हमीर जी गोहिल || Hamir Ji Gohil of Laathi || Somnath ni Sakhate ||

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हमीर जी गोहिल

मदमस्त शेत्रुंजी का किलकार करता पानी बहे जा रहा था। तीन प्रहर ऊपर उदय हो चुके आदित्य की अस्त होती किरणे शेत्रुंजी के पानी पर परावर्तित होकर प्रकाश की क्षमता में बढ़ौतरी करने में लगी थी। नदी के किनारे बने कच्चे मार्ग पर कुछ पचीसेक घुड़सवार तीव्र गति से अपने घोड़ो को दौड़ाए जा रहे थे। वातावरण में नदी की कलकल के अलावा बस इन तेज गतिसे भागते अश्वो की टांपे गुंजायमान थी। "रुको ! कई देर से घोड़े दौड़ रहे है। यहां थोड़ा खुला मैदान है, पानी है, घोड़ो को विश्राम देते है।" उन घुडसवारो का सरदार बोला। कुमारावस्था को पीछे छोड़ युवानी में कदम रखता वह सरदार लगभग बीस-बाइस का रहा होगा। बड़ी-बड़ी आँखे, रुआबदार चेहरा, ऊर्ध्वगति को पामती मुछे, सर पर आंटीदार पगड़ी, हाथ में यम की दाढ़ सा भाला, कोमल किन्तु कसरती शरीर।


संध्या के आगमन से शरमाया हुआ गगन लाल हुआ था। दिनभर के परिश्रम से थके खग अपने अपने आश्रयो पर लौट चुके थे। कभी कोई हिनहिनाता अश्व अपनी खुर से जमीन को खोदता तो डाली पर बैठे पंखी चौंक कर थोड़ी देर किलकिलाते फिर नीरव शांति पुनः प्रसरती।

किनारे पर एक विशाल वृक्ष के निचे उन घुड़सवारों का सरदार युवक अपनी पीठ अढेल कर विचारमग्न बैठा था। दिनभर से दौड़ाये अश्व के कारण हुई मेहनत से उसकी आँख लग गई। तन्द्रा में था वह, आँखे बंध थी, विचारमाला चालु। उसकी आँखों के आगे से बहती नदी की भांति स्मृति-दृश्य पसार हो रहे थे। अभी कल तक तो वो अर्थिला के खुले आसमान के निचे खेल रहा था। उसके बड़े भाई अर्थिला (लाठी) के राजा थे। माँ समान भाभी थी। वह खेल कर आया, उसे खूब भूख लगी थी, सीधा ही दौड़ता हुआ भाभीमाँ के पास पहुंचा था, उसने जल्दी जल्दी खाना माँगा। भाभी ने बस मजाक में कह दिया था की "कुंवरजी, इतनी क्या जल्दी है ? आपको कौनसा सोमनाथ के संरक्षण के लिए जाना है ?"

"मतलब ?" भाभीमाँ ने क्या कहा, बाहर क्या चल रहा था ? बड़े भैया भी किसी व्यवस्थाओ की बातो में लगे थे, सुना भी था की 'हमीर को पता चलने न पाए'।

"कुछ नहीं कुंवरजी ! अभी भोजन लगवाती हूँ। आप बैठिए।"

लेकिन अब हमीर की भूख गायब हो चुकी थी, बहुत जिद्द करने पर भाभी माँ ने बताया की सौराष्ट्र के आराध्य सोमनाथ पर फिर एक बार म्लेच्छ-यवनो का काल-कटक उतरने वाला है। दिल्ली का मुहम्मद तुगलक तथा गुजरात का सूबेदार ज़फरखान सोमनाथ की सम्पदा लूटने को आ रहे थे। सोमनाथ को लूटना इन यवनो के लिए अब बस सिद्धि प्रसिद्धि की प्राप्ति का स्थान बन चूका था। उन दिनों में सौराष्ट्र के सभी बड़े राजा आपसी युद्धों से अभी अभी ही उबरे थे। कोई राज्य अपने आपको सौराष्ट्र में स्थिर करने की कोशिशों में लगा था, जूनागढ़ जैसा बड़ा राज्य भी अहमदाबाद में स्थायी हो चुकी गुजरात सल्तनत से सीधी टक्कर लेने के पश्चात सौराष्ट्र में बैठे मुस्लमान थानों को उड़ाने में व्यस्त था, कुछ छोटे राज्य अपना पैर ज़माने और सौराष्ट्र में स्थिर होने के या फिर अन्य छोटे रजवाड़ो पर आक्रमण कर अपना राज्य विस्तार करने में लगे थे। अर्थात कोई भी उस समय इस स्थिति में नहीं था की सोमनाथ पर आक्रमण करने आ रहे यवनो को रोक सके। सारी स्थिति समझने के पश्चात हमीरने भाभी माँ से पूछ लिया :

"तो भाभी माँ ! सोमैया के लिए कोई आगे नहीं आएगा ? सोरठ के राजपूतो की राजपूती मर चुकी है ?"

