सुन प्रिया - मेरी डायरी आज तू मेरी सुन..
वही दोपहर दो बजे घर पहुंचा, कीचड़ में नहाइ भैंस जैसी मोटरसायकल को खूब नहलाया.. घड़ी में अभी भी तीन ही बज रहे थे..! फिर सावन मास के बढ़े बाल-दाढ़ी को आज नाई पास जाकर तिलांजलि दी..! और सुन डायरी, बहुत दिनों बाद आज उटपटांग सुना रहा हूं मेरी प्यारी प्रिया दैनिकी, प्रतिदिन तो मैं लिखता नही पर फिर भी दैनिकी कहने में क्या समस्या..!
हाँ, फिर अब कुछ भी नही, बिल्कुल गर्मियों के आसमान की तरह खाली.. कुछ काम नही.. कभी कभी अपने को कुछ न कुछ काम चाहिए ही.. तुजे तो पता है.. कुछ काम न हो तब तेरे ही पन्नो पर यह कर्कशी चलाता हूं।
हारे का सहारा बाबा इंस्टाग्राम हमारा.. कुछ रिल्स देखी, स्टोरियां चढ़ाई.. अब.. घर.. खाना-पीना निपटाया.. खाली दिमाग शैतान का घर..पता नही कब कैसे मेरे कदम मुझे दुकान पर ले गए, हाथो ने दुकान वाले से सिगरेट ली, होंठो ने अपने साथ बिठाई, फेफड़ो ने लंबी लंबी सांसे ली.. धीरे धीरे मेने अपने पर नियंत्रण पाया.. और एक और सिगरेट फिर मैंने ही खरीदी..!
उसी मैदान में बैठा, अकेला, सोच में डूबा हुआ, क्या लिखा जाए? क्या विषय हो? कुछ भी न सुज रहा था। सोचा घिसे-पीटे प्रेम को एक बार फिर से लपेटे में लिया जाए.. लेकिन दिल कहने लगा, तू मन की बहुत मानता है.. थोड़ा मुझ पर रहम कर अगर मैं बैठ गया तो सोच ले.. अब दिल की डायरेक्ट धमकी के बाद पंगा लेना.. तूफानी समुद्र में उल्टी हवा में नाव ले जाने बरोबर.. लेकिन एक दिल-दिमाग से मुक्ति दिलाने वाला ख्याल आया.. इसे ही तो अंतर्द्वंद कहते है.. बंदर सांप को घिसे ऐसे ही आज अंतर्द्वंद्व को घिस डालते.. मस्त गुजराती में एक पेरेग्राफ बनाया.. की, मंद मंद पवन की लहेरखिया अनिंद्रा के शिकार को भी सुला दे, आकाश में टिमटिमाते सितारो में होड़ लगी थी कि कौन अपने प्रकाश से आसमान की सुंदरता में अभीवृद्धि कर पाए? और.. तभी प्रीतम आ धमका.. अचानक ही, बिन बारिश की बाढ़ जैसा.. प्रेम का चलता फिरता बैंक है ये.. अकेला ही सब कुछ संभालता है..
"क्या कर रहा है?" आते ही हाथ से दूसरी सिगरेट छीन कर बोला..!
"सोच रहा हूं।" मैंने तिरछी दृष्टिसे मेरी सिगरेट उसकी उंगलियों में देखते कहा।
"क्या ?" पास ही पड़ी माचिस भी उसने उठाई।
"यही की सिगरेट और प्रेम में बहुत समानता है.." मैंने विचारक की भांति हाथ हिलाते हुए उससे माचिस ले ली..!
"ओय, सिगरेट का और प्रेम का क्या लेनादेना?" उसने माचिस की और हाथ बढ़ाया लेकिन,
"देख, यह माचिस के बिना सिगरेट नही जलती, तो प्रेम भी कुछ यूं ही समझ ! की चिंगारी तो उसे भी चाहिए…" अपन पूरे विचारक के स्वांग में माचिस को दोनो हाथो में दाबते बड़बड़ा गए।
"और..?" आखिरकार उसने हार मानते सिगरेट मेरे हाथ मे सौंपी।
"देख सिगरेट और प्रेम, दोनो व्यसन जैसे है।"
"ओ भाई, तू रहने दे.. अभी आगे बोलेगा की दोनो तबाह भी करते, एक से दिल जलता दूसरे से शर्ट.." झुंझलाते उठ खड़ा हुआ, और जाते जाते बोला, "क्या हो अगर दो जनों के लिए सेम टू सेम भावना हो..?"
प्रीतम ले आया सवाल.. हथोड़े जैसा, नाम प्रीतम, और प्रीति न हो?
