नगर समोई का जाम उन्नड || Jaam Unnad of Nagar Samoi by Jaymall Parmar ||

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नगर समोई का जाम उन्नड"

आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सिंध में कुछ जातिओ का विशेष प्रभुत्व था। उनमे मुख्यतः भद्रामा, भदुआ, संघार, समा, जत और मोआणा (मियाणा) थे। इन जातिओ के सरदार पशुओ की अनुकूलता अनुसार और आक्रमणों से बचाव हो सके वैसे स्थानों पर घूमते रहते।

यह सब जातियां अति खड़तल, बहादुर और लड़नेवाली, लेकिन बात बात में आमने सामने विग्रहो में खुंवार हो मरा करती, और आंतर-कलह से भी ताराज होती थी। उस अरसे में समा वंश के महाप्रतापी सरदार जाम लाखियार ने इन सभी जातिओ को बुद्धि-बल से अपने वश किया, और अपने प्रभुत्व के निचे लिया। नगर समै या नगर समोई (आज के  पाकिस्तान का थट्टा शहर) नामक राजधानी की स्थापना की। इस जाम लाखियार का छोटा पुत्र जाम लाखो घुरारो भी महा प्रतापी हुआ। नगर समोई के निर्माण में उसके बलबुद्धिने बहुत कार्य किया था। उसका विवाह कच्छ के पाटगढ़ के वीरम चावड़ा की कुंवरी बोधि से हुआ था। कुछ लेखक 'बोथी' भी लिखते है।

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जाम लाखियार के देहांत के पश्चात जाम लाखो घुरारो गद्दी पर बैठा। लाखो घुरारो नगरसमोई के सिमा में अपने पहाड़ जैसे घोड़े को दौड़ाता हुआ मार्ग में आ रहे एक बरगद की शाखा में झूलती जड़ो लो पकड़ लेता और अपने दोनों पैरो के बिच घोड़े को उठाकर जुला जुलता, ऐसा शक्तिशाली था।

इस लाखा घुरारा को रानी बोधि से चार पुत्र हुए। मोड, वरेआ, सांध और ओठा।

मारवाड़ के खैरगढ़ के गोहिल राजा को एक चंद्रकुंवरबा नाम की पुत्री थी। बचपन में ही माता का अवसान हुआ था लेकिन पुरे लाड से पली हुई थी। उसने लाखा घुरारा का पराक्रम सुना था की वह दो पैरो के भींच में लेकर घोड़े को उठा लेता है।

चंद्रकुंवरबा को एक पाडी (भैंस की बछडी) पर अति हेत था। पाडी छोटी थी तब से उसे गोदी में उठाकर घूमते। चंद्रकुंवरबा की उम्र युवानी में आने के बाद भी पाडी में से हो चुकी भैंस को उठाकर चलने का क्रम उनका जारी था और वे भी अतुल बलशाली हुए। 

लाखा घुरारा वृद्ध हुआ तब चंद्रकुंवरबा युवावस्था में आए। उनका विवाह कच्छ में शेहकोट के कनोज चावड़ा से नक्की हुआ था। लेकिन कहते है की उनके भाभी ने चंद्रकुंवरबा पर कटाक्ष करते कहा था की, "इस पाडी को उठाए घूमते हो तो लगता है की लाखा घुरारा से विवाह करोगे।" उस ज़माने में कटाक्ष बड़ा घाव था। चंद्रकुंवर बा ने कहा :

"भाभी भलो मियणूं, कुल भलेरी काण ;
गोहिल धीयड़ी गिनधी, लाखे संधी लाण ;" 

[सही कटाक्ष किया भाभी, अब तो लाखा घुरारा से ही विवाह होगा।]

"जुडें बेआ जुवान, लाखे जेडा लख्ख ;
मु के मिडे कख्ख, घूरारे सें गबडियास ;"

[लाखा जैसे युवक तो लाख मिलेंगे, पर में तो उस बुड्ढे बहादुर लाखा घुरारा से ही शादी करुँगी।]

