शरणागति का धर्म। || RANA BHIMSINH OF PAATDI - DADUBHAI GADHVI ||

0

"शरणागति का धर्म"

राज के मौखिक आदेश पर ही कफ़न लिए, रणमेदान में मस्तक के तोरण बांधनेवाले डेढ़सौ भायातो की कचहरी में पाटड़ी का राणा भीमसिंह हुक्के की नली को हाथ में लिए बैठे है। एक तरफ पुराने मकान से पानी टपकता हो ऐसा असल मालवा का अफीम का कसुंबा घोंट घोंट कर पात्रो से महक रहा है।



"खडीए युं खरले, ने खरले युं खोबे ;
धधकते धोबे, खांदण मचवी खोडीया ;"

"पारेवा जी रत्तियु, सर पांसरीयु ;
घाटे कसूंबे घुंटीयू, वालम जी अखीयुं ;"

थाली जैसी हथेलिओ में अंजलि भर भर कर कसुंबा का सेवन चल रहा है। मेरी सोगन और तुम्हारी सोगन के गलेतोड़ खींचतान कर कर के पिए जाते कसुंबा से महफ़िल सावन की संध्या समान घिर चुकी है। बातो की रंगत जमी है, उतने में एक रक्त टपकता मस्तक महफ़िल के बिच आकर गिरा। कचहरी में बैठे सभी चौंक उठे, स्तब्ध रह गए। हथेली में भरे कसूंबे ढुल गए। सारे हाथ एक साथ अपनी अपनी तलवार की मुठ पर गए। एक ही साथ सब की नजरे कचहरी के दरवाजे की ओर देखने लगी।

"कौन है वह महफ़िल में मस्तक फेंकनेवाला ?" राणा भीमसिंह ने खड़े होकर पूछा, साथ ही सारे लोग खड़े हो गए।

"ना... ना... बापु ! आप तो मजे से कसुंबा-डायरा की महफ़िल के मजे लो, भले ही आपके आदमीओ के मस्तक दुश्मनो के हाथो से बाजरी के डुंडे की माफिक कटते रहे। 

कचहरी के दरवाजे के पास गले तक घुमटा लिए एक स्त्री कल्पांत करती बोल रही थी।
"हमारे दस दस आदमी के आधार को कोई गाजर-मूली की तरह काट दे तो उसमे बापु आपको क्या हानि ? भले ही किसी औरत की राती-चुडिया टूटती रहे ! आपके कसुंबा में यह आंसू कहाँ दिखेंगे ?"

"ओ बाई..! दूसरा बकवास बंध कर और जो हुआ है वह सीधासीधा कह।" राणा भीमसिंह गरजा।

"क्या बात बताऊ मेरा कपाल ?" कहती दूसरे हाथ से साडी से आंसू पोंछती बोली।

"यह आपके सवळास बाग़ में दिल्ली के सैयद आकर कितने दिनों से पड़े है। उनके ऊँट और घोड़ो ने पूरे बाग़ का नाश कर सपाट मैदान कर दिया है। कल आपका माली ऊँटो को हंकारते डांटने गया, तो आपके माली को ही मार डाला। क्या करे बापु ! ऐसा तो राणा भीमसिंह के राज में ही चलता है। कोई और होता तो ऊंट और उनके चरवाहों और उनके मालिकों को भी जमीन में गाड़ देता।" कहकर वह स्त्री ठिठकती रो पड़ी।

"अरे बस कर बाई ! तेरी सारी बात समझ गया, यह सर माली का नहीं मेरे पुत्र का है यूँ समझना। इस मस्तक के बदले दुश्मन के दस सर तेरे आँगन में बाँधु तो ही मैं राणा भीमसिंह, वरना कोई खड़ रजपूत समझना।" लाल सुरमा लगाया हो ऐसी राणा भीमसिंह की आँखों से अंगारे खरने लगे। 