प्रीतम तो लेसन देकर चला गया, मेरे दिमाग के चरते घोड़े अपने तबेले की और मुड़ गए, उपरसे दरवाजे भी उन्होंने अंदर से बंध कर लिए..
दूसरी सिगरेट जलने को आतुर थी.. हवा भी अच्छी चल रही थी मैदान में, तो सिगरेट ने भी जल्द ही अपना आयुष मुझे समर्पित कर दिया..!
मैदान के पीछे नदी है, नदी के उस पार सुनी जगह है, लोमड़ियों का झुंड चिल्ला रहा था। मैं मैदान में बैठा सोच में पड़ गया.. तभी प्रीतम का मैसेज आया, "बता बाबुभैया बता.. वरना मान ले तूने जिंदगी में कुछ उखाड़ा नही है.. बस काली स्याही से सफेद पन्नो पर लीपा-पोती करता है..!"
जिंदगी कठिन है, लेकिन इतनी उलझी हुई ? प्रीतम को मैं जानता हूं, उसके प्रेम संबंध को समझता हूं, भावनाओ में बह जाता है भाई.. दिखता सुंदर है तो सामने से भी तारीफे मिलती, और बस प्रेम को तो उंगली चाहिए होती है, पूरे का पूरा प्रीतम फिसल जाता..!
खेर, अभी रात के साढ़े-ग्यारह बजे मेरी प्यारी डायरी तुझे मेरी आपबीती सुना रहा हूं.. दलदल मैं फंसना बहुत आसान है..! यह प्रेम की मायाजाल में कौन नही फंसता है?
मैं अपनी स्मृतियो में फिसलने लगा था, कॉलेज के वे दिन, क्या मस्ती थी.. पिताश्री के तो पैसो का पेड़ था, अपन जड़ खोदने पर उतारू थे.. आज जब खुद पौधा उगा रहा हूँ तब अच्छे से समझ पा रहा हूँ..!!! लेकिन कोलेजियन लड़के को कहाँ पता होता है.. चलती बस की छत पर आखरी तिल्ली से सिगरेट जलाना, आधी रात को होस्टल के पहले माले से नीचे वाले रूम की खिड़की के छज्जे पर से होते हुए छलांग लगा कर नास्ते की खोज में निकलना.. यह सब पागलपन लगता है.. लेकिन मजे इसी में थे। और इन्ही दिनों में किसी से आंखे चार होती है..!
फिर वही मल्हार का सप्तम सुर.. प्रेम प्रसंग.. ऊपर से तुम इंट्रोवर्ट हो तो शुरू शुरू में बहुत पोपट होता है..! तुम अपने किसी खास दोस्त से अपनी बात उन तक पहुँचवाओगे.. और दोस्त भी इस समय मजे लेने से चुकता नही।खेर ! सबके अपने अलग प्रसंग होते है..!
तो प्यारी प्रिये, अब तू तो लगभग हर बात जानती है मेरी.. कॉलेज काल मे हुई आंखे चार किसी किसी की ही जिंदगी बनती है..! बाकीओ को तो चश्मा ही लगता है। कॉलेज की कैंटीन से अमावस्या हुआ चाँद काफी दिनों पश्चात पूर्णिमा स्वरूप में लौटा..! ह्रदय में उफान उठ आया.. ह्रदय के धबकने की तीव्रता में भयंकर उछाल आया.. लगा था बेसुध हो जाना ही बेहतर है.. समस्या का सामना करने से। अमावस्या के भारी विषाद से मैं चंद्रिका के सहारे पुनः खड़ा हो पाया था..! क्या कोई अपनी प्रथम प्रिया को भूल सका है ?
क्या हो अगर अब में चांद के पास लौट आऊं चंद्रिका को छोड़कर ? क्या हो मेरे आसरे आई चाँद को मैं चंद्रिका की छांव में रहकर धुत्कार दूं ? सच कहूं तो मेरे ह्रदय के किसी कोने में चाँद आज भी चमक तो रहा था.. शायद सबके ह्रदय में एक कोना किसी एक के लिए संरक्षित होता है.. कोई भी उस कोने तक नही पहुंच सकता..। किसी का अधिकार भी नही है उसमे दाखिल होने का..। वहां चाँद अपना एकाधिकार लिए थी।
"अबे जवाब मिला कुछ ?" फिर से प्रीतम का मेसेज आया। और मैने इग्नोर कर अपनी प्रिया को लिखना जारी रखा..