देवर के सवालों से परेशान भाभी माँ के मुख से निकल गया, "आप भी तो राजपूत है।" लेकिन यह कुछ शब्दों ने अलग ही रंग दिखा दिया था।

"हाँ ! ठीक कहा, भाभी माँ। सोमैया के रक्षण के लिए मैं जाऊंगा ! भगवन ने स्वयं मुझे चुना है।"

"अरे नहीं नहीं कुंवर जी ! मेरा यह मतलब नहीं था।" भाभी माँ ने बात को वापस मोड़ने की कोशिश की, लेकिन तीर कमान से निकल चूका था।

भोजन का थाल पड़ा रहा। हमीर ने अपने मित्रो को बुलाया, छत्रपाल सरवैया, पातलजी भाटी, सगदेव जी... समान उम्र के मित्र वर्तुल को बुलाकर कहा : सोमनाथ पर यवनसेना आ रही है, जफर अमदावादी अपने काबुली, मकरानी, अफगानी, पठानी सेना के साथ प्रभु सोमैया को लूटने आ रहा है ! मैं जा रहा हूँ प्रभास। आपको यहाँ का ध्यान रखना है। लेकिन उसके मित्र भी उसके जैसे ही थे। वे वहां शांतिस्थान पर कैसे बैठे रह सकते थे। उन्होंने भी हमीर के साथ जाना ही सर्वोपरि रखा। महासागर के सामने आज वे मुट्ठीभर टक्कर लेने के लिए जा रहे थे। भगवन सोमैया को अपना मस्तक सौंपने जा रहे थे। पता था की, उस विशाल सेना के आगे कितनी देर टिक पाएंगे ? फिर भी मृत्यु का वरण करने के लिए, मृत्यु के मंडप में जाने को उत्सुक थे। इस नदी के पट में उन सभी को निंद्रा देवी ने समरांगण में होने वाले अथाह परिश्रम से पूर्व कुछ क्षण शांति के देने हेतु अपने आश्रय में ले लिया।

हमीर की आँखे मिंची हुई थी, पर नींद दूर दूर तक न थी। उसने सोने की खूब कोशिशे की, सब को निंद्रा अपने वश कर चुकी थी सिवा उसके। वह आने वाले दिनों की भयावहता उसकी आँखों के आगे नाचने लगी..! मानो स्वयं मृत्यु उसके आगे खड़ी होकर नृत्य कर रही हो। विधर्मिओं का दल बहुत दूर भी न था, कदाचित तीन दिन में सोमनाथ के पटांगण में रक्त की धाराए बहनी तय थी। पास ही वृक्ष पर से एक उल्लू भयंकर आवाजे कर रहा था।

"सुना..! सोमेश्वर अपने पास बुला रहा है।" जाग रहे छत्रपाल ने कहा।

हमीर : "सोया नहीं भाई ?"

छत्रपाल : "नींद कहाँ ? उल्लू की आवाज सुनी ? लोग है, जो इसे अपसगुन मानते है, मुझे तो आज इसमें सोमेश्वर का आमंत्रण सुनाई दे रहा है।"

हमीर : "हाँ ! सो तो है। क्या तुम्हे मृत्यु का भय नहीं ? दो दिन बाद शायद इस मृत्युलोक को छोड़ चुके होंगे हम।"

छत्रपाल : "राजपूत तो अपनी मृत्यु को मुट्ठी में लेकर जन्मता है। वह मृत्यु नहीं, अवसर है। कितने वर्षो के अथाह तप के उपरांत ऋषि ओ को कोई सिद्धि मिलती है। और हमे, हमारे लिए तो मृत्यु कैसे हुआ वही सबसे उपलब्धि तथा वही हमारा मोक्ष है।"

हमीर : "हाँ ! सही कहा !"

तभी इनके वार्तालाप को भंग करता कहीं से कोई करुण कल्पांत का विरहगीत सुनाई दिया उन्हें। कोई स्त्री अपने सुमधुर कंठ से मरसिया गा रही थी।

सौ सुवे संसार, सायर जळ सुवे नहीं ;
घटमा घुघरमाळ, नाखी ने हाल्यो नागाजणो ;

लंबे लंबे आलाप में गाये जाते यह मरसिये... लगता जैसे वन के वृक्ष रो पड़ेंगे, लगता था जैसे अभी ही स्वर्ग से विमान उतरेगा, उस स्त्री का नागाजण पुनः पृथ्वी पर अवतरित होगा, लगता था मानो आसमान से तारे गिरने लगेंगे। इसी क्षण पृथ्वी रसाताल जाएगी, इतना विलाप एक ही मरसिया में उन्हें लगा, तभी फिर से... 