"अंग रूवां अवळी थई, भूल्यो जमवु भान ;
पग ते सर लग प्रगटियो, मानो झाळ महान ;"

राणा भीमसिंहने घोड़े पर रांग चढ़ाई, दूसरे डेढ़सौ और घोड़ो ने राणा भीमसिंह के घोड़े का पीछा पकड़ा। कचहरी में भोजन की भरी थालिया रसोड़े में ठंडी पड़ी रही। पुरे गाँव में बात फ़ैल गई।

***

दिल्ली के बादशाह की धाइमा के दो बेटे जैनदीन और रुकदीन काठियावाड़ की सफर पर निकले थे। घूमते-फिरते बजाणा के पास सवळास नामका राणा भीमसिंह बनाया बाग़ था, वहां ठंडा वातावरण देखकर पड़ाव डाले। झालावाड़ के उस खारे-पाट में गर्मियों में भी दिनों में खरगोश भी छाँव के बिना तड़पते है, तब ऐसा सुन्दर बाग़ देखकर जैनदीन और रुकदीन का मन सवळास में ठहर गया। कुछ दिन रुकने का नक्की कर उन्होंने अपने तंबू वहां लगवाए।

एक दिन, दो दिन, तीन दिन.. करते करते आठ-आठ दिनों के ऊपर दिन बीत गए। पर जैनदीन और रुकदीन जाने का नाम नहीं ले रहे थे। भीमसिंह राणा का भांजा दूदाजी बजाणा के थाने में था। उसे इन सैयद भाईओ का पड़ाव वहां से नहीं हटने की खबर मिली तो उन्हें वहां से चले जाने का समझाने के लिए सवळास पहुंचा। बाग़ में जैनदीन और रुकदीनने बादशाही ठाठ से आदर-सत्कार किया, और कहा : "हम तो सिर्फ घूमने और मौज-मजा के लिए निकले है, हमारा और कोई हेतु है नहीं। आप बेकीफर रहिएगा।"

दूदाजी को बात सच लगी। वे भी उन सैयद भाईओ के आग्रह को मान देते वहां रुक गए। दोनों सैयद भाईओ की साफ़ वर्तणुक से दूदाजी खूब प्रभावित हुए। सैयद भाई ओ के ऊंट के चरवाहे ने माली को मार डाला है, इस बात का दूदाजी या सैयदभाईओ को कुछ पता नहीं है। वे लोग तो चोपाट के खेल के आनंद में गरकाव थे।

उतने में घोड़ो की टांपे सुनाई दी। देखते ही देखते राणा भीमसिंह के घुड़सवारों ने सवळास बाग़ को घेर लिया। सैयद भाईओ के पचीस-पचास अंगरक्षक थे वे सारे हक्के-बक्के रह गए। दूदाजी ने चोपाट खेल रहे थे वहां से बाहर की ओर देखा तो डेढ़सौ हिनहिनाते घोड़े गगन गरजा रहे थे। दूदाजी हाथ में तलवार लिए बाहर आए। देखा तो भीमसिंहजी को सामने से आते देखा। 

"अरे मामा आप ?" बात से अनजान दूदाजी मामा से मिलने दौड़ा। 

राणा भीमसिंह ने कहा : "रहने दो, रहने दो भाणुभा ! आपको यहाँ रखवाली के लिए रखा है या दुश्मन के साथ महफ़िल ज़माने के लिए ?"

"पर मामा बात क्या है ? कुछ बताओ तो पता चले ?"

"ये दिल्ली से आदमी आए है इन्होने पूरा बाग़ उजाड़ दिया। अपना माली इन्हे डांटने गया तो उसे मार डाला। यह जोहुक्मी आपने ऊपर रहकर तो नहीं करवाई ?"