एक ही समय, एक ही ह्रदय में दो एक साथ कैसे स्थापित हो सकते है? यह तो अन्याय है किसी एक के प्रति। शायद सब ही करते होंगे ? पता नही। पर फिर भी दोनो का अच्छा लगना, और दोनों के प्रति एक ही भाव होना संभव तो नही लगता। पर हायपोथेटिकल सोचने में क्या जाता है ? सवा- बारह ही बज रहे है, और प्रिया के अभी कई पन्ने कोरे है..!
ऐसा भी तो नही कर सकते कि दोनों को अपने पीछे घसीटा जाए। यदि किसी एक को चुने और वह निर्णय गलत हुआ तो ? या फिर दोनों के प्रति समान भावना के कारण चयन ही न हो सके? इस अंतर्द्वंद्व का निराकरण क्या होगा ? अपनी भावना को अपने भीतर ही सड़ाकर अपने आप को यातनाग्रस्त करना ? आखिरकार हम लोग यही रास्ता अपनाते है। दुसरो को अपने ताप से झुलसते बचाने के लिए स्वयं का सर्वनाश.. क्या ऐसा नही हो सकता विश्वामित्र के समान अपना अलग स्वर्ग का निर्माण हो.. या फिर त्रिशंकु की तरह सदाकाल झूलते रहना उचित है? युधिष्टिर के समान यक्षप्रश्न का नीरक्षीर विवेक कर पाना कठिन अवश्य है, पर निरुत्तर रहना भी कहाँ न्याय होगा? दो-मुंहे साँप की भांति में लिख रहा हूं ऐसा तुम सोच रही होगी प्रिया, पर निष्प्राण होने से अच्छा है उस भावना में से किसी एक को चयन करना, और पूर्णतः उसे ही समर्पित होना..
चाँद और चंद्रिका को एकसाथ एक ही ह्रदय में रखना पीड़ादायक है.. यदि प्रथम से ही निष्ठुर होकर एक पथ पर चला जाए तो ? जीवन ऐसा ही है.. द्वि है.. अनन्य नही.. काला है, सफेद भी.. फिर मेरे जैसे 'ग्रे' के पक्षधर बन बैठते है..!
सुनो प्रिया, संभव है प्रीतम जो कह रहा है उसमे आशा की किरण हो, पर यह व्यवहारिक नही है। चयन के अलावा मार्ग संभवता ही नही। दोनो पर पसंदगी का कलश कैसे ढलेगा ? दो नो में रंगरूप, भावना, व्यवहार, कुशलता कई सारे मापदंड है। दोनो का तोलन अनिवार्य है। अवश्य ही तुम पाओगे, एक मूल्यवान हीरा है, दूसरा कांच का..!!! यह तुलना तुम्हारे लिए तुम्हे स्वयं करनी होगी। और फिर किसी एक के प्रति अपना संपूर्ण समर्पण.. वरना पहले लिखा वह त्रिशंकु की दशा को आज का युग नही देख सकता। सीधा और सरल ही तो है, तुम अपने मन के खींचे खींचते रहोगे तो हीरा तो गया, कांच भी फुट जाएगा। तीसरा मार्ग है, विश्वामित्र की भांति अपने स्वर्ग का स्वयं निर्माण करो।
पता नही प्रिया, विषय के अभाव के ग्रस्त को प्रीतम ने पौने एक तक जगाया है..!
"आडंबर के अवतार, प्रीतम को क्यों दोष देता है?" डायरी बोल पड़ी..
"देख यार, रात के पौने एक मे तुझसे बहस नही चाहता.." और मैं डायरी बंध करके सो गया।
रात में पौने एक पर सोने से प्रातः साढ़े छह को आंख तो खुल गई, पर आलस ने घेर लिया.. पड़ा रहा लगभग आठ बजे तक, पंखे की हवा का सहारा लेकर सर के पास पड़ी डायरी का पन्ना जब चेहरे पर टकराया तो रात का लिखा आंखों के आगे चकराने लगा..! फिर से पूरा पढा.. क्या उटपटांग लिखा है..!
समस्या का समाधान तो कुछ है.. बस सवालों की छड़ी है.. दो व्यक्ति के प्रति एक ही समय प्रेम भाव उद्भवता है तो क्या किया जाए ? सीधा सिम्पल जवाब यही है कि इस स्थिति को प्रेम नही पीड़ा कही जाए। दोनो के साथ रहना संभव नही, सामाजिक दृष्टि से व्यवहारिक भी नही। तो.. किसी एक से अलविदा लेना सर्वथा उचित, उपयुक्त है। अब दोनों में से चयन किसका हो वह प्रीतम स्वयं नक्की करे..।
तो प्रिय दैनिकी, आज तेरे पन्ने पर कुछ ज्यादा ही कलम चल गई..!!