सवारे सहु कोई, वळाववा आवे वसव ;
रात न रोवे कोई, नातो विनाना नागडा ;

मरसिया का सुर कलेजे को चीर रहा था। वेदना और विलाप से भरपूर यह सुर उन दोनों की बचीकुची निंद्रा की आशा भी छीन गए। मृत्यु को वरण करने जाते इनको रातभर इतने करुण और कल्पांत भरे मरसिये मीठी लोरी जैसे लगे। 

प्रभात की किरणों ने आनेवाले दिनों में बहने वाले रक्त को सूचित करते हुए आकाश को भी लाल रंग दिया। हमीर ने घोड़े पर सवार होकर जिस दिशा से रातभर मरसियों के सुर आ रहे थे, उस दिशा में दौड़ा दिया। कुछ ही दुरी पर चारणो का नेस था। नेस को पता चला, अर्थिला (लाठी) के कुंवर पधारे है। आगता-स्वागता हुई। हमीर ने पूछा : कल मरसिये कौन गा रहा था।"

एक चारण वृद्धा आगे आई, उसे लगा अवश्य ही यह कुंवर किसी अच्छे काम के लिए जा रहे होंगे, रात के मेरे मरसिये से इन्हे अपशुकन हुआ होगा। "मैं गा रही थी भाई ! आपको अमंगल हुआ हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ। मेरा बेटा कुछ दिन पहले ही मुझे असहारा छोड़ कर चल बसा।"

"नहीं नहीं आई ! इतने मीठे मरसिये मैंने कभी नहीं सुने। कितना भाग्यशाली है आपका बेटा, स्वर्ग के पश्चात भी आप उसे लाड लड़ा रही है। क्या मेरे भी मरसिये सुनाएंगी मुझे ?"

चारण वृद्धा लाखबाई कुछ क्षण तो स्तब्ध रह गई, "बेटा ! यह क्या बोल दिया। तुम्हे पता नहीं ? मरसिया मरने वालो के पीछे गाए जाते है। सोमैया आपको सो वर्ष के करे।"

"अरे आई ! मैं मरने ही तो जा रहा हूँ। सोमैया पर यावनीसेना टिड्डो को तरह उतरने वाली है। उनसे युद्ध करने ही तो हम जा रहे है। अब मृत्यु तो निश्चित ही है। बस आप तो मुझे आपका पुत्र समझकर वे मरसिये सुना दीजिए।"

"कुंवर ! जीवित का मरसिया गाउँ तो तो मैं अभागी रौरव की अग्नि को पाऊं ! पर मेरा वचन है, मैं प्रभास आउंगी।तुम्हारा युद्ध देखकर तुम्हारा अंत समय होगा तब तुम्हे अवश्य ही मरसिये सुनाऊँगी। क्या तुम विवाहित हो ?"

"ना आई। क्यों ?"

"ऐसा कहते है की वीरगति को पामता यदि कुंवारा हो तो उसे स्वर्ग में अप्सरा नहीं मिलती। तुम विवाह कर लो।"

हमीर हस्ते हुए कहता है : "आई ! अब मरने जाने वाले को कौन अपनी कन्या देगा ?"

"सब सोमेश्वर देख लेंगे ! तुम बस मार्ग में कोई विवाह प्रस्ताव मिले तो मना मत करना।"

कुंवर हमीर और उनके साथीदारों ने प्रभास की दिशा में घोड़े दौड़ा दिए, मार्ग में द्रोण पहुंचे। द्रोण भीलो का गढ़ था। गीर के भील तीरंदाजी में अति कुशल थे। उनका सरदार था वेगड़ो जी भील। अपने क्षेत्र से जाते इन घुड़सवारों को उसने रोक लिया। हमीर ने अपनी बात बताई, सोमैया पर होने वाला हमला, और वे कुछ मुठ्ठीभर उनका सामना करनेवाले।

"कुंवर ! आप अभी बहुत छोटे हो। अविवाहित भी, आपने संसार सुख भी नहीं लिया। इतनी बड़ी यावनीसेना के आगे कितनी देर टिक पाओगे ? वापस लौट जाओ।" वेगडाजी अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से हमीर के मुख पर उभरती रेखाए देखने लगा। 

हमीर क्रोधित हो उठा। "मेरे आराध्य पर संकट है और आप मेरी आयु के कारण मुझे लौटने को कह रहे है ? सिंह बाल छोटा हो तो भी खरोंचे तो मार सकता है, याद रखना।"

"लेकिन इस तरह उन हजारो के सामने आप बीस-पच्चीस कर क्या लोगे ? करोड़ो का रक्षण करने वाले सोमेश्वर अपना संरक्षण स्वयं करने में समर्थ है।" वेगडा शायद हमीर का मन कितना मजबूत है उसकी तपास कर रहा था। 