"नहीं नहीं मामा ! मुझे कुछ भी पता हो तो माँ शक्ति की सौगंध ! और इन सैयदों के चरवाहे से कुछ हुआ हो तो उनसे क्षमायाचना करवाते है, लेकिन यह सेना उनपर नहीं होनी चाहिए मामा ! यह तो सैयद है, ब्राह्मण समान है। अपने आश्रित है।"

"बहुत हुई सिफारिशें दूदाजी ! और कहो आपके इन सैयदों से हथियार उठाए। यूँ दुसरो की भूमि में आकर चाकरी करते आदमी का सर काटे तो कैसे सहा जाए ?"

"गलती है मामा ! गौ ने रत्न निगला है। अब इनपर क्रोधित मत होइए। कल दुनिया कहेगी की राजपूत ने शरणागत को मारा।"

दूदाजी ने खूब विनती की, पर उस स्त्री के कहे कटुवचनो से क्रोध में भरे राणा भीमसिंह ने एक न सुनी। उनकी आँखों के आगे तो मरे हुए माली की निस्तेज आँखे और अपनी पुत्री समान उस माली की पत्नी का हिबका भरता शरीर ही आ रहा था।

करगरते दूदाजी के सामने तलवार खींचकर राणा भीमसिंह ने उसे मार्ग से हट जाने को कहा, दूदाजी भी राजपूत था :

"केहर मूंछ, भुजंग मणि, सरणाया सोहडा ;
सती पयोधर कृपणधन, हाथ पडसी मूवा ;"

जैनदीन और रुकदीन आज दूदाजी के आश्रित थे। दूदाजी उन्हें धोखा कैसे दे सके ? घड़ीभर पहले का दूदाजी का वात्सल्य भरा चेहरा क्रोध सभर हो चला। पतली मूंछ हवा में फरकने लगी। होठ को दांतो में भींचकर भीमसिंह के पैरो में तलवार फेंकते हुए दूदाजी ने कहा :

"लो मामा ! एक बंधी है, एक और बाँध लो। अब देखिए की दूदाजी के जीते जी सैयदों पर प्रहार कैसे होता है ?"

और दूदाजी ने भेंठ से कटारी निकाली। तभी जैनदीन ने आकर दूदाजी का हाथ पकड़ लिया, और कहा : "दूदाजी गुनहगार तो हम है। हमारे खातिर आपको मरने नहीं दे सकते। आप हट जाइए, आपने हमारे लिए जो भी किया बहुत है, अब हम हमारा देख लेंगे।"

"दूदाजी के रहते उसके आश्रितों पर कोई प्रहार नहीं हो सकता। मामा ! तैयार हो जाओ।" और दूदाजी की कटारी चक्कर-भम्मर घूमने लगी। राणा भीमसिंह और उनके साथिओ की तलवारे पहाड़ से टकराती बिजली की माफिक दूदाजी की कटारी टकराने लगी। तलवारो के टुकड़े उड़ उड़ कर एक-एक खेतर दूर गिरने लगे। दूदाजी की कटारी राणा भीमसिंह के आदमीओ को छूने लगी। तभी एक आदमीने दूदाजी की अपनी ओर आई पीठ में बरछी पिरो दी। दूदाजी गिरे, भीमसिंह तथा उनके आदमीओ ने सैयद भाई ओ तथा उनके आदमीओ के सर उतार लिए। 

दसेक मस्तको का हार बनाकर घोड़े पर अपने साथ लिया। राणा भीमसिंह ने मरे पड़े सैयदों की ओर क्रोधदृष्टि से देखा और पाटडी की तरफ चल दिए। दूदाजी का देह सवळास बाग़ में एक कुछ ही क्षणों की मित्रता को निभाते अपने शरीर पर घावों को लेकर शरणागत का रक्षण कर निष्प्राण हो गया।

आज भी बजाणा के पास बाग़ वाली जगह में सैयदों की कबर है, भाद्रपद की अमावस्या को वहां मेला लगता है। दूदाजी को याद किया जाता है। शरणागत के रक्षण में क्षात्रत्व की सुगंध से महक रहा है दूदाजी का बलिदान।

|| अस्तु ||


Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)