कुछ भी तो नहीं... || Nothing else... ||

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कहते है, तुम्हे लिखना है तो रोज लिखो..! तुम्हारी आदत होनी चाहिए.. दिन भर कुछ नहीं लिख पाए ? तो रात्रि को सोने से पहले भले ही एक पेरेग्राफ लिखो.. लेकिन लिखते रहो..! पता नहीं, मैं तो कभी भी प्रतिदिन कुछ भी न लिख पाया..! दो शब्द भी नहीं..!


लेकिन तुम्हे पता है ? मैं कई बार चलते फिरते तुम्हे मेरी कल्पना में मेरे सामने खड़ा पाया देख मौन हो जाता हूँ..! यु तो तकनीकी कागज़ पर कीबोर्ड से सेंकडो शब्द मैं तुम्हे कह पाता हूँ, पर रूबरू ? निःशब्द। अखंड नीरवता..! बस तुमने कुछ कहा तो मैंने प्रत्युत्तर दिया। तुमने कोई इशारा किया, मैंने भी प्रत्युत्तर किया। हाँ, कभी कभी साहस कर लेता हु कल्पना में तुमसे मिलने का..!

खेर ! तुम बताओ, तुम्हारा दिल क्या कहता है लेखन के विषय में ? यदि लिखना है तो क्या लिखना है ? अगर निश्चित विषय है फिर कितना लिखना है ? यदि लिखने की मात्रा भी पता है और लिख भी दिया फिर क्यों लिखा है ? यक्ष प्रश्नो के भाँती है यह.. क्या, कितना और क्यों ? यह तीन पर्याप्त है शायद किसी लेखनी को सिद्धहस्त करने के लिए। कल मैं किसी से बात कर रहा था उन्होंने बताया, वे लिखते है अपने ही वैचारिक द्वंद्व के शमन हेतु..! और अंत में चर्चा का निष्कर्ष यही निकला की साहस और सहनशीलता की पराकाष्ठा का रूपक किसी को देना हो तो वह होगी डायरी..! लाखो शब्दों में कितने रहस्य उन डायरी ओ में निरावरणित पड़े होंगे ? कोई डायरी प्रियतम के प्रति प्रियतमा के एकपक्षी भाव सम्हालकर अलमारी के किसी कोने में छिपी बैठी होगी, कोई डायरी किसी सुगन्धित पुष्प के जीवाश्म लिए बैठी होगी, कभी किसी ने अपने ही शब्दों को चूमा होगा, और होंठो की लाली को अपने भीतर समाए होगी, कभी किसी ने कसकर छाती से लगाया होगा तो इत्र की महक को भी उसने अपने से जुदा न किया हो ! कभी किसी हृदयभग्न के प्याले से रिसकर दो बून्द डायरी ने भी चखी हो ? किसी डायरी ने अपने श्वेत तन को सिगरेट से झुलसाया हो ? क्या पता कोई आज भी अनेको पुस्तकों के निचे बेचारी निःसहाय हो दबी पड़ी हो ? यह भी तो हो सकता है कि पत्रव्यवहार तक पहुंचे संबंध का कोई आखरी खत के कुछ बिछड़न के शब्दों भरे पन्ने को अपनी हूँफ में लिया हो उसने !

कोरी कल्पना..! न कोई वास्तविकता जान पाया है, न किसी के पास समय है। उनके पास तो कतई नहीं जिन्हे समर्पित है यह निरावरण लेखनी...! तुम्हे पता है, दो समान विचारधारा के लोग भी कभी एकमत नहीं हो सकते..! विचारो की कोई सीमा नहीं, कहीं न कहीं तो उनके विचारो का टकराव होता है। तब उनकी एक जैसी विचारधारा, तथा एकसमान व्यवहार ही उनकी समस्या में परिवर्तित होता है। दोनों आमनेसामने आ जाते है। क्या हो अगर पहले से ही उतनी दूरी बनाई रखी जाए। वो आजकल नया शब्द है "कम्फर्ट ज़ोन".. एक दूसरे के कम्फर्टज़ोन को अगर क्रॉस न किया जाए तो ? शायद संभव नहीं।

ये सब चोंचले है, क्योंकि चित्त चंचल है। आजकल सवेरे जल्दी उठ जाता हूँ, चाय पीकर एक दौड़ लगा आता हूँ। हां, कई दिनों के बाद फिर से अब मुझे चाय के बाद सिगरेट नहीं चाहिए। वो किशोरावस्था में लोग कहा करते है न की सुधर जाओ, वरना आगे बहुत दिक्कत होगी.. आज इतना आगे आने के बाद दिक्कते तो ठीक है, लेकिन सुधरा हुआ मैं ही मुझे पसंद नहीं कर पाता। यह जो इंट्रोवर्ट टाइप लोग होते है वे वाकई मुर्ख होते है, स्वयं की रची सृष्टि में स्वयं से ही युद्ध करते, स्वयं को फांसने के लिए स्वयं ही जाल बिछाते, स्वयं ही पकड़ा जाते, स्वयं ही सजा पाते। किसी अन्य का इंटरफेयरेंस उन्हें कतई मंजूर नहीं। लेकिन जिससे घुलने मिलने लगते फिर उनसे दूरी उन्हें कल्पना में भी भयावह मालुम हो पड़ती है।

तुम्हे पता है ? मेरी आस्तिकता-नास्तिकता के मानदंड भी मैं ही निर्धारित करता हूँ, शायद सब करते है, इसी कारण से लोग सावन में मदिरा को हाथ न लगाते और सावन के उतरते ही होमडिलिवरी माँगा लेते। मैं भी तो शायद ऐसा ही हूँ। मुझे सुख में, मेरे मन को पसंदीदा दिनों में, मेरी आस्था चरम पर होती है। आसपास के सभी देवालयों में मेरी हाजरी नित्य हो जाती। और जैसे ही संकट आए, मानसिक विचलन हो तब मैं उतना ही देवालयों से दूर भागता हूँ। गंगा उलटी बहने लगती। पता नहीं क्यों लिख दिया यह.. अब पड़ा रहने देते हूँ। किसी दिन अवस्था घेर लेगी तब क्या पता मुझे ही यह पढ़ने की इच्छा हो, पढूं, शायद समझ पाऊं, स्मृतिओं का अनुभव ले सकूँ।

सुनो ! उस दिन के बाद अथाह प्रयासों के बावजूद तुम अब मेरे स्वप्नों में नहीं आते, रूठे हो क्या ? तुम्हे ही याद करके सोता हूँ, किसी ने कहा था। सोने से पहले जो विचार होते है वही स्वप्न में आते है, शायद ऐसा नहीं है। कुछ हम जैसे हतभागी भी होते है, जिनके यहाँ सालो में एकबार रामजी राजी होते है। ज्यादातर तो स्वप्न याद ही नहीं रहते, जो याद रहते है उनमे ऊटपटाँगी के अलावा कुछ होता नहीं है, और जब अचानक ही कोई स्वप्न याद आए तो वह 'ड्डेजावू' के रूप में ही फलीभूत होता पाता हूँ।

सो बात की एक बात, आज बस लिखने की खातिर लिखा है। आज मेरा कल्पनाश्व भी लंगड़ा हुआ लगता है, न ही मेरे शब्द आज कुछ जादू चला रहे है। वरना लिखते समय मुझे अवश्य ही अनुभव होता है की लेखनी सही जा रही है। आज टेढ़ी चल रही है। पता नहीं इसका दोष भी तुम्हे ही दूँ ?

|| अस्तु ||


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