"यह नाप-तोल करना मुझे नहीं आता। मैं इतना जानता हूँ की मेरे आराध्य पर संकट हो तो मैं हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकता। आप हमे मार्ग दे दीजिए, हमे देर हो रही है।"

वेगडो बहुत राजी हुआ। हमीर की एकनिष्टता, एकवचनी, अनन्य भक्तिभाव और श्रेष्ठतम क्षात्र गुण होने पर। धीरे से वेगड़ा ने एक प्रस्ताव रखा। "कुंवर ! सोमैया की सहायता हेतु मैं भी आपके साथ चलूँगा। कुंवर ! कुछ वर्ष पहले मेरे वन्य क्षेत्र से जेठवा राजा जा रहा था। हमारा उनसे किसी बात पर विवाद हो गया, युद्ध हुआ। जेठवा राजा मारा गया। लेकिन मरने से पहले उसने अपनी नन्ही सी पुत्री मुझे सौंपकर कहा था कि इसका ध्यान रखना। कुंवर ! मैंने उसे अपनी पुत्री की तरह ही पाला है। हम भीलो की कन्या किसी राजबीज को कैसे वरे ? मुझ पर यह कार्य शेष है की मुझे उस कन्या का योग्य वर से विवाह कराना है। मेरा प्रस्ताव स्वीकार कीजिए, आप भी कुंवारे है। मेरी कन्या से विवाह कीजिए। फिर मैं और मेरे भील साथी भी आपके साथ चलेंगे।"

हमीर के चिंतन में लाखबाई की बात सच होती हुई मालुम हुई। उसे लगा, सोमेश्वरने स्वयं यह प्रसंग निर्माण किया है। वरना कोई मरने जा रहे को अपनी कन्या क्यों दे ? भगवन सोमेश्वर की लीला वह अनिभूति कर रहा। उसने हाँ कही। तुरंत ही विवाह मंडप बंधे। मंगल गीत शेहनाईओ से गूंजने लगे, बड़े बड़े और विचित्र घाट के भीली ढोल ढबुकने लगे। उस जेठवी कन्या के भी क्या उच्च गुण-संस्कार रहे होंगे..! बस एक रात्रि का संसार और फिर जीवनभर का वियोग.. बस एक रात्रि का पीयूमिलन और फिर पूरा जीवन विरहाग्नि की वेदना.. बस एक रात्रि को जीनी है फिर जीवन ही कदाचित समाप्त..!! और वह सुमंगल रंगीन रात्रि का भी अंत हुआ..। 

सवेरा हुआ, हमीर ने सपने साथियो को सजग किया। वेगड़ो जी भी अपने दोसो भीलो के साथ शस्त्रास्त्र सज्ज किए तैयार खड़ा था, काछ बंधी, खुला बदन, भेट में कटार, कंधे पर आदिशस्त्र धनुषबाण, बलिष्ट भुजा में एक तलवार, और मस्तक पर रानी पशु के सींगों वाला मुकुट।

द्रोण से ज्यादा दूरी न थी। सूर्यास्त से पहले ही प्रभास पहुंच गए थे। सोमैया को संध्यावंदन कर गढ़ संभाल लिया। भीलो ने गढ़ से बाहर जंगलो में उनके लड़ने के कौशल्यनुसार वृक्षो पर अपना अभेद गढ़ बना लिया। रात्रि अत्यंत कठोर थी, कभी भी जफरखान की सेना पहुंचने वाली थी। वेगडा ने हमीर से मिलकर सारी संभवित व्यूहरचनाओ का निश्चय कर लिया था। गढ़ की दीवारों पर हमीर ने स्वयं घूम कर जहां जो संभावनाए थी उन्हें सुनिश्चित कर ली। गढ़ के भीतर बड़ी कडाईओ में गर्म तेल, बड़े बड़े पथ्थर, सप्रमाण अग्नि, सब तैयार था। तीन तरफ से ही गढ़ को संभालना था, पीछे समुद्र से किसी के आने की कोई आशंका न थी।

रातभर गढ़ के कांगरो से दूर दूर तक निगाहे दौड़ाई गई। किसी के आने का कोई संकेत न था वहां..! क्रूर सुबह हुई, गढ़ से जहाँ भी नजरे दौड़ाई जाए हरे तंबू का मेला लगा मिला। एक अश्व दौड़ता हुआ गढ़ के दरवाजे की ओर आ रहा था, अश्व सवार के हाथ में भाला था, भाले पर श्वेत कपड़ा फरक रहा था। गढ़ के दरवाजे की खिड़की खोल उसे अंदर लिया गया, बस इतना ही लिखा था की, "गढ़ को तत्काल छोड़कर मेरे शरण आ जाओ, माफ़ी दे दूंगा।" बस दो ही वाक्य लेकिन मानभंग करते वाक्य। आराध्य की उपासना को क्षत करते वाक्य। कोपित हुए हमीर ने सन्देशवाहक से कहा, : "तुरंत ही तेरी पीठ दिखा, अन्यथा मुझे संदेशवाहक को मारने का कलंक लगेगा।"