चंद्रकुंवर बा की वेल (विवाह प्रथा) शाहकोट जाने के लिए निकली। बीचमे बन्नी आते ही चंद्रकुंवर बा ने वेल नगर समोई की और ले जाने का निर्देश किया। नगरसमोई शहर की सिमा पर पहुंचकर लाखा घुरारा को सन्देश भेजा गया। जाम लाखो तो मृत्युशय्या पर पड़े थे। अपने युवान पुत्र मोड़ को विवाह के लिए तैयार कर सामने भेजा, चतुर चंद्रकुंवरबा पहचान गए, मोड़ के पास आते ही मातृभाव से मोड़ के सर पर हाथ रख दिया। और लाखा घुरारा से ही विवाह का आग्रह व्यक्त किया। जाम लाखा तो शय्या से खड़े होने को भी अक्षम थे तो राजपूती परम्परा के अनुसार खांडा-विवाह हुआ।

रानी चंद्रकुंवरबा ने सुकन्या ने जैसे ऋषि च्यवन की चाकरी की थी वैसे ही लाखा घुरारा में युवावस्था को पुनः लाने को प्रयासरत हुई। जाम लाखा के देह में चेतना प्रकट होने लगी, छठे महीने तो वह शय्या से खड़ा हो गया। शरीर में अखुट  शक्ति का संचार हुआ, दशहरे को शमी-पूजन की सवारी करके जाम लाखा के दिलमे फिर से उस बरगद पर घोड़े को जुला जुलाने की मौज जागी।

जाम लाखा ने तीव्र गति से अश्व को दौड़ा दिया, "हाँ हाँ हाँ हाँ..." सवारी में लोग रोकने के लिए बोलते रहे उतने में तो ठीक बरगद के निचे पहुंचकर बरगढ़ की जुलती शाखाओ को पकड़कर अपने पहाड़ जैसे घोड़े को पैरो के बिच भींचकर उठा लिया। फिर से युवान बने इस वृद्ध जाम लाखा का बल देखकर लोग पागल हो उठे। रानी चंद्रकुंवर बा का स्वप्न साकार हुआ, फिर विधिवत लग्नसमारंभ हुआ।

चतुर रानी चंद्रकुंवरबा ने लाखा के दिल में अविचल स्थान प्राप्त किया। एक दिन धीरे से जाम लाखा के कानो में बात कह दी की, "मेरे पेट से अवतरित हो उसे सिंध की गद्दी मिले।"

जाम लाखा को तो चंद्रकुंवरबा के सिवा कुछ दिख ही नहीं रहा था। अपने पाटवी कुंवर मोड को बुलाकर उसने बात की। मोड मन में सहम उठा लेकिन पिता की अवज्ञा नहीं कर सकता था। वह मन में समझ रहा था की, "अभी तो कोई कुंवर है नहीं, और कुंवर हुआ भी तो जाम लाखा भी कितने दिन के मेहमान ? राज तो मुझे ही करना है, देख लेंगे।" और उसने लाखा घुरारा को वचन दिया की, "भले राणी चंद्रकुंवरबा के कुंवर को राजगद्दी मिले, मैं खुश हूँ।"

जाम लाखा घुरारा जैसा महा बलवान और तेजस्वी पिता तथा रानी चंद्रकुंवरबा जैसी प्रतापी माता के वहां उन्नड का जन्म हुआ।

"राणी गोड जनमेओ, उनड जाप धे जाम ;
घरघर वधाईयुं वईयु, तेजियुं सिंध तमाम ;"

[रानी गोड अर्थात चंद्रकुंवरबा के पेट से जन्म होते ही जाम की उपाधि धारण करनेवाले उन्नड के जन्म से सिंध के हर घर में बधाई दी गई।]

उन्नड दिन को नहीं उतना रात को बढ़ने लगा, और रात को नहीं उतना दिनमे बड़ा होने लगा। रानी चंद्रकुंवरबा की मनवांछना उन्नड जैसा पुत्र मिलने से फलित हुई। 

जाम लाखा से बारह वर्ष के घर-संसार से रानी चंद्रकुंवरबा को चार पुत्र हुए :

"उन्नड जेहो फूल ने, चोथो मनाई मल्ल ;
लाखे घुरारे घरे, अठे गोर असल्ल ;"

[उन्नड, जेहो, फूल, और चौथा मनाई, यूँ लाखा घुरारा को कुल आठ पुत्र हुए।]

