है मैं भी अन्य कवियों की भांति अतिशयोक्ति तो नहीं कर रहा ? नहीं.. मैं शायद उर्मि को ही शब्दो के स्वरूपों में ढाल रहा हूँ।

यह लगातार हो रही मूसलाधार वर्षा मेरे भीतर भी हो रही है.. वहां भी इसने तांडव मचाया है..! प्रतीत होता है की मुझे मेरे ही विचारो से मुक्त कर किसी नई ही दिशा की ओर ले जाने को आतुर है। सच कहूं, आज स्वप्न में तुम्हे देखा। पता नहीं आखरी बार स्वप्न ही कब देखा था मैंने। मैं मुर्ख हूँ.. स्वप्न में भी तुमसे बात न कर पाया। धीरे धीरे यह सिद्ध होता जा रहा है, मैं भीरु हूँ। सत्यवक्ता नहीं। मैं सदा ही मुखौटा धारण किए फिरता हूँ। ज्ञान का, आडंबर का, स्थिरता का, कुछ होने का...! क्या करूँ ? सामाजिक प्राणी हूँ। सामाजिक रेस में दौड़ रहा हु। इस मुखौटे के बिना शायद में पीछे छूट जाऊंगा..! अन्य की मुझे आवश्यकता नहीं। पर तुमसे पीछे कैसे रहूं ? मैं भी तो कुछ न होते हुए भी बस एक मुखौटे के सहारे तुम्हारे साथ कदम से कदम मिलाने की कोशिशों में लगा हूँ। प्रातः के उस स्वप्न में तुम मेरे इतने पास थी, पर मैंने मूर्ख ने बस तुम्हे निहारने के अलावा कुछ न किया, न तुम्हे बुलाया, न तुमसे बात की। बस मेरे चस्मा के पीछे से तुम्हारे चस्मा के पीछे की उन दो मृगवंत गतिशील आँखों को ही देखने में व्यस्त था। न मुझे कुछ सुनाई दे रहा था, न शायद कुछ और अनुभव भी कर पा रहा था। 

यह जो प्रेम के अनुयायी कहते है की प्रेम ऐसा होता, प्रेम वैसा होता है, प्रेम प्रेम होता है.. पर क्या हकीकत में प्रेम कुछ होता है ? प्रेम नामका कोई भाव है ? फिर लोग सीधा हमला करते है, यदि तुम नकारते हो तो भूल जाओ सीता राम को.. राधा कृष्ण को.. रुक्मिणी कृष्ण को। लेकिन क्यों ? मैं वाद-विवाद अवश्य करता हूँ, प्रेम विषय पर.. पर उसका अर्थ यह कतई नहीं की मेरी प्रेम की व्याख्या मैं तुम पर थोपु.. या तुम जिसे प्रेम कहते उसे मुझे मानना ही होगा। नहीं मानता मैं की संसार में कोई प्रेम नाम की वस्तु है। मैं मानता हु की वह आकर्षण है। दोनों को होता है तब दोनों पास आते है। उसकी भी अवधि होती है। किसी का आकर्षण सहनशील होता है वह जीवनभर चलता है, किसी का क्षणभंगुर.. वे कुछ ही समय में अलग हो जाते है। 

कुछ मेरे जैसे होते है, जिन्हे आकर्षण होता है, वे समझते भी है, पर कहते नहीं। बस अपने भीतर उस आकर्षण को सींचते रहते है, उन्हें शब्दों का स्वरुप देते है, उसे कागज़ पर उतारते है, लेखनी का नाम देकर उसे दुनियाभर में प्रसिद्द करते है। घूमफिरकर वहीँ बात आज मनसपटल बार बार दोहरा रही है.. स्वप्न में भी मैं तुमसे बात न कर पाया..? क्या हो सकता है, स्वप्न भी तो कल्पना ही है। कल्पना तो जागृत अवस्था में और अच्छे से रची जा सकती है। फिर तुम्हारे लिए वर्णन करना हो तो क्यों न कहूं की...