 प्रातः से तीसरे प्रहर में जफर के लुटेरों ने गढ़ की ओर दौड़ लगा दी, गढ़ के ऊपर से लग रहा था जैसे कीड़े-मकोड़ो का एक विशाल जथ्था दौड़ा आ रहा है..! यवनो के कुछ नजदीक पहुँचते ही कहीं से तीर की एक विशाल चद्दर उन पर बिछने लगी.. कोई भी तीर अपने लक्ष्य को साधे बिना फोकट नहीं गया था। एक ही साथ कई सारे ढेर हो चुके थे, तीर बड़े बड़े और वजनदार थे, कई को की तो ढाल को भेदकर, जिस हाथ से ढाल छाती पर ढंकी थी ठीक वहीं ढाल, फिर हाथ और फिर छाती में तीर जा लगा..! उन लुटेरों की आँखों में मृत्यु से अधिक महत्त्व था सोमनाथ की अथाह संपत्ति का, उन्होंने इन तीर-वर्षा को नजरअंदाज करते हुए भी गढ़ की और दौड़ जारी रखी। तीरो की दूसरी बौछार हुई गढ़ से। अबकी बार भी कई सारे मारे गए, फिर भी संख्या में क्षुल्लक तफावत मात्र हुआ। कुछ गढ़ की दीवारों के पास पहुँच चुके थे, उन पर बड़े बड़े पथ्थरो का मारा चलाया गया, गढ़  दीवारों पर चढ़ते को गर्म तेल से भुना गया.. संध्या पर्यन्त यही कार्यक्रम बारबार दोहराया गया।

रात हुई.. रक्तरंजित रात्रि। दोनों खेमे अपने घायलों की सारवार में लगे। बस उन हरे तंबुओं पर अचानक ही बड़े तीरो की बरसात होती। इस तरफ गढ़ के भीतर हमीर घूम घूम कर अपने घायल साथिओ का उत्साह बढ़ा रहा था, कभी सोमैया की स्वच्छ गगन में लहराती ध्वजा स्वयं ही उत्साहवर्धन का कारण बनती थी।

दूसरे दिन भी वही लुटेरे आगे बढ़ते, हमीर तथा उनके साथी उन्हें सोमैया के आशीष से खदेड़ने में सफल रहते।कभी जफर तोपें आगे करता तो जंगलो से आते तीर की प्रथम पसंद तोपची रहता। एकाद तीर से कोई तोपची बचकर अगर गोला दाग भी देता तो दूसरा तीर उसके प्राण लेने से चुकता नहीं।  इन गिनती में आ सके उतने राजपूत तथा भील विरो का संघर्ष जफर के लुटेरों की महत्वाकांक्षा के आगे उंचाइओ पर सीना ताने खड़ा था। रात्रि को उन्हें जमीन में सुरंग खोदने की आवाज सुनाई दी। इस तरफ से हमीरने भी सुरंग खोदकर समुद्र का पानी छोड़ दिया, सुरंग कोई काम की न रही। धीरे धीरे करते दस दिन बीत गए। ये मुठ्ठीभर युवक उन दुर्दांत यवनो की दुर्भावना को कसकर तमाचा मारे जा रहे थे। लेकिन लगातार संघर्षो से जंगलो में भीलो की संख्या नामशेष हो गई थी। कुछ कुछ जगह पर गढ़ तोपों से चलाए गए गोले से घायल हो चला था। रात्रि में यववनसेना ने अचानक एक भयंकर हमला किया था, हमीर गढ़ के कांगरे पर बैठा देख रहा था, भील सैनिक अपने प्राण की अंतिम ऊर्जा का उपयोग कर के ही कैलाशवासी होने जाता था। आसमान में उड़ते गिद्ध राजी थे बड़ी संख्या में उन्हें मिलने वाले भोजन से। हमीर ने आवाज लगाई : "वेगड़ा जी गढ़ के अंदर आ जाइए.."