उन्नड के तेज चन्द्रकला की तरह बढ़ने लगे तो सबसे बड़े कुंवर मोड के पेट में मरोड़े उठने लगी, की यह तो राज करने देगा ऐसा लग तो नहीं रहा। इस लिए उन्नड को कैसे ख़त्म किया जाए उसके प्रपंच-पेच करने लगा।

रानी चंद्रकुंवरबा का विवाह जिससे निश्चित हुआ था वह शाहकोट का कनोज चावड़ा शत्रुता की अग्निसे जलकर गज़नी के सुल्तान द्वारा जाम लाखा पर आक्रमण करवाता है, इस चढ़ाई में जाम लाखा ने सुल्तान की सेना को परास्त किया था। उस दिन से गज़नी का सुल्तान मन में प्रतिशोध की अग्नि लिए फिरता था।

बड़ा कुंवर मोड़ अपने राज्य में भ्रमण के बहाने सीधा गज़नी पहुंचा। सुल्तान के साथ गुप्त सलाह की कि इस बार आपको जित दिलाऊंगा। क्योंकि नगर समोई की और से लड़नेवाला मैं ही हूँ। इसलिए बिना लड़े जित दिलवाऊंगा, लेकिन दंड के बदले आपको उन्नड कुमार को बंधक मांग लेना है।

सुल्तान ऐसे ही किसी प्रस्ताव के इंतजार में था। जाम लाखो अब अंतिम अवस्था में लड़ने को अशक्त था। उन्नड उम्र अभी छोटी थी, सुलतान ने फ़ौज तैयार की, और नगर समोई पर भेज दी। मोड़ ने लड़ाई का नाटक कर सुलतान को विजेता किया। सुल्तानने युद्ध खर्च के नाम पर अनहद दंड भरने को कहा, इतनी बड़ी रकम जाम लाखा भरने में अक्षम होने के कारण सुलतान की फ़ौज ने जब तक दंड पूरा भरा न जाए तब तक उन्नड को बंधक रखने की मांग की। 

रानी चंद्रकुंवरबा को यह मांग माथे के घाव समान लगी, पर समस्त राज्य बर्बाद हो उससे अच्छा उन्नड को जमानत में देकर दंड भरकर वापिस ले आना ज्यादा ठीक लगा। बड़े कुंवर मोड का प्रपंच सफल रहा। उन्नड को गज़नी के सुल्तान के वहां जमानत में दिया।

सुल्तान का एक बेटा कुछ दिन पूर्व ही जन्नतनशीं हुआ था। उन्नड गज़नी आते सुल्तान को उसमे अपने शहजादे की परछाई दिखी। इस लिए उन्नड को बेगम के पास भेज दिया। बेगम को भी अपना प्रिय बेटा वापिस मिलने जैसा ही लगा। उन्नड के मान-पान वहां भी बढ़ गए।

"पुत्तर केआ पींढजो, बाबीय पसी पाण ;
सिंध सजी तुहींजी, तूं ज समै जो जाम ;"

[बादशाह और बेगम कहते है की तू ही हमारा बेटा बाबी है, तू ही सिंध और नगर समोई का जाम है, अब कोई भी चिंता मत करना।]

एकाध साल बीत गया, रानी चंद्रकुंवरबा जाम लाखा की सेवा-सुश्रुषा तथा उन्नड की चिंता में पिरोये रहते थे। राज्य की धुरा मोड के हाथमे है और उधर उन्नड को मातृभूमि याद आई। माबाप समान बादशाह और बेगम के पास अपनी भावना व्यक्त की। दोनों को दुःख हुआ, प्यारे पुत्र से वियोग समान वह घड़ी थी, फिर भी खूब प्यार से पुरे साधन-सगवड के साथ विदा दी।

उन्नड घूमता-फिरता नगरसमोई आ पहुंचा। उसे देखते ही नगरजन हर्ष के अतिरेक में आ गए। उसकी माता के हर्ष का तो क्या ही कहना ? लेकिन उन्नड को सगर्व वापिस आया देख मोड के दिल में दरारे उठ आई। कुम्हार चाक पर से मिट्टी के घड़े उतारे ठीक ऐसे ही मोड़ के मन-चाक पर उन्नड को ठिकाने लगाने के घात उतरने लगे। 