તું વાદળ થાતી વીજ સરીખી, રણયોદ્ધાની ખીજ સરીખી, ચંદ્રકળામા બીજ સરીખી,
માન અનંતા માન પ્રિયે..
તું કુંજર કેરી ચાલ સરીખી, આફત આડી ઢાલ સરીખી, ફાગણનાં ફૂલ ફાલ સરીખી,
માન અનંતા માન પ્રિયે..
તું યોગ સમાધિ ધ્યાન સરીખી, અદકેરા અભિમાન સરીખી, વર્ષોના વરદાન સરીખી,
માન અનંતા માન પ્રિયે..
તું જોબનવંતા ઝરણ સરીખી, વિચરત સુંદર હરણ સરીખી, શુદ્ધ સ્વરૂપ સુવર્ણ સરીખી,
માન અનંતા માન પ્રિયે..

यह जब मेरी कल्पनाओ में तुम मुझसे मिली थी तब लिखा था। उपमा, उपमेय, उपमान.. सब तुम ही तो हो मेरे लिए। अतिशयोक्ति भी तुम ही हो, रूपक, विभावना, यमक, हो तुम, अनुप्रास, श्लेष, प्रतीप हो तुम... और क्या कहूं ? मेरा सामर्थ्य नहीं की मैं तुमसे रूबरू होकर कह दूँ ! कारण बस इतना सा है, तुमसे न कहकर में तुमसे जुड़ा हुआ तो हूँ। मैं तुम्हे निहार तो सकता हूँ। मैं तुम्हे अपने स्वप्नों में आमंत्रित तो कर सकता हूँ। मैं तुम्हे लिख तो सकता हूँ। मैं तुमसे कल्पना में ही मिल तो सकता हूँ। तुमसे बाते कर सकता हूँ (शायद नहीं कर सकता।) । तुम्हारे मुख से ही मेरी लेखनी से कर्णप्रिय वाक्य लिखवा सकता हूँ।  कौन मुर्ख कहता है एकपक्षी आकर्षण अच्छा नहीं ? भाव अच्छा और सच्चा हो तो कल्पना गलत कैसे संभव हो ? 

अभी भी वर्षा का जोर कम नहीं हुआ है, मेघ का वसुंधरा से कितना अतुल्य आकर्षण रहा होगा ? आठ-आठ महीनो के इंतजार के बाद बस टूट पड़ना... और फिर एकदूसरे में ओतप्रोत हो जाना। दृष्टिकोण समझो तुम, प्रेम के ही पाश में बंध कर मेघ मेदिनी से मिलने आता है, और दोनों के मिलने से जन्म लेता है कीचड़... अब मैंने यह लिखा है तो कोई कहेगा की पीलिये के रोगी को सब पीला ही दीखता है..! लेकिन क्या प्रेम को उच्च स्थान में स्थापित करने के लिए  प्रेम के कारण जन्मी इस वास्तविकता को नकार सकते है ?

सब संभव है, सब उचित है... सारे दृष्टिकोण स्वीकार्य है। भेद इतना सा है की हमारे विचारो के साथ कौन सा दृष्टिकोण मेल खता है। यदि तुम प्रेम को मानते हो तो तुम कहोगे प्रेम के सिंचन से बंजर वसुधा हरित हो उठती है। तो कोई कहता है की इसी सिंचाई से कीचड़ भी अवतरित होता है तो उसे नकारना अपराध होगा। 

खेर, मैं तुम्हे यूँ ही मेरी द्विमुखी बातो भरे पत्र लिखता रहूँगा, मेरे मित्र वर्तुल को पढ़ाऊंगा भी। क्या पता उनमे से किसी द्वारा यह तुम तक पहुँच जाए। फिर भी विश्वास रखना, मैं तुमसे तब भी नहीं कह पाउँगा..

तुम्हारा...

Post a Comment

2Comments
  1. क्योंकि आप कहने से डरते हैं और उससे भी अधिक डरते हैं कहने के उपरांत के परिणामों से !

    ReplyDelete
    Replies
    1. हाँ, परिणाम की ही कल्पना भयावह करती है।

      Delete
Post a Comment