वेगड़ा अपनी वीरता को चरम पर लिए हुआ था। वह उसकी ओर आते कमजोर म्लेच्छों को तो अपना सर भिड़ाकर सर पर पहने सींगो वाले मुकुट से ही ढेर कर देता था। स्वयं सोमैया का वाहन नंदी मानो मैदान में उतरा है। दोनों बलिष्ठ भुजाओ में उसने तलवार ली, भरचौमासे में कोई किसान खड़-पतवार काट रहा हो ठीक इसी तरह उसकी तलवार के झपटे चढ़ा पानी भी न माँगता था। किसी की दाढ़ी पकड़कर अपने घुटना भिड़ाकर उसे यमद्वार दिखा देता, कई यवन घुड़सवारों के घोड़े उसने अकेले तबाह कर दिए। कईओ को मार दिया था उसने, उसने आवाज सुनी, हमीर उसे गढ़ के भीतर बुला रहा था, लेकिन आज शायद उसकी ऊर्जा, उसकी वीरता, उसका साहस, उसे एकमात्र सलाह दे रहे थे, "युद्ध कर", "मार", "मर"। उसने वहीँ से आवाज लगाईं : "कुंवर ! आज तो मेरे सींग मुझे गढ़ में प्रवेश नहीं करने देंगे।" यह मर्म हमीर को हताहत कर गए। उसे सोमैया के नंदी सा लड़ता देख हमीर की आँखों के कोने से जलबूँद आई, पर पलकमात्र में अदृश्य भी हो गई।

युद्ध का ग्यारहवा प्रभात था आज। गढ़ खँडहर में परिवर्तित हो चुका था। नित्य क्रमानुसार सूर्योदय से पूर्व हमीर ने समुद्र में स्नान किया। प्रातः आरती का आरंभ हुआ, ढोल-नगाड़े-नौबत से वातावरण गूंज उठा। झालरों के रणकार से प्रकृति खिलने लगी। भगवान सोम के सामने बैठकर हमीर ने पूजा की। प्रतिदिन ज्योतिर्लिंग की आभा ऊर्जावर्धक हुआ करती थी, आज उसे ज्योतिर्लिंग में ज्योतिकी अनुभूति न हुई। मन ही मन उसने कुछ निश्चय किया। भगवन सोम को साष्टांग प्रणाम कर वह चल दिया।

"साथिओ, आज भगवन सोम का आदेश है, शिवधाम जाने का उचित योग है। वेगड़ो जी हमसे पहले ही पहुँच गए। आज हमारी बारी है। भगवन सोम के गण समान हमे कौशल दिखाना है। यह लुटेरे फिर कभी इस और दृष्टि करने की भी हिम्मत न कर पाए उस बात को हमे सुनिश्चित करना है। सोमेश्वर की कृपादृष्टि से हमे आज यहाँ प्रभु सोमैया के आगे ही वीरगति को पाने का अवसर मिला है। वीरोचित प्रसंग एकमात्र वीरगति ही तो है।"

सभी ने श्वेत वस्त्र धारण किये। सर पर केसरी साफा बाँधा। पिले हल्दी चन्दन से सभी ने होली खेली, भगवन सोम के अंतिम दर्शन कर "हर हर महादेव" तथा "जय सोमनाथ" के गगनभेदी नादो से आकाश घिर गया। गोहिल वंश का कुलदीपक हमीर अपने अश्व पर आरूढ़ हुआ। गढ़ के टूटने को आतुर किंवाड़ खोल दिए गए। एक साथ यह सोमनाथ का गण पुनः गर्जना कर उठा "जय सोमनाथ"...