मोड़ जितना गहरा था उतना ही मधुभाषी भी था। रानी चंद्रकुंवरबा को समझा-बुझा कर उन्नड को अपने मामा वीरम चावड़ा के वहां कच्छ के पाटगढ़ घुमाने के बहाने ले गया। पाटगढ़ में उन्नड को ख़त्म करने की तरकीबे चल रही थी, तब उन्नड एक दिन अकेला ही अपने घोड़े पर घूमने के लिए निकला था। इधर से जाम लाखा अंतिम श्वास ले रहे है का समाचार लेकर एक आदमी भेजा गया था वह घूमने निकले उन्नड को रास्ते में मिला। उन्नड ने वही से घोडा दौड़ा दिया नगर समोई की ओर। 

उन्नड नगरसमोई पहुंचा, जाम लाखा मानो उन्नड का ही मुख देखने को रुका था। उन्नड के पहुंचते ही खुद के हाथो से जाम की पगड़ी उसे पहनाई और लाखा घुरारा के प्राण अनंतयात्रा पर निकल गए।

वहां पाटगढ़ में मोड तो अभी उन्नड को ही खोज रहा था। कई दिनों बाद उसे समाचार मिले की जाम लाखा स्वर्ग-प्रयाण कर चुके है, और जाम उन्नड अब गद्दी पर विराजमान है। मोड़ के मानो सारे जहाज डूब गए।

रानी चंद्रकुंवरबा को अभी तक मोड के मन की मुराद पता न थी, उन्नड के गद्दी पर बैठने से दूसरे कुंवरो को कोई समस्या न हो इस लिए सभी कुंवरो में बड़ी जागीरे बांटी गई।

"मंघी डिनां मोड के, मनाई मरंध ;
उन्नड विठो सामोई, सभे जें जी सिंध ;"

[मोड को मंघी नामकी सबसे बड़ी जागीर दी, मनाई को मरंध की जागीर मिली, इस तरह सभी को बड़ी जागीरे दी गई।]

मोड को तो कुछ पसंद नहीं आया, पर और कोई रास्ता न होने मन मारकर बैठा रहा। 

जाम उन्नड के देह से ज्यादा उसका मन सुन्दर था। दोनों पक्षों (माता-पिता) के उच्च संस्कार उन्नड के राज-कारोबार में दिखने लगे। पंडित, विद्वान, कवि तथा कलाकारों से उसकी कचहरी छलकने लगी। उसके किसी अमीर-उमराव में असंतोष न था। गज़नी के साथ भी उसके अच्छे संबंध थे। बाहरी आक्रमण का भी उसे कोई भय न था। वर्षा के अच्छे से होने से राज्य उन्नति कर रहा था, आवक बढ़ रही थी, तो उन्नड का हाथ भी खुला था। 

उसके दानी होने की ध्वज पताका ऊँचे आसमान लहरा रही थी। देश-परदेस में भी उसकी ख्याति हुई।

"उन्नड आजी रीत, परखड़े पधरी थई ;
हुआ मुसाफर मसीत, तेके लाखाणी लाडकेआ ;"

[तेरी प्रतिष्ठा को पंख फूटे है, क्योंकि मस्जिदों में सोने वाले मुफ़लिसों को तूने मालदार बना दिया।]

"लाखाणी जे राज में, जे को रात रेआ ;
कनी माणेक मेड़ेआ, कनी खजाना खया ;"

[हे लाखा के पुत्र जाम उन्नड ! तेरे राजमे कोई मिश्किन रात रुके तो तुझसे मिलते ही दूल्हा बन जाता है, क्योंकि तेरे खजाने उनके लिए खुले रहते है।]

"उन्नड तोजी ओथ में, वडा गुजारी उडीय ;
नरपत कोल करार केआ, समा पार जेसीय ;"

[हे नृपति ! आपने ऐसी संधि की है की जब तक आप है सब को आनंद मंगल ही रहेगा। आपके आश्रय में सब सुखी है।]

"समु सखावत जी, ऊभो पूछे पर ;
कोठाय मंगळआर के, डे डलासा सधर ;"

[हे समा जाम ! तू हमे सुखी रखने के बावजूद पूछता है की देश में कोई दुखी तो नहीं, ओर कोई हो तो उसे दिलासा देकर उसके दुःख दूर करता है।]

"ओगो आए अभ में, समु सूरज जीय ;
हलो तडा मंगणा, पो ए करजो सधो कीय;"

[समा वंश में ऐसा सूर्य उगा है की वहां जाने वाले के कर्ज रूपी अँधेरे मीट जाते है।]

"डमरे ओ त डे, पलटेओ पात्र भरे ;
इन लाखाणी के, डीयण चंगु चत में ;"

[जाम लाखा के इस कुंवर के चित्त में एक ही बात है की बस देना, देना, और देना है। इस लिए माँगनेवालो की संख्या बढ़ रही है, और पात्र भर भर कर दिया जा रहा है।]

ऐसी जिसकी सुगंध चारोओर फ़ैल रही है उस जाम उन्नड की गोद में छोटा सा कुंवर खेल रहा है। कुंवर का नाम सतोजी। उन्नड के घर जन्मा वह मोर का अंडा ही देख लो, राजमाता चंद्रकुंवरबा के चारो हाथ कुंवर सताजी की रक्षा कर रहे है।

उन्नड जाम का एक राज-दसोंदी चारण, नाम हारस। उसका पुत्र भी सताजी जितना ही। नाम सद्ध (सिद्ध)। सद्ध और सताजी भी गहरी दोस्ती। दोनों साथ में खेले, साथ में भोजन करे। दोनों के मातापिता इन्हे देखकर खूब खुश थे।

मध्य युग का वह जमाना और राजपूत के बेटे को तो छरी, बरछी या कटारी के ही खेल खेलने होते है। राजमहल में माता जी के स्थानक में भेंसे की बलि चढ़ाते कुंवर सताजी ने देख ली होगी, इस लिए दूसरे दिन ऐसा ही खेल खेलने का मन हो आया। 

सताजी ने सद्ध से कहा : "चल भैंसा भैंसा खेलेंगे, तू बन भैंसा और मैं बनूँगा जल्लाद।"

सद्ध ने कहा : "नहीं ऐसा खेल नहीं खेलना है।" लेकिन यहाँ तो बालहठ और राजहठ साथ में हुई। सताजी ने कहा : "फिर मैं भैंसा बनता हूँ और तू यह छुरी मुझे मार।"

यूँ खेल खेल में सताजी हठ में भर गए, खुद भैंसा बने, और सद्ध को कहा, "चला छुरी।"

लेकिन सद्ध की हिम्मत न चली, सताजी ने के बार बार कहने पर उसने सताजी के गले में छुरी पिरो दी। कोमल गले से रक्त की धार बही, थोड़ी देर तड़फने के बाद कुंवर के प्राण पखेरू उड़ गए।

राजमहल में हाहाकार हो उठा। नगर में पता चला, वज्राघात हुआ, पका धान चूले पर ही पड़ा रहा, सद्ध को पूछ पूछ कर सब समझना चाह रहे थे की ऐसा हुआ कैसे ? बालक सद्ध को जितने शब्द आते थे उतने से समझा समझा कर और डर गया। उसे भी समझ नहीं आ रहा था की हुआ क्या है। यह तो एक खेल था।

रानीवास में मृत्यु की काली छाया ढल चुकी थी। कल्पांत की कोई सीमा न थी। जाम उन्नड के लिए इससे बड़ा आघात क्या हो सकता की एक बाल खेल में प्राणप्रिय पुत्र खो दिया। राजपरिवार की दिशाए धुंधली हो चली। आघात कम होते लोगो में क्रोध बढ़ा।

चारणपुत्र को शूली पर चढाने के लिए, एक झटके गर्दन काटने के लिए, कोलू में डालकर पीस दिया जाए, ज्यादा से ज्यादा क्रूर रीत से उसे मारने की बाते होने लगी। सज्जन और समझदार लोग गम खाए बैठे की बहुत बुरा हुआ, लेकिन यह तो एक खेल में हुआ, चारण के अबोध पुत्र की इसमें क्या गलती ?

सद्ध का बाप हारस सर पटक पटक कर घड़ी बिता रहा था, लोगो की बाते उससे सही नहीं जा रही थी :

"के कसाई कार, खरर रत खरेरया ;
कांती चारण बाळ, सर वाए समेजे ;"

[नहीं करेगा ! नहीं करेगा ! ऐसे कसाई के काम मेरा बेटा नहीं कर सकता। यह तो खेल खेल में समा कुंवर के गले पर छुरी चली है।]

हारस चारण कल्पांत कर रहा है। उसकी पत्नी माताजी के सामने माला का बैरखा लिए जाप करने लगी, बालक सद्ध तो बेचारा डर ही गया है। सुनमुन हो गया, उसे बस इतना समझ आ रहा था की कुछ तो बहुत गलत हुआ है। इन्ही कल्पांत भरे, शोकमय तेरह दिन बीत गए। उत्तरक्रिया के पश्चात जाम उन्नड ने कचहरी भरी। पूरा नगर उमड़ आया। आज उस चारण बाल का न्याय होगा। जिसको मर्जी पड़े वह बोलने लगा। क्या होगा और क्या नहीं उसी जिज्ञासा में पूरा नगर जाम उन्नड की ओर नजरे गड़ाए बैठा था। 

उन्नड जामने अपने दसोंदी तथा उसके पुत्र सद्ध को जन कचहरी में पेश होने के लिए आदमी भेजे तब तो नगर ने मनोमन नक्की ही कर लिया की आज तो उस चारण बालक की मृत्यु तय है। उसे क्या मृत्यु दंड मिलेगा बस उसी का इंतजार नगरजन कर रहे थे। 

राज दसोंदी हारस अपने पुत्र को गोदी में लिया चला आ रहा है। उसने अपनी समस्त आपत्ति माता जी के चरणों में रख दी थी, उसके कदमो में अब भय न था। मुख में माताजी का जाप चालू है। तेरह दिनों की अवधि में उसने अपार हिम्मत अपने हृदय में भर ली थी। "सत्य की खातिर परिवार समस्त को त्याग सकनेवाला मैं चारण, राज बाल कुमति भरी रमत में मारा गया। अब मेरे पुत्र को भी शूली पर चढ़ाया जाए तो क्या ही अफ़सोस ? माताजी.. माताजी...!"

यञवेदी में होम-हवन करने जाते प्रभावी पुरोहित समान चारण की ऊँगली पर बाल सद्ध घसीटाता चला आ रहा है। उसे देख कईओ के हृदय द्रवित हो उठे। तो कोई बोल भी पड़े, "उसकी तो जिन्दा खाल खिंच ली जाए।" " अरे उसे तो कोलू में डाल कर पीस दिया जाए।"

लेकिन समस्त कचहरी के आश्चर्य के बिच उन्नड जामने सामने चल कर सद्ध को गोदी में उठा लिया। और कहा : 

"मारे मंगणहार के, कनी पुरा न केआ ;
सामे जो शणगार, माफी मंगणहार के ;"

[अपने मागणहार-याचको को मारकर इस जगत में सफल नहीं हो पाया है, किसी ने बरकत नहीं पाई। मेरे याचक तो मेरे समा वंश के श्रृंगार-स्वरुप है, वे तो सदा क्षमायोग्य ही होते है।]

इतना बोलकर उन्नड जाम ने सिंहासन की ओर कदम बढ़ाए, और क्या हो रहा है उसका लोग विचार करे उससे पहले तो सद्ध को सिंध की गद्दी पर बिठाकर खुद पानी का पात्र पकड़कर खड़ा हो गया। 

राज दसोंदी तो विस्मित हो चला, होश संभालकर बोला, "सिंध के सरदार ! हम चारणो का धर्म राज चलाना है ही नहीं। हम तो सामधर्मी है। ऊपर से कुंवर सताजी को मारने का जो कृत्य हुआ है, उस अपराध की ऐसी सजा हमे स्वीकार्य नहीं।"

लेकिन उन्नड जाम ने तो :

"पाण पोटरीओ हथकरे, चारण के सुरताण ;
सामैजो सुरताण, उन्नड मेले आवेओ ;"

[जाम उन्नडने तो सद्ध को गद्दी पर बिठाकर जलपात्र लिया और अपने महल पर आया,]

"उनड अढी डी, के तखतजो तेआग ;
संध सजी समरपई, डई पातरे पाग ;"

[ढाई दिन तक उन्नड जामने तख़्त का त्याग कर अपने दसोंदी के पुत्र को गद्दी पर बिठाकर पूरा सिंध दे दिया।]

पतली जिह्वा वाले चारण कवि कह पड़े :

"गण उपर गण करे, ए तो वहेवारां वट्ट ;
अवगण उपर गण करे, खरी खत्रियां वट्ट ;"

ढाई दिन के पश्चात सिंध के सर्व सूत्रों को फिर से अपने हाथ में लेकर जाम उन्नड ने प्रजाजन, विद्वान, पंडितो, कविगण और कलाकारों का दरबार भरा :

"हारस बोलाडी डीनी, हीरडी अबु मीर ;
समु ईय सुधीर, जीनी परीए वाटु पारियु ;"

[हारस चारण को बोलाड़ीगढ़ गाँव दिया, अबु मीर को हिरडी गाँव दिया, तथा सबको सबकी योग्यतानुसार भेट-सौगाद, बक्शीश देते कहा :

"उनड चये मर अचो, मुंजा मंगणहार ;
से कीय रेय अणसरा, जे मुजे आधार ;"

[आप सब दान के अधिकारी है, आपको जब भी परेशानी हो तब मेरे पास आ जाइए, जो मेरे आश्रित है वे दुःखी कैसे रह सकते है ?]

तब कविओ ने कहा :

"रुदे मजा रय रुय, माले ध्राए मंगणा ;
खजानेजी खुय, उनड जामे ओपटेआ ;"

[तू हमे निभाकर हमारे प्राण के श्वास बना है, तूने हमारे लिए खजाने खोल दिए है।]

"जुग जिए तू जाम, जाचक जा आधार ;
बधी माणेक मुठियू, डे वडो दातार ;"

"जेसी सूरज सोम, तेसी उनड तु अईए ;
सिंध भरेली भोम, लाखाणी लोड़ाय ते ;"

[हे याचको के आधार ! तेरे बिना माणिक की मुठी भरकर कौन देता ? जब तक सूर्य चंद्र तपते है तब तक तेरा नाम अमर रहेगा। हे लाखा के कुंवर ! सिंध की समृद्ध भूमि को तूने उजागर किया है।]

ऐसे दानी उन्नड जाम के पीछे उसकी अन्य माता का पुत्र मोड तथा सगा भाई मनाई पड़ गए, किसी किम्मत पर उनका लक्ष्य उन्नड। 

राजमाता चंद्रकुंवरबा को पता न चले ऐसे मोड तथा मनाई उन्नड जाम को अपनी जागीर मधी में सैर पर ले गए। उन्नड के दिल में जरा सी शंका भी न थी। मोड ने थोड़े दिन उन्नड को खूब आनंद कराया, फिर नगर समोई वापिस आते समय नारी के ढोरे नामक स्थान पर पहुंचे। मोड तथा उन्नड के अश्व साथ में चल रहे है। मनाई का अश्व थोड़ा पीछे चल रहा था। मौका देख मनाई ने अपना अश्व उन्नड के पास लेकर तलवार चला दी :

"समें सटकाई, तकडी तेज तरार ;
मथो परले पार, धड़ विंझी पेओ धूड़ में ;"

[सगे भाई मनाई के तलवार के प्रहार से उन्नड का मस्तक पानी के एक किनारे पड़ा, और धड़ दूसरी और मिटटी में गिरा।]

***

ऐसा भी कहा जाता है की सर कटने के कारण उन्नड का अश्व चौंका, और अपनी पीठ पर बैठे उन्नड के धड़ को लेकर भागा। नगर समोई में राजमहल में पहुंचकर वह रुका था।

***

"ढोरे उनड मारेओ, डुखभजण डातार ;
राणी तखत वेचारेओ, शूरो समु कुमार ;"

[राजमाता ने उन्नड का धड़ देखकर सब समझ लिया, नगर के सारे दरवाजे बंध कर दिए गए। उन्नड के दूसरे पुत्र समा को गद्दी पर बिठा दिया। मोड और मनाई का राजगद्दी पाने का स्वप्न पुनः एक बार चूर हो गया। उन्नड जाम की कीर्ति अखंड रही।]

"जननी जणने एहड़ो, जेडो उन्नड जाम ;
डे डन नवलख संधडी, ज्यों देवे इक गाम ;"

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|| अस्तु ||


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