म्लेच्छो पर एक चोट तो ऐसा आक्रमण किया की जफर की सेना की अग्रिम पंक्ति के तो पैर उखड़ गए। केसरिया करते राजपूतो की खासियत ही यही होती है की उन्हें बस अब मरना है, उनका दायित्व अब बस उतना ही है कि मरते मरते जितने दुश्मन साथ आ सके उतने ले चला जाए। हमीर के मस्तिष्क पर आज मृत्यु तांडव कर रही थी। दक्ष के यज्ञ का नाश करते भैरव सामान वह युद्धभूमि में दिखाई पड़ता था। उसने गोहिलो के रणकौशल की पर्याय समान दोधारी दोनों हाथो में धारण की हुई थी। घोड़े की लगाम खुली थी, उसका समझदार घोड़ा भी अपने डाबो से कई यवनो को धूल चटाता, हमीर की तलवार में चपला सी चपलता दिख रही थी। वह गिरता, फिर खड़ा होता, पुनः अपने शस्त्र संभालता, पुनः शत्रु को मृत्यु का दान करता। उसने यम के दाढ़ सा भाला उठाया, एक ही वार में कई शत्रुओ की छाती भेद दी। रक्त की धाराए प्रवाहित हो-होकर प्रभास का किनारा शोणितवर्णी हो चला था। फिर भी शोणित-प्यासा समुद्र आगे बढ़-बढ़ कर रक्त का जैसे रक्तपान कर रहा था। हमीर उसकी तृष्णा को छिपाने के लिए भर भर कर यावनी रक्त उसके लिए बहा रहा था। उसके स्वयं के भी कई अंगो से टपकता लहू समुद्र को सांत्वना दे रहा था। गिद्धों से आसमान लदा था। मानो सूर्यनारायण अपना रथ रोककर इस योद्धा के शौर्य का दर्शन कर रहे हो। धीरे धीरे ही सही लेकिन अब रणमेदान में शांति छाने लगी थी। रणबांकुरे सोने लगे थे। कोई कोई श्रेष्ठतम वीरवर पेट पर चली यावनी तलवार से निकली अपनी अतड़ियो पर पगड़ी बाँध कर पुनः अपना जोर आजमा ने में लगा था। पर कितनी देर ? इन विरो ने अपने साहस से अपने जीवित रहते सोमनाथ की गगनचुंबी पताका को लहराते ही देखा। छत्रपाल, पातळ, सग्देव, सब चिरनिंद्रा के शरण चले गए थे, हमीर अकेला पीछे रह गया था। हमीर अतुल्य साहस दिखाकर गिरा पड़ा था। उसकी आँखे लाल थी, शरीर पर असंख्य घाव, उसके शरीर से धीरे धीरे बहता रक्त उसे बेहोशी की और ले जा रहा था, वह अपने बचे प्राणो को, अपनी बची ऊर्जा को जागृत रहने में उपयोग करने रहा था। सूखता गला, घावों से होती असह्य पीड़ा उसके मन कुछ भी नहीं थी, उसके कान अभी भी रण-चीत्कार सुन पा रहे थे। सोमनाथ के गढ़ के भीतर से उठती अमानवीय संहार की चीत्कार, किसी म्लेच्छ का भयावह करता अट्टहास्य, वह पड़ा पड़ा सब सुन पा रहा था, तभी उसके कानो में सुमधुर स्वर सुनाई दिया... 

वेलो आव्यो वीर, सखाते सोमैया तणी ;
हिलोळवा हमीर, भाला नी अणी ए भीमाउत ;

[हे गोहिल भीम जी के पुत्र वीर हमीर ! सोमनाथ की सहायता हेतु, भाले की नोंक से दुश्मनो को हणने तू जल्दी आया।]

चारण आई लाखबाई अपने वचनानुसार मरसिये गा रही थी, उनके मधुर कंठ से लंबे आलाप में यह वीरोचित दोहे विलाप में भी मधुर लोरी की प्रतीति कराते थे। हमीर अपनी वेदना भूलने लगा था, उसके घावों पर मरहम सा काम करने लगे यह मरसिये।

पाटण आव्या पूर, खळहळता खांडा तणा ;
सेले माहीं शूर, भैंसासण सो भीमाउत ;

[प्रभास पाटणमें शत्रु सैन्य रूपी बाढ़ आई, तलवारो को खनक ही सुनाई दे रही थी, तब कोई शूरवीर भैंसा पानी को चोट करता आगे बढ़े ऐसे ही भीम के पुत्र हमीर तू खेला है।]


हमीर के कान तृप्त हो रहे थे, उसी सारी तृष्णाए परितृप्त होने लगी थी,

वन काँटाळा वीर, तुज तणे जुदा थया ;
आंबो अवळ हमीर, भांग्यो म्होरी भैंसासणा ;

[हे आम रूपी हमीर ! तेरे संरक्षण स्वरुप कांटेदार बाड़ अर्थात शस्त्रधारी लश्कर, तेरे से अलग हुआ (वीरगति को प्राप्त हुआ) तब तेरा रक्षण नहीं हो पाया, तेरी खिलती युवानी टूट गई, तू रणसंग्राम में काम आया।]

एके अहर हणे, शर लइ एके साचव्यो ;
एमां वखाणीऐ वडे, किओ हाथ हमीर को ;

[हे  हमीर ! एक हाथ से अहर (असुर) को मारा, दूसरे हाथ से खुद के सर का रक्षण किया, तेरे इन दोनों हाथो में से किसे बखानू ?]

वेळ ताहरी वीर, आवीने उवाटी नहीं ;
हाकम तणी हमीर, भेखड हुती भीमाउत ;

[हे सागर रूपी हमीर ! तेरी शौर्य की भरती उठी, लेकिन जफरखान रूपी चट्टान बिच में खड़ी थी, तेरी लहरे उससे टकरा कर वापस लौट गई, तू वीरगति को वरा।]

करमां शर करमळ करे, जुवे शर ने जगदीश ;
शर चड्यू हर शीश, ते भजाड़यु भीमाउत ;

[हे भीम के पुत्र हमीर ! तेरा जब मस्तक गिरा, तूने उसे हाथ में ले लिया, वह सर तब जगदीश-शंकर ने देखा, और पाने सर पर चढ़ा लिया। अर्थात तेरा मस्तक शंकर को अर्पण हुआ।]

पड्या हाथ हमीर, शरम परि साढू तणी ;
किसा से सधीर, भीड़ पड़ी ए भीमाउत ;

[हे भीम के बेटे हमीर ! तू और शंकर साढू लगते हो, शंकर भी भील कन्या पर मोहित हुए थे, तूने भी भील की पालक कन्या से विवाह किया है, उस साढू के संबंध से तू साढू का रक्षण करने आया, और तूने प्राण दिए।]

पैये शंकर पूजियो, माथु उतारी हाथ ;
धड़ लडिया धूडता, भाले चढ़ी भीमाउत ;

[हे भीम के पुत्र हमीर ! कई सारी विधिओ से शंकर को पूजा है तूने, मस्तक देकर फिर धड़ से लड़ा, तेरे भाले से दुश्मनो को मारा, तेरे धड़ को भी भालो से पिरोवाकर फिर वीरगति को पामा।]

बोल ज जे बापु तणा, हामु तने चड्या हैया ;
साचा साचविया, भांगे कांधे भीमाउत ;

[हे हमीर ! पिता के वचनो से तूने सोमेश्वर को शीश अर्पण किया, हे भीम जी गोहिल के पुत्र ! तूने अपने कंधे कटवाकर - गर्दन टूटी - वह सत्य साबित किया।]

संत चालणा ते वाय, अंग जे अणसारो थयो ;
कम तोय कुल एवाय, भरिया पाग ज भीमाउत ;

[हे गोहिल भीम के पुत्र हमीर ! तेरे चित्त में दुशमन में सामने कदम बढ़ाने की इशारत हुई, उसका कारण यही है की गोहिल कुल की कुलपरंपरा ही शत्रु को सामने चलकर मारने की है। तू भी सामने से शंकर की सहायता के लिए आया।]

माथे मुंगीपुर तणु, वसाया वर शीष ;
सोमैया ने शीश, अर्प्युं अर्थिला धणी ;

[हे अर्थिला के हमीर ! तू मुंगीपुर के शालिवाहन के वंश का है। तेरा मोसाल (ननिहाल) भी कुलीन है। इसी कारण तूने सोमनाथ को शीश अर्पण किया है।]

शंकर तणा शरीर, माथे म्लेच्छायेण तणा ;
पडिया हाथ हमीर, भोय तांहरा भीमाउत ;

[हे हमीर ! शंकर पर मुसलमानो के हाथ लगे, इस लिए तू लड़कर मरा, पर अखंड न रख सका, तेरे हाथ जमीं पर पड़े (संरक्षण विफल रहा)]

रडवडीये रडिया, पाटण पार्वती तणा ;
कांकण कमळ पछा, भोंय तांहरा भीमाउत ;

[हे भीम के पुत्र ! तेरे मरने से पार्वती के (प्रभास)पाटण नगर में सब लोग रो पड़े, सोमनाथ जी मानभंग होने से पार्वती के कमल समान कंकण जमीन पर गिरे।]

तू मरते मरिया, हर शीयर हिमायती ;
छो चूड़ा चड़िया, भज त्री भांग्या भीमाउत ;

[ओ भीम जी के वंशज ! तेरे मरने से तीन मरे, एक तो शिव, दूसरा शिव के मस्तक पर बैठा चंद्र और तीसरा तू, इस लिए तीनो की स्त्रीओ के छह चूड़ियां भंग हुई।]

तूं ज हमीर हमीर ! शंभु ताने साराहियो ;
वाढ पडंता वीर, जके न भांग्यो भीमाउत ;

[हे हमीर ! तू सच्चा हमीर (अमीर) है, शंभु ने तेरी प्रशंसा की, तेरे पर शस्त्रों के झाटके पड़े पर तू टुटा नहीं।]

हुं जाऊं हर पालणा, तू रे साव सधीर ;
हवे पाटण हमीर, तों भळाव्यु भीमाउत ;

[हे शंकर का रक्षण करने वाले हमीर ! अब मैं घर लौट रहा हूँ, तू सावध रहना। अब पाटण की जिम्मेदारी तुज पर ही है, तो उसका रक्षण करना।]

चारोओर मृत्यु के मचाए तांडव के पश्चात एक नीरव शांति प्रसर गई। रणमैदान में चहुदिश लाशें ही लाशें थी। सोमनाथ की रुण्डमाला में अपना भी मस्तक चढ़ाकर अर्थिला - आज भावनगर के पास का लाठी शहर -का कुंवर हमीर जी गोहिल प्रभास पाटण की पवित्र भूमि में सदा के लिए सो गया। 

आज सोमनाथ के गगनचुंबी मंदिर के मुख सन्मुख हमीर जी गोहिल की विशाल कद की अश्वारूढ़ प्रतिमा उस शौर्यगाथा को गाती खड़ी है।


|| अस्तु